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शुक्रवार, 25 जुलाई 2014

लोकसेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा क्यों?

दो टूक/
लोकसेवा परीक्षा में भारतीय भाषाओं की उपेक्षा क्यों?
-राजेश कश्यप

                 संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) परीक्षा में हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं की घोर उपेक्षा के प्रति रोष की आग देश की राजधानी दिल्ली में भडक़ उठी है। यह कोई सामान्य आक्रोश की आग नहीं है। इस आग ने कई सुलगते सवाल पैदा किये हैं। मसलन, क्या सचमुच देश की सबसे बड़ी परीक्षा प्रणाली में हिन्दी सहित सभी भारतीय भाषाओं की घोर उपेक्षा हो रही है? क्या सिर्फ अंग्रेजी ही सर्वोच्चत्ता का पैमाना बनकर रह गई है? क्या प्रतिभा का पैमाना सिर्फ अंग्रेजी ही है? क्या अंग्रेजी का विरोध अनुचित है? आखिर, अंग्रेजी खासकर ग्रामीण प्रतिभाओं के लिए हौवा क्यों है? अंग्रेजी थोपना जरूरी है या मजबूरी? यदि इन सुलगते सवालों के जवाब पूरी जिम्मेदारी एवं गहराई से जानने की ईमानदार कोशिश की जाए तो संभवत: देश एक सार्थक दशा एवं दिशा में सहज अग्रसित होगा।
                इसमें कोई दो राय नहीं है कि यूपीएससी परीक्षा के केन्द्र में अंग्रेजी का बोलबाला है। अतीत से लेकर आज तक अंग्रेजी को ही सर्वोच्चत्ता एवं प्राथमिकता दी जा रही है। ऐसा क्यों? नि:सन्देह इसके लिए अतीत में झांकने की आवश्यकता है। अतीत में झांकने के बाद सहज बोध होता है कि सिविल सर्विसेज परीक्षा अंगे्रजी वर्चस्व की मानसिकता और भारतीयता की गौरवमयी अनुभूति के बीच गहरा संघर्ष रहा है। बदकिस्मती से डेढ़ सौ वर्ष से चले आ रहे संघर्ष में आज भी अंग्रेजी मानसिकता भारतीयता पर हावी है। देश ने अंग्रेजी सरकार से तो मुक्ति पा ली, लेकिन अंग्रेजी मानसिकता में अभी तक जकड़ा हुआ है।
                 अंग्रेज धूर्त एवं शातिर दूरदृष्टा थे। उन्होंने प्रारम्भ में तो भारतीयों को शिक्षा से ही वंचित रखा। सन् 1854 में अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये चाल्र्स हुड ने शिक्षा चार्टर लागू किया और ऐसी प्रणाली विकसित की कि भारतीयों के लिए उच्च-स्तरीय सेवाओं में शामिल होना संभव ही न हो सके। इसके मद्देनजर, सिविल सर्विसेज परीक्षा के लिए अधिकतम आयु 22 वर्ष रखने और परीक्षा देने के लिए लंदन जाने का प्रावधान बनाया गया। भारतीय बच्चों के लिए इस मानक पर खरा उतरना नामुमकिन था, इसके बावजूद जब इसे सन् 1861 में सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने आईसीएस की परीक्षा पास करके मुमकिन बना दिया तो अंग्रेज बौखला गए। उन्होंने इस परीक्षा के लिए अधिकतम आयु 22 वर्ष से घटाकर मात्र 19 वर्ष कर दिया। इसके बाद, सरकार की उच्च-स्तरीय सेवाओं में मनमानी एवं भेदभावपूर्ण नीति के विरूद्ध देशभर में विरोध एवं आक्रोश की भावना ने जन्म लिया।
                 विडम्बना देखिए, यही विरोध और आक्रोश की भावना स्वतंत्रता प्राप्ति के साढ़े छह दशक बाद देश की राजधानी में भडक़ी आग की लपटों में भी दिखाई दे रही है। स्वतंत्रता प्राप्ति के तीन दशक से अधिक समय तक तो लोकसेवा आयोग परीक्षा का एकमात्र माध्यम अंग्रेजी ही रहा। भारी विरोध एवं आक्रोश के बाद बाद ही अन्य विकल्प जोड़े गए। वर्ष 1977 में डॉ . दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में एक आयोग गठित हुआ, जिसने संघ लोक सेवा आयोग तथा कार्मिक और प्रशासनिक सुधार विभाग आदि के  दृष्टिगत यह सिफारिश की थी कि परीक्षा का माध्यम भारत की प्रमुख भाषाओं में से कोई भी भाषा हो सकती है। वर्ष 1979 में संघ लोक सेवा आयोग ने कोठारी आयोग की सिफारिशों को लागू किया और भारतीय प्रशासनिक आदि सेवाओं की परीक्षा के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में से किसी भी भारतीय भाषा को परीक्षा का माध्यम बनाने की छूट दी गई। इसका लाभ उन उम्मीदवारों को मिलना सम्भव हुआ जो गाँव-देहात से सम्बन्ध रखते थे, अंग्रेजी स्कूलों में नहीं पढ़ सकते थे और अनूठी प्रतिभा एवं योग्यता होते हुए भी अंग्रेजी के अभिशाप से अभिशप्त थे।
                 वर्ष 2008 से मुख्य परीक्षा में अंगे्रजी एवं हिन्दी दोनों भाषाओं में प्रश्रपत्रों को अनिवार्य किया गया। इसके बावजूद अंग्रेजीयत दुर्भावना का कुचक्र समाप्त नहीं हुआ। अंग्रेजी प्रश्रपत्रों को हिन्दी में इस प्रकार से अनुवादित किया गया कि हिन्दी परीक्षार्थियों के लिए उसे समझना टेढ़ी खीर साबित हो जाये। वर्ष 2011 में लोकसेवा आयोग ने सिविल सेवा परीक्षा में एक बड़ा बदलाव करते हुए वैकल्पिक विषय को हटाकर सामान्य अध्ययन के दो अनिवार्य प्रश्रपत्र शुरू किये। इनसें से एक प्रश्रपत्र पूर्णत: सामान्य अध्ययन का है तो दूसरे पत्र को 'सीसैट' की संज्ञा दी गई है। इस 'सीसैट' का मतलब है 'सिविल सर्विस एप्टीट्यूड टैस्ट'। 'सीसैट' में कुल 80 प्रश्रों में से 40 प्रश्र गद्यांश (कान्प्रहेंसिव) के होते हैं। इन गद्यांशों का हिन्दी अनुवाद शक एवं षडय़ंत्र के दायरे में हैं। इस हिन्दी अनुवाद को समझने में बड़े-बड़े दिग्गजों के पसीने छूट जाते हैं। इसके चलते हिन्दी भाषी प्रतिभाओं का पिछडऩा स्वभाविक है। जबसे 'सीसैटÓ प्रणाली लागू की गई है, हिन्दी माध्यम के प्रतियोगी निरन्तर हाशिये पर खिसकते चले गये।
                 आंकड़ों के नजरिये से देखें तो 'सीसैट' लागू होने से पहले सिविल सेवा परीक्षा में उत्तीर्ण होने वाले हिन्दी भाषी प्रतियोगियों का प्रतिशत दस से अधिक ही होता था। वर्ष 2009 में तो यह 25.4 प्रतिशत तक जा पहँुचा था। लेकिन, वर्ष 2013 में यह प्रतिशत घटकर मात्र 2.3 पर आ गया। जबकि, इसके विपरीत इंजीनियरिंग एवं मैनेजमैंट की अंग्रेजी पृष्ठभूमि के प्रतियोगियों का एकछत्र साम्राज्य स्थापित होता चला गया। इस तथ्य की पुष्टि करने वाले आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2011 में मुख्य परीक्षा में बैठने वाले प्रतियोगियों का प्रतिशत 82.9 और वर्ष 2012 में 81.8 प्रतिशत था। वर्ष 2009 की प्रारंभिक परीक्षा में सफल होने वाले कुल 11,504 परीक्षार्थियों में से 4,861 हिन्दी माध्यम के थे। इसी तरह वर्ष 2010 में मुख्य परीक्षा देने वाले कुल 11,865 में 4,194 हिन्दी भाषा के परीक्षार्थी थे। जबकि वर्ष 2010 में मुख्य परीक्षा में शामिल होने वाले कुल 11,237 परीक्षार्थियों में से हिन्दी के मात्र 1,700 परीक्षार्थी ही थे, वहीं अंगे्रजी के परीक्षार्थियों की संख्या 9,316 थी। वर्ष 2012 की मुख्य परीक्षा में शामिल होने वाले कुल 12,157 परीक्षार्थियों में से जहां अंग्रेजी के 9,961 परीक्षार्थी थे तो वहीं हिन्दी के मात्र 1,976 ही थे। इसके साथ ही वर्ष 2013 में सिविल सेवा परीक्षा में उत्तीर्ण कुल 1122 प्रतियोगियों में से हिन्दी भाषा के छात्रों की संख्या मात्र 26 ही थी।
                 आंकड़ों से स्पष्ट है कि 'सीसैट' लागू होने से पूर्व संघ लोकसेवा आयोग की परीक्षा में उत्तरोत्तर हिन्दी माध्यम के परीक्षार्थियों की संख्या में निरन्तर इजाफा हो हा था। हिन्दी माध्यम से उच्चाधिकारी बनने वालों ने स्वयं को साबित करके दिखाया है कि वे अंगे्रजी वालों से किसी भी मामले में कमत्तर नहीं हैं। ऐसे में जब हिन्दी माध्यम वाले युवा अंगे्रजी वालों से किसी मायने में कम नहीं हैं तो फिर उनकों राष्ट्र सेवा से क्यों वंचित करने की कोशिश की जा रही है?
                सर्वविद्यित है कि देश में सत्तर फीसदी से अधिक लोग गाँव-देहात में निवास करते हैं और अत्यन्त गरीबी का जीवन जीते हैं। वे अपने बच्चों को बड़ी मुश्किल से सरकारी स्कूलों में पढ़ा पाते हैं। देश के सरकारी स्कूलों की दयनीय हालत किसी से छिपी हुई नहीं है। बच्चों को समुचित संसाधनों के अभावों के बावजूद पढऩे के लिए बाध्य होना पड़ता है। कुछ लोग कर्ज लेकर अपने बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए शहरों में भेजते हैं और आर्थिक मजबूरियों के चलते अंगे्रजी संस्थानों और कोचिंग सैन्टरों में नहीं भेज पाते हैं। इन सब विपरित परिस्थितियों के बावजूद एक आम आदमी का बालक यदि अपनी मातृभाषा अथवा राष्ट्रभाषा के माध्यम से उच्चाधिकारी बनने का संपना संजोता है और अपनी अटूट मेहनत और अनूठी प्रतिभा के बल पर अपना लक्ष्य हासिल करने की कोशिश करता है तो उसकी कोशिशों और सपनों पर पानी क्यों फेरा जाता है?
                 विडम्बना का विषय है कि लार्ड मैकाले के दावे को आज भी हम चुनौती देने में सक्षम नहीं हो पाये हैं, जिसमें उन्होंने कहा था कि हम ऐसा भारत बना देंगे, जो रंग-रूप में तो भारतीय होगा, लेकिन भाषा और संस्कार में अंग्रेजीयत का गुलाम होगा। नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में बनी नई केन्द्र सरकार से तब नई उम्मीदों ने जन्म लिया, जब उसने हिन्दी एवं अन्य सभी भारतीय भाषाओं को पूर्ण मान-सम्मान देने का संकल्प लिया। सरकार के सभी विभागों में हिन्दी को प्राथमिकता देने के आदेश भी जारी किये गये। इसी से उत्साहित होकर यूपीएससी की परीक्षा में बैठने वाले हिन्दी भाषी प्रतियोगियों ने 'सीसैटÓ के खिलाफ आवाज बुलन्द की और परीक्षा प्रणाली में बदलाव की मांग की। इसके मद्देनजर सरकार ने आगामी 24 अगस्त को होने वाली प्रस्तावित प्रारंभिक परीक्षा को स्थगित करवाने के संकेत देते हुए अरविन्द वर्मा कमेटी गठित कर दी। इस कमेटी की रिपोर्ट आने से पहले ही यूपीएससी ने प्रारंभिक परीक्षा के एडमिट कार्ड जारी कर दिये। इससे खफा होकर हिन्दी प्रतिभागियों ने दिल्ली में आगजनी एवं हिंसक प्रदर्शन को अंजाम दिया।
                 आज यक्ष प्रश्र यह है कि यूपीएससी की परीक्षाओं में अंग्रेजी का वर्चस्व कब तक जारी रहेगा और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को कब तक उपेक्षा का शिकार बनाया जाता रहेगा? कहने की आवश्यकता नहीं है कि जब तक देश में गरीबी और अमीरी की गहरी खाई को पाटकर निर्धन, खासकर ग्रामीण बच्चों को भी अमीर एवं शहरी बच्चों की तर्ज पर अंगे्रजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा सहज सुलभ नहीं हो जाती, तब तक अंग्रेजी को थोपना तथा हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करना एकदम बेमानी है। अब समय आ गया है कि भारतीय भाषाओं का पूर्ण सम्मान हो और लार्ड मैकाले की घोषणा का मर्दन हो। इसके साथ ही, यूपीएससी की सिविल सर्विसेज परीक्षा में आमूल-चूल परिवर्तन करने की बेहद आवश्यकता है। इसके लिए लंबे समय से देशभर से माँग उठाई जाती रही है। कहना न होगा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की सरकार को यूपीएससी परीक्षा प्रणाली में परिवर्तन की माँग पर पूरी गंभीरता व ईमानदारी के साथ विचार करना चाहिए और हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों के मर्म को समझने का भागीरथी प्रयास करना चाहिए।

बुधवार, 23 जुलाई 2014

क्रांतिकारियों के सरताज : शहीद चन्द्रशेखर आजाद

23 जुलाई /107वीं जयन्ति पर विशेष

क्रांतिकारियों के सरताज : शहीद चन्द्रशेखर आजाद
- राजेश कश्यप
                       आज हम जिस गौरव और स्वाभिमान के साथ आजादी का आनंद ले रहे हैं, वह देश के असंख्य जाने-अनजाने महान देशभक्तों के त्याग, बलिदान, शौर्य और शहादतों का प्रतिफल है। काफी देशभक्त तो ऐसे थे, जिन्होंने छोटी सी उम्र में ही देश के लिए अतुलनीय त्याग और बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में में अंकित करवाया। इन्हीं महान देशभक्तों में से एक थे चन्द्रशेखर आजाद। उनका जन्म 23 जुलाई, 1906 को उत्तर प्रदेश के जिला उन्नाव के बदरका नामक गाँव में ईमानदार और स्वाभिमानी प्रवृति के पंडित सीताराम तिवारी के घर श्रीमती जगरानी देवी की कोख से हुआ। चाँद के समान गोल और कांतिवान चेहरे को देखकर ही इस नन्हें बालक का नाम चन्द्रशेखर रखा गया। पिता पंडित सीताराम पहले तो अलीरापुर रियासत में नौकरी करते रहे, लेकिन बाद में भावरा नामक गाँव में बस गए। इसी गाँव में चन्द्रशेखर आजाद का बचपन बीता। आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र में बचपन बीतने के कारण वे तीरन्दाजी व निशानेबाजी में अव्वल हो गए थे।
                       चन्द्रशेखर बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उच्च शिक्षा के लिए वे काशी जाना चाहते थे। लेकिन, इकलौती संतान होने के कारण माता-पिता ने उन्हें काशी जाने से साफ मना कर दिया। धुन के पक्के चन्द्रशेखर ने चुपचाप काशी की राह पकड़ ली और वहां जाकर अपने माता-पिता को कुशलता एवं उसकी चिन्ता न करने की सलाह भरा पत्र लिख दिया। उन दिनों काशी में कुछ धर्मात्मा पुरूषों द्वारा गरीब विद्यार्थियों के ठहरने, खाने-पीने एवं उनकी पढ़ाई का खर्च का बंदोबस्त किया गया था। चन्द्रशेखर को इन धर्मात्मा लोगों का आश्रय मिल गया और उन्होंने संस्कृत भाषा का अध्ययन मन लगाकर करना शुरू कर दिया।
                       सन् 1921 में देश में गांधी जी का राष्ट्रव्यापी असहयोग आन्दोलन चल रहा था तो स्वदेशी वस्तुओं को अपनाने एवं विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार करने का दृढ़ सकल्प देशभर में लिया गया। अंग्रेजी सरकार द्वारा आन्दोलकारियों पर बड़े-बड़े अत्याचार किए जाने लगे। ब्रिटिश सरकार के जुल्मों से त्रस्त जनता में राष्ट्रीयता का रंग चढ़ गया और जन-जन स्वाराज्य की पुकार करने लगा। विद्याार्थियों में भी राष्ट्रीयता की भावना का समावेश हुआ। पन्द्रह वर्षीय चन्द्रशेखर भी राष्ट्रीयता व स्वराज की भावना से अछूते न रह सके। उन्होंने स्कूल की पढ़ाई के दौरान पहली बार राष्ट्रव्यापी आन्दोलनकारी जत्थों में भाग लिया। इसके लिए उन्हें 15 बैंतों की सजा दी गई। हर बैंत पडने पर उसने श्भारत माता की जय्य और के नारे लगाए। उस समय वे मात्र पन्द्रह वर्ष के थे। सन् 1922 में गाँधी जी द्वारा चौरा-चौरी की घटना के बाद एकाएक असहयोग आन्दोलन वापिस लेने पर क्रांतिकारी चन्द्रशेखर वैचारिक तौरपर उग्र हो उठे और उन्होंने क्रांतिकारी राह चुनने का फैसला कर लिया। उसने सन् 1924 में पण्डित राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेशचन्द्र चटर्जी आदि क्रांतिकारियों द्वारा गठित श्हिन्दुस्तान रिपब्लिकल एसोसिएशन्य (हिन्दुस्तान प्रजातांत्रिक संघ) की सदस्यता ले ली।यह सभी क्रांतिकारी भूखे-प्यासे रहकर क्रांतिकारी गतिविधियों में दिनरात लगे रहते।
                       इसी दौरान क्रांतिकारियों ने बनारस के मोहल्ले में 'कल्याण आश्रम' नामक मकान में अपना अड्डा स्थापित कर लिया। उन्होंने अंग्रेजी सरकार को धोखा देने के लिए आश्रम के बाहरी हिस्से में तबला, हारमोनियम, सारंगी आदि वाद्ययंत्र लटका दिए। एक दिन रामकृष्ण खत्री नामक साधू ने बताया कि गाजीपुर में एक महन्त हैं और वे मरणासन्न हैं। उसकी बहुत बड़ी गद्दी है और उसके पास भारी संख्या में धन है। उसे किसी ऐसे योग्य शिष्य की आवश्यकता है, जो उसके पीछे गद्दी को संभाल सके। यदि तुममें से ऐसे शिष्य की भूमिका निभा दे तो तुम्हारी आर्थिक समस्या हल हो सकती है। काफी विचार-विमर्श के बाद इस काम के लिए चन्द्रशेखर आजाद को चुना गया। चन्द्रशेखर न चाहते हुए भी महन्त के शिष्य बनने के लिए गाजीपुर रवाना हो गए। चन्द्रशेखर के ओजस्वी विचारों एवं उसके तेज ने महन्त को प्रभाव में ले लिया और उन्हें अपना शिष्य बना लिया। चन्द्रशेखर मन लगाकर महन्त की सेवा करने और महन्त के स्वर्गवास की बाट जोहने लगे। लेकिन, जल्द ही आजाद किस्म की प्रवृति के चन्द्रशेखर जल्दी ही कुढ़ गए। क्योंकि उनकी सेवा से मरणासन्न महन्त पुनरू हृष्ट-पुष्ट होते चले गए। चन्द्रशेखर ने किसी तरह दो महीने काटे। उसके बाद उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों को पत्र लिखकर यहां से मुक्त करवाने के लिए आग्रह किया। लेकिन, मित्रों ने उनके आग्रह को ठुकरा दिया। चन्द्रशेखर ने मन मसोसकर कुछ समय और महन्त की सेवा की और फिर धन पाने की लालसाओं और संभावनाओं पर पूर्ण विराम लगाकर एक दिन वहां से खिसक लिए।
                       इसके बाद उन्होंने पुन: अंग्रेजी सरकार के खिलाफ सक्रिय भूमिका निभानी शुरू कर दी। उन्होंने एक शीर्ष संगठनकर्ता के रूप में अपनी पहचान बनाई। वे अपने क्रांतिकारी दल की नीतियों एवं उद्देश्यों का प्रचार-प्रसार के लिए पर्चे-पम्फलेट छपवाते और लोगों में बंटवाते। इसके साथ ही उन्होंने अपने कार्यकर्ताओं की मदद से सार्वजनिक स्थानों पर भी अपने पर्चे व पम्पलेट चस्पा कर दिए। इससे अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर श्हिन्दुस्तान रिपब्लिकल एसोसिएशन्य के बैनर तले राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में 9 अगस्त, 1925 को काकोरी के रेलवे स्टेशन पर कलकत्ता मेल के सरकारी खजाने को लूट लिया। यह लूट अंग्रेजी सरकार को सीधे और खुली चुनौती थी। परिणामस्वरूप सरकार उनके पीछे हाथ धोकर पड़ गई। गुप्तचर विभाग क्रांतिकारियों को पकड़े के लिए सक्रिय हो उठा और 25 अगस्त तक लगभग सभी क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया। लेकिन, चन्द्रशेखर आजाद हाथ नहीं आए। गिरफ्तार क्रांतिकारियों पर औपचारिक मुकदमें चले। 17 दिसम्बर, 1927 को राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और दो दिन बाद 19 दिसम्बर को पण्डित रामप्रसाद बिस्मिल, अफशफाक उल्ला खां, रोशन सिंह आदि शीर्ष क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया गया। इसके बाद सन् 1928 में चन्द्रशेखर ने 'एसोसिएश' के मुख्य सेनापति की बागडोर संभाली।
                       चन्द्रशेखर आजाद अपने स्वभाव के अनुसार अंग्रेजी सरकार के खिलाफ क्रांतिकारी गतिविधियों को बखूबी अंजाम देते रहे। वे अंग्रेजी सरकार के लिए बहुत बड़ी चिन्ता और चुनती बन चुके थे। अंग्रेजी सरकार किसी भी कीमत पर चन्द्रशेखर को गिरफ्तार कर लेना चाहती थी। इसके लिए पुलिस ने एड़ी चोटी का जोर लगा दिया। पुलिस के अत्यन्त आक्रमक रूख को देखते हुए और उसका ध्यान बंटाने के लिए चन्द्रशेखर आजाद झांसी के पास बुन्देलखण्ड के जंगलों में आकर रहने लगे और दिनरात निशानेबाजी का अभ्यास करने लगे। जब उनका जी भर गया तो वे पास के टिमरपुरा गाँव में ब्रह्मचारी का वेश बनाकर रहने लगे। गाँव के जमींदार को अपने प्रभाव में लेकर उन्होंने अपने साथियों को भी वहीं बुलवा लिया। भनक लगते ही पुलिस गाँव में आई तो उन्होंने अपने साथियों को तो कहीं और भेज दिया और स्वयं पुलिस को चकमा देते हुए मुम्बई पहुंच गए। वे मुम्बई आकर क्रांतिकारियों के शीर्ष नेता दामोदर वीर सावरकर से मिले और साला हाल कह सुनाया। सावरकर ने अपने ओजस्वी भाषण से चन्द्रशेखर को प्रभावित कर दिया। यहीं पर उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह से हुई। कुछ समय बाद वे कानपुर में क्रांतिकारियों के प्रसिद्ध नेता गणेश शंकर विद्यार्थी के यहां पहुंचे। विद्यार्थी जी ने उन तीनों को सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया। यहां पर भी पुलिस ने उन्हें घेरने की भरसक कोशिश की। इसके चलते चन्द्रशेखर यहां से भेष बदलकर पुलिस को चकमा देते हुए दिल्ली जा पहुंचे।
                       दिल्ली पहुंचने के बाद वे मथुरा रोड़ पर स्थित पुराने किले के खण्डहरों में आयोजित युवा क्रांतिकारियों की सभा में शामिल हुए। अंग्रेज सरकार ने चन्द्रशेखर को गिरफ्तार करने के लिए विशेष तौरपर एक खुंखार व कट्टर पुलिस अधिकारी तसद्दुक हुसैन को नियुक्त कर रखा था। वह चन्द्रशेखर की तलाश में दिनरात मारा-मारा फिरता रहता था। जब उसे इस सभा में चन्द्रशेखर के शामिल होने की भनक लगी तो उसने अपना अभेद्य जाल बिछा दिया। वेश बदलने की कला में सिद्धहस्त हो चुके चन्द्रशेखर यहां भी वेश बदलकर पुलिस को चकमा देते हुए दिल्ली से कानपुर पहुंच गए। यहां पर उन्होंने भगत सिंह व राजगुरू के साथ मिलकर अंग्रेज अधिकारियों के वेश में अंग्रेजों के पिठ्ठू सेठ दलसुख राय से 25000 रूपये ऐंठे और चलते बने।
                       जब 3 फरवरी, 1928 को भारतीय हितों पर कुठाराघात करके इंग्लैण्ड सरकार ने साईमन की अध्यक्षता में एक कमीशन भेजा। साईमन कमीशन यह तय करने के लिए आया था कि भारतवासियों को किस प्रकार का स्वराज्य मिलना चाहिए। इस दल में किसी भी भारतीय के न होने के कारण 'साईमन कमीशन' का लाला लाजपतराय के नेतृत्व में राष्ट्रव्यापी कड़ा विरोध किया गया। अंग्रेजी सरकार ने लाला जी सहित सभी आन्दोलनकारियों पर ताबड़तोड़ पुलिसिया कहर बरपा दिया और पुलिस की लाठियों का शिकार होकर लाला जी देश के लिए शहीद हो गए। बाद में चन्द्रशेखर आजाद, सरदार भगत सिंह व राजगुरू आदि क्रांतिकारियों ने लाला जी की मौत का उत्तरदायी साण्डर्स माना और उन्होंने उसको 17 दिसम्बर, 1928 को मौत के घाट उतारकर लाल जी की मौत का प्रतिशोध पूरा किया।
                       सांडर्स की हत्या के बाद अंग्रेजी सरकार में जबरदस्त खलबली मच गई। कदम-कदम पर पुलिस का अभेद्य जाल बिछा दिया गया। इसके बावजूद चन्द्रशेखर आजाद अपने साथियों के साथ पंजाब से साहब, मेम व कुली का वेश बनाकर आसानी से निकल गए। इसके बाद इन क्रांतिकारियों ने गुंगी बहरी सरकार को जगाने के लिए असैम्बली में बम फेंकने के लिए योजना बनाई और इसके लिए काफी बहस और विचार-विमर्श के बाद सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को चुना गया। 8 अपै्रल, 1929 को असैम्बली में बम धमाके के बाद इन क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया गया और मुकदमें की औपचारिकता पूरी करते हुए 23 मार्च, 1931 को सरदार भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को बम काण्ड के मुख्य अपराधी करार देकर, उन्हें फांसी की सजा दे दी गई।
                       इस दौरान चन्द्रशेखर आजाद ने अपने क्रांतिकारी दल का बखूबी संचालन किया। आर्थिक समस्याओं के हल के लिए भी काफी गंभीर प्रयास किए। पैसे की बचत पर भी खूब जोर दिया। इन्हीं सब प्रयासों के चलते दल की तरफ से सेठ के पास आठ हजार रूपये जमा हो चुके थे। चन्द्रशेखर ने सेठ को आगामी गतिविधियों के लिए यही पैसा लाने कि लिए इलाहाबाद के अलफ्रेड पार्क में बुलाया। इसी बीच चन्द्रशेखर के दल के सदस्य वीरभद्र तिवारी को अंग्रेज सरकार ने चन्द्रशेखर को पकड़वाने के लिए दस हजार रूपये और कई तरह के अन्य प्रलोभन देकर खरीद लिया। जब 27 फरवरी, 1931 को चन्द्रशेखर सेठ से पैसे लेने के लिए निर्धारित स्थान अलफ्रेड पार्क में पहुंचे तो विश्वासघाती वीरभद्र तिवारी की बदौलत पुलिस ने पार्क को चारों तरफ से घेर लिया। उस समय चन्द्रशेखर अपने मित्र सुखदेव राज से आगामी गतिविधियों के बारे में योजना बना रहे थे। चन्द्रशेखर ने सुखदेव राज को पुलिस की गोलियों से बचाकर वहां से भगा दिया। उसने अकेले मोर्चा संभाला और पुलिस का डटकर मुकाबला किया।
                       एक तरफ अकेला शूरवीर चन्द्रशेखर आजाद था और दूसरी तरफ पुलिस कप्तान बाबर के नेतृत्व में 80 अत्याधुनिक हथियारों से लैस पुलिसकर्मी। फिर भी काफी समय तक अकेले चन्द्रशेखर ने पुलिस के छक्के छुड़ाए रखे। अंत में चन्द्रशेखर के कारतूस समाप्त हो गए। सदैव आजाद रहने की प्रवृति के चलते उन्होंने निश्चय किया कि वो पुलिस के हाथ नहीं आएगा और आजाद ही रहेगा। इसके साथ ही उन्होंने बचाकर रखे अपने आखिरी कारतूस को स्वयं ही अपनी कनपटी के पार कर दिया और भारत माँ के लिए कुर्बान होने वाले शहीदों की सूची में स्वर्णिम अक्षरों में अपना नाम अंकित कर दिया।
                       इस तरह से 25 साल का यह बांका नौवान भारत माँ की आजादी की बलिवेदी पर शहीद हो गया। यह देश हमेशा उनका ऋणी रहेगा। भारत माँ के इस वीर सपूत और क्रांतिकारियों के सरताज को कोटि-कोटि नमन है।

गुरुवार, 10 जुलाई 2014

जनसंख्या विस्फोट : चिन्ता एवं चुनौतियाँ

11 जुलाई / विश्व जनसंख्या दिवस विशेष
जनसंख्या विस्फोट : चिन्ता एवं चुनौतियाँ
-राजेश कश्यप

हमारे देश की जनसंख्या गत 2001-2011 के दशक में 17.6 प्रतिशत की दर से 18.1 करोड़ बढक़र 1 अरब 21 करोड़ 1 लाख 93 हजार 422 हो गई है। जनगणना-2011 के अनुसार देश में 62 करोड 37 लाख 24 हजार 248 ़ पुरूष और 58 करोड़ 64 लाख 69 हजार 174 महिलाएं हैं। जनसंख्या के मामले में हमारा देश विश्व में चीन के बाद दूसरे स्थान पर आता है। एक अनुमान के मुताबिक सन् 2030 तक जनसंख्या के मामले में विश्व में भारत का प्रथम स्थान हो जाएगा। भारत में विश्व की कुल जनसंख्या का 17.23 प्रतिशत निवास करती है, जबकि देश का क्षेत्रफल विश्व के कुल क्षेत्र का मात्र 2.45 प्रतिशत ही है। एक नजरिए से विश्व का हर छठा व्यक्ति भारतीय है। कितने बड़े आश्चर्य का विषय है कि हमारे देश की जनसंख्या प्रतिवर्ष आस्टे्रलिया की जनसंख्या के बराबर बढ़ जाती है और विश्व के प्रत्येक 6 व्यक्तियों में से एक भारतीय शामिल हो जाता है। एक अनुमान के मुताबिक यदि जनसंख्या वृद्धि दर इसी क्रम में चलती रही तो वर्ष 2030 में भारत सर्वाधिक जनसंख्या वाला देश होने के मामले में चीन को पछाडक़र पहले स्थान पर आ जाएगा। जनसंख्या के इस भंयकर विस्फोट के कारण देश की उन्नति एवं प्रगति पर बड़े घातक प्रभाव पड़ रहे हैं।

विकराल होती जनसंख्या के कारण इन बुनियादी आवश्यकताओं का अभाव निरन्तर बढ़ता चला जा रहा है। विकासशील देशों में गिने जाने वाले भारत देश में आज भी 2.2 करोड़ लोग खुले आसमान के नीचे खाना खाने को मजबूर हैं। यूनिसेफ की रिपोर्ट के मुताबिक भारत में करीब 60 करोड़ लोग खुले में शौच करते हैं। यह आंकड़ा संख्या और फीसदी दोनों ही मामलों में विश्व में सर्वाधिक है। नंगे बदन फुटपाथों पर भूखे सोने वाले लोगों की संख्या में भी तीव्र गति से इजाफा होता चला जा रहा है। मंहगाई के कारण आम आदमी का जीना ही दुर्भर हो गया है। आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2004 से वर्ष 2013 तक खाने-पीने की वस्तुओं के दामों में 157 फीसदी की बढ़ौतरी हुई है।
स्वास्थ्य और कुपोषण की समस्याएं एकदम विकट होती चली जा रही हैं। भारत में भूख और कुपोषण से प्रभावित लोगों की संख्या विश्व में सबसे अधिक 23 करोड़ 30 लाख है। भूख और कुपोषण सर्वेक्षण रिपोर्ट (हंगामा-2011) की रिपोर्ट के अनुसार देश के 42 प्रतिशत बच्चे कुपोषण का शिकार हैं और उनका वजन सामान्य से भी कम है। विश्व स्तरीय रिपोर्टों के अनुसार विश्व में कुल 14 करोड़ 60 लाख बच्चे कुपोषण का शिकार हैं, जिनमें 5 करोड़ 70 लाख बच्चे भारत के हैं। ऐसे में विश्व का हर तीसरा कुपोषित बच्चा भारत का है। देश में मातृ-मृत्यु दर के आंकड़े भी बड़े चौंकाने वाले हैं। यूनिसेफ  के अनुसार लगभग एक लाख महिलाएं प्रतिवर्ष प्रसव के दौरान दम तोड़ जाती हैं और आधे से अधिक महिलाएं खून की कमी का शिकार हैं।

जनसंख्या की अपार वृद्धि ने गरीबी, बेकारी, भूखमरी, बेरोजगारी में भारी बढ़ौतरी की है। वर्ष 2004-03 से वर्ष 2011-12 के दौरान रोजगार में वृद्धि दर केवल 0.3 प्रतिशत रही। इससे पहले वर्ष 1999-2000 से वर्ष 2004-05 के दौरान रोजगार वृद्धि दर 2.8 प्रतिशत रही थी। आंकड़ों से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि बेरोजगारी का स्तर कितनी तेजी से बढ़ता चला जा रहा है। देश में गरीबी का दंश असहनीय हो चुका है। हाल ही में प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार समिति के पूर्व अध्यक्ष सी. रंगराजन ने गरीबी का आकलन पेश करते हुए खुलासा किया है कि इस समय देश में दस में से तीन लोग गरीब हैं। इससे पहले भारत सरकार द्वारा नियुक्त अर्जुन सेन गुप्त आयोग ने रिपोर्ट दी थी कि भारत के 77 प्रतिशत लोग (लगभग 83 करोड़ 70 लाख लोग) 20 रूपये से भी कम रोजाना की आय पर किसी तरह गुजारा करते हैं। इनमें से 20 करोड़ से अधिक लोग तो केवल और केवल 12 रूपये रोज से ही अपना गुजारा चलाने को विवश हैं। शहरी भारत के लगभग चार फीसदी हिस्से पर मलिन बस्तियां बनी हुई हैं। आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2009 में देश के 400 छोटे-बड़े शहरों में 30 करोड़ लोगों में से 6 करोड़ से अधिक लोग 52000 मलिन बस्तियों में रहने को विवश थे।
देश के न्यायालयों में न्याय पाने वालों की कतार दिनोंदिन बढ़ती ही चली जा रही है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 30 नवम्बर, 2012 तक सुप्रीम कोर्ट में कुल 65703 मामले लंबित थे और 31 दिसम्बर, 2011 तक कुल 6445 ऐसे मामले थे, जिनमें लोग न्याय पाने के लिए पाँच साल से अधिक समय से इंतजार कर रहे थे। 30 सितम्बर, 2012 तक देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में बलात्कार से जूड़ 23792 और उच्चतम न्यायालय में 325 मामले लंबित थे। 31 मार्च 2013 तक भ्रष्टाचार निवारण कानून के तहत देश की विभिन्न अदालतों में 6816 मामले लंबित थे। वर्ष 2011 की शुरूआत में सीबीआई अदालतों में 9928 और विशेष अदालतों में 10010 मामले लंबित थे। वर्ष 2011 तक देश की विभिन्न अदालतों में विचाराधीन दहेज हत्या से जुड़े कुल 29669 मामले लंबित थे।
जनसंख्या के बढ़ते ग्राफ के साथ ही कृषि क्षेत्र पर दबाव बढऩा स्वभाविक ही है। एक तरफ  खाद्यान्न की मांग बढ़ी है और दूसरी तरफ कृषि भूमि में भारी कमी आई है। अहमदाबाद स्थित स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (एसएसी) की रिपोर्ट के अनुसार भारत की उपजाऊ भूमि का 25 फीसदी हिस्सा रेगिस्थानी भूमि में तब्दील हो चुका है और 32 फीसदी भूमि बंजर हो चुकी है।  इस समय देश में अभी 18.3 करोड़ हेक्टेयर भूमि ही कृषि योग्य है, जिसमें से कई कारणों के चलते मात्र 14.1 करोड़ हेक्टेयर में ही कृषि हो पा रही है। एक शोध रिपोर्ट में चिंता जाहिर की गई है कि जब देश की आबादी डेढ़ अरब के आसपास होगी, तब हम 1.69 करोड़ टन खाद्यान्न की कमी से जूझ रहे होंगे।

प्राकृतिक आपदाओं में निरन्तर बढ़ौतरी होती चली जा रही है। सूर्य की पराबैंगनी किरणों से बचाने वाली सबसे महत्वपूर्ण ओजोन परत निरन्तर क्षीण होती चली जा रही है। पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ता चला जा रहा है। ईंधन की आपूर्ति के लिए वनों की तेजी से कटाई हो रही है और प्रतिवर्ष एक प्रतिशत वन भूमि मरूभूमि में तब्दील होती चली जा रही है। इसके साथ ही पर्यावरण प्रदूषण की समस्या विकट से विकटतम होती चली जा रही है। पर्यावरणविदों के अनुसार स्वस्थ पर्यावरण के लिए कम से कम 33 प्रतिशत भूमि पर वन होने चाहिएं, जबकि हमारे यहां मात्र 11 प्रतिशत भूमि पर ही वन मौजूद हैं।
सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि देश में जल स्तर निरन्तर घटता चला जा रहा है। पानी की बढ़ती मांग और अत्यधिक जल दोहन के कारण देश में पानी की मात्रा बेहद सीमित होती चली जा रही है, जिसके कारण पीने के पानी की समस्या भी अत्यन्त विकराल स्वरूप लेती चली जा रही है। वर्ष 2010 की विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार भारत में जल स्तर निरन्तर घटता चला जा रहा है। सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि देश का एक तिहाई से अधिक हिस्सा डार्क जोन में चला गया है। देश के कुल 5723 ब्लॉकों में से 839 ब्लॉक भूगर्भ जल के अत्यधिक दोहन के कारण एकदम डार्क जो में चले गये हैं और 225 ब्लॉक क्रिटिकल एवं 550 ब्लॉक सेमी. क्रिटिकल जोन में शामिल हो गये हैं।
हालांकि पहले से कहीं अधिक साक्षरता देशभर में बढ़ी है। लेकिन, इसके बावजूद एक बड़ी आबादी आज भी निरक्षर है और बहुत बड़ी चुनौती का विषय है। गाँवों में साक्षरता की स्थिति अत्यन्त चिंतनीय है। गाँवों में 29.3 प्रतिशत पुरूष और आधे से अधिक 53.9 प्रतिशत महिलाएं निरक्षता का जीवन जी रहे हैं। जबकि शहरों में भी 13.7 प्रतिशत पुरूष और 27.1 प्रतिशत महिलाएं अनपढ़ हैं। राष्ट्रीय शैक्षिक संकुल की एडवांस रिपोर्ट-2011 के मुताबिक इस समय 81 लाख बच्चे स्कूल नहीं जा रहे हैं और 5.6 करोड़ बच्चे स्कूल छोड़ चुके हैं।

इन सब विकट समस्याओं का एकमात्र ठोस समाधान विस्फोटक स्थिति में जा पहुंची जनसंख्या पर हर हाल में काबू पाना है। बेलगाम जनसंख्या पर काबू पाने के लिए सबसे कारगर तरीका परिवार नियोजन अपनाना ही है। कितने बड़े आश्चर्य का विषय है कि सरकार परिवार नियोजन कार्यक्रमों एवं योजनाओं पर करोड़ों रूपये खर्च करके संचालन कर रही है। इसके बावजूद कोई सार्थक परिणाम नहीं निकल पा रहे हैं। 11 मई, 2000 को राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का गठन किया गया था, जिसका उद्देश्य बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए समग्र मार्गदर्शन प्रदान करना था। इसके तहत कई तरह के बहुआयामी प्रयास भी किए गए। योजना के व्यापक व बहुक्षेत्रीय समन्वय को सुनिश्चित करने तथा स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण की योजनाओं को लागू करने के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग का मई, 2005 में पुर्नगठन किया गया। लेकिन विडंबनावश हर तरह के प्रयासों के बावजूद विकराल होती जनसंख्या पर तनिक भी अंकुश नहीं लग पा रहा है।