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गुरुवार, 30 अप्रैल 2015

जानिए ‘मजदूर दिवस’ की महत्ता और उसका इतिहास

1 मई/अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस विशेष
मई दिवस : 
May Diwas Collage by Rajesh Kashyap

जानिए ‘मजदूर दिवस’ की महत्ता और उसका इतिहास 
- राजेश कश्यप

                          एक मई अर्थात अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस। यह दिवस विशेषकर मजदूरों के लिए अपनी एकता प्रदर्शित करने का दिन माना जाता है। मजदूर लोग अपने अधिकारों एवं उनकी रक्षा को लेकर प्रदर्शन करते हैं। अगर आज के परिदृश्य में यदि हम मजदूर दिवस की महत्ता का आकलन करें तो पाएंगे कि इस दिवस की महत्ता पहले से भी कहीं ज्यादा हो गई है। वैश्विक पटल पर एक बार फिर पूंजीवाद का बोलबाला सिर चढ़कर बोल रहा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने सदैव गरीब मजदूरों का शोषण किया है, उनके अधिकारों पर कुठाराघात किया है और उन्हें जिन्दगी के उस पेचीदा मोड़ पर पहुंचाया है, जहां वह या तो आत्महत्या करने के लिए विवश होता है, या फिर उसे अपनी नियति को कोसते हुए भूखा-नंगा रहना पड़ता है।
                           सन् 1750 के आसपास यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई। उसके परिणामस्वरूप मजदूरों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती चली गई। मजदूरों से लगातार 12-12 और 18-18 घण्टों तक काम लिया जाता, न कोई अवकाश की सुविधा और न दुर्घटना का कोई मुआवजा। ऐसे ही अनेक ऐसे मूल कारण रहे, जिन्होंने मजदूरों की सहनशक्ति की सभी हदों को चकनाचूर कर डाला। यूरोप की औद्योगिक क्रांति के अलावा अमेरिका, रूस, आदि विकसित देशों में भी बड़ी-बड़ी क्रांतियां हुईं और उन सबके पीछे मजदूरों का हक मांगने का मूल मकसद रहा। 
                         अमेरिका में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ही मजदूरों ने ‘सूर्योदय से सूर्यास्त’ तक काम करने का विरोध करना शुरू कर दिया था। जब सन् 1806 में फिलाडेल्फिया के मोचियों ने ऐतिहासिक हड़ताल की तो अमेरिका सरकार ने साजिशन हड़तालियों पर मुकदमे चलाए। तब इस तथ्य का खुलासा हुआ कि मजदूरों से 19-20 घण्टे बड़ी बेदर्दी से काम लिया जाता है। उन्नीसवीं सदी के दूसरे व तीसरे दशक में तो मजदूरों में अपने हकों की लड़ाई के लिए खूब जागरूकता आ चुकी थी। इस दौरान एक ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ नामक श्रमिक संगठन का गठन भी हो चुका था। यह संगठन सामान्यतः दुनिया की पहली टेªड युनियन मानी जाती है। इस युनियन के तत्वाधान में मजदूरों ने वर्ष 1827 में एक बड़ी हड़ताल की और काम के घण्टे घटाकर दस रखने की मांग की। इसके बाद इस माँग ने एक बहुत बड़े आन्दोलन का रूप ले लिया, जोकि कई वर्ष तक चला। बाद में, वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को इस मांग पर अपनी मुहर लगाने को विवश होना ही पड़ा। 
                          इस सफलता ने मजदूरों में एक नई ऊर्जा का संचार किया। कई नई युनियनें ‘मोल्डर्स यूनियन’, ‘मेकिनिस्ट्स युनियन’ आदि अस्तित्व में आईं और उनका दायरा बढ़ता चला गया। कुछ दशकों बाद आस्टेªलिया के मजदूरों ने संगठित होकर ‘आठ घण्टे काम’ और ‘आठ घण्टे आराम’ के नारे के साथ संघर्ष शुरू कर दिया। इसी तर्ज पर अमेरिका में भी मजदूरों ने अगस्त, 1866 में स्थापित राष्ट्रीय श्रम संगठन ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के बैनर तले ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन शुरू कर दिया। वर्ष 1868 में इस मांग के ही ठीक अनुरूप एक कानून अमेरिकी कांग्रेस ने पास कर दिया। अपनी मांगों को लेकर कई श्रम संगठनों ‘नाइट्स ऑफ लेबर’, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ आदि ने जमकर हड़तालों का सिलसिला जारी रखा। उन्नीसवीं सदी के आठवें व नौंवे दशक में हड़तालों की बाढ़ सी आ गई थी। 
                          ‘मई दिवस’ मनाने की शुरूआत दूसरे इंटरनेशनल द्वारा सन् 1886 में हेमार्केट घटना के बाद हुई। दरअसल, शिकागों के इलिनोइस (संयुक्त राज्य अमेरिका) में तीन दिवसीय हड़ताल का आयोजन किया गया था। इसमें 80,000 से अधिक आम मजदूरों, कारीगरों, व्यापारियों और अप्रवासी लोगों ने बढ़चढ़कर भाग लिया। हड़ताल के तीसरे दिन पुलिस ने मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी संयंत्र में घुसकर शांतिपूर्वक हड़ताल कर रहे मजदूरों पर फायरिंग कर दी, जिसमें संयंत्र के छह मजदूर मारे गए और सैंकड़ों मजदूर बुरी तरह घायल हो गए। इस घटना के विरोध में अगले दिन 4 मई को हेमार्केट स्क्वायर में एक रैली का आयोजन किया गया। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ी, एक अज्ञात हमलावर ने पुलिस के दल पर बम फेंक दिया। इस विस्फोट में एक सिपाही की मौत हो गई। इसके बाद मजदूरों और पुलिस में सीधा खूनी टकराव हो गया। इस टकराव में सात पुलिसकर्मी और चार मजदूर मारे गए तथा दर्जनों घायल हो गए।
                           इस घटना के बाद कई मजदूर नेताओं पर मुकदमें चलाए गए। अंत में न्यायाधीश श्री गैरी ने 11 नवम्बर, 1887 को कंपकंपाती और लड़खड़ाती आवाज में चार मजदूर नेताओं स्पाइडर, फिशर, एंजेल तथा पारसन्स को मौत और अन्य कई लोगों को लंबी अवधि की कारावास की सजा सुनाई। इस ऐतिहासिक घटना को चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से वर्ष 1888 में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने इसे मजदूरों के बलिदान को स्मरण करने और अपनी एकता को प्रदर्शित करते हुए अपनी आवाज बुलन्द करने के लिए प्रत्येक वर्ष 1 मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इसके साथ ही 14 जुलाई, 1888 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में विश्व के समाजवादी लोग भारी संख्या में एकत्रित हुए और अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी संगठन (दूसरे इंटरनेशनल) की नींव रखी। इस अवसर पर संयुक्त प्रस्ताव पारित करके विश्वभर के मजदूरों के लिए कार्य की अधिकतम अवधि को आठ घंटे तक सीमित करने की माँग की गई और संपूर्ण विश्व में प्रथम मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। 
                          ‘मई दिवस’ पर कई जोशिले नारों ने वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थित दर्ज करवाई। समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी मई दिवस पर विचारोत्तेजक सामग्रियां प्रकाशित हुईं। ‘मई दिवस’ के सन्दर्भ में ‘वर्कर’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र में चार्ल्स ई. रथेनबर्ग ने लिखा, ‘‘’मई-दिवस, वह दिन जो पूंजीपतियों के दिल में डर और मजदूरों के दिलों में आशा पैदा करता है।’ इसी पत्र के एक अन्य ‘मई दिवस विशेषांक’ में यूजीन वी. डेब्स ने लिखा, ‘यह सबसे पहला और एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय दिवस है। यह मजदूर के सरोकार रखता है और क्रांति को समर्पित है।’
                          ‘मई दिवस’ को इंग्लैण्ड में पहली बार वर्ष 1890 में मनाया गया। इसके बाद धीरे-धीरे सभी देशों में प्रथम मई को ‘मजदूर दिवस’ अर्थात ‘मई दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा। वैसे मई दिवस का प्रथम इश्तिहार रूस की जेल में ब्लाडीमीर इलियच उलियानोव लेनिन ने वर्ष 1886 में ही लिख दिया था। भारत में मई दिवस मनाने की शुरूआत वर्ष 1923 से, चीन में वर्ष 1924 से और स्वतंत्र वियतनाम में वर्ष 1975 से हुई। वर्ष 1917 मजदूर संघर्ष का स्वर्णिम दौर रहा। इस वर्ष रूस में पहली बार सशक्त मजदूर शक्ति ने पंूजीपतियों की सत्ता को उखाड़ फेंका और अपने मसीहा लेनिन के नेतृत्व में ‘बोल्शेविक कम्युनिस्ट पार्टी’ की सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना की। विश्व इतिहास की यह महान घटना ‘अक्तूबर क्रांति’ के नाम से जानी जाती है। 
                         वर्ष 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) के प्रथम अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया गया कि सभी औद्योगिक संगठनों में कार्यावधि अधिक-से-अधिक आठ घंटे निर्धारित हो। इसके साथ ही श्रम संबंधी अन्य अनेक शर्तों को भी कलमबद्ध किया गया। विश्व के अधिकतर देशों ने इन शर्तों को स्वीकार करते हुए उन्हें लागू भी कर दिया। आगे चलकर वर्ष 1935 में इसी संगठन ने आठ घंटे की अवधि को घटाकर सात घंटे की अवधि का प्रस्ताव पारित करते हुए यह भी कहा कि एक सप्ताह में किसी भी मजदूर से 40 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव का अनुसरण आज भी विश्व के कई विकसित एवं विकासशील देशों में हो रहा है। 
                          इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से लड़ने एवं अपने अधिकारों को पाने और उनकी सुरक्षा करने के लिए मजदूरों को जागरूक एवं संगठित करने का बहुत बड़ा श्रेय साम्यवाद के जनक कार्ल मार्क्स को जाता है। कार्ल मार्क्स ने समस्त मजदूर-शक्ति को एक होने एवं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सिखाया था। कार्ल मार्क्स ने जो भी सिद्धान्त बनाए, सब पूंजीवादी अर्थव्यस्था का विरोध करने एवं मजदूरों की दशा सुधारने के लिए बनाए थे।
                           कार्ल मार्क्स का पहला उद्देश्य श्रमिकों के शोषण, उनके उत्पीड़न तथा उन पर होने वाले अत्याचारों का कड़ा विरोध करना था। कार्ल मार्क्स का दूसरा मुख्य उद्देश्य श्रमिकों की एकता तथा संगठन का निर्माण करना था। उनका यह उद्देश्य भी बखूबी फलीभूत हुआ और सभी देशों में श्रमिकों एवं किसानों के अपने संगठन निर्मित हुए। ये सब संगठन कार्ल मार्क्स के नारे, ‘‘दुनिया के श्रमिकों एक हो जाओ’’ ने ही बनाए। इस नारे के साथ कार्ल मार्क्स मजदूरों को ललकारते हुए कहते थे कि ‘‘एक होने पर तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी, उलटे, तुम दासता की जंजीरों से मुक्त हो जाओगे’’।
                          कार्ल मार्क्स चाहते थे कि ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो, जिसमें लोगों को आर्थिक समानता का अधिकार हो और जिसमें उन्हें सामाजिक न्याय मिले। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कार्ल मार्क्स समाज व श्रमिक दोनों के लिए अभिशाप मानते थे। वे तो हिंसा का सहारा लेकर पूंजीवाद के विरूद्ध लड़ने का भी समर्थन करते थे। इस संघर्ष के दौरान उनकीं प्रमुख चेतावनी होती थी कि वे पूंजीवाद के विरूद्ध डटकर लड़ें, लेकिन आपस में निजी स्वार्थपूर्ति के लिए कदापि नहीं।                           कार्ल मार्क्स ने मजदूरों को अपनी हालत सुधारने का जो सूत्र ‘संगठित बनो व अधिकारों के लिए संघर्ष करो’ दिया था, वह आज के दौर में भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। लेकिन, बड़ी विडम्बना का विषय है कि यह नारा आज ऐसे कुचक्र में फंसा हुआ है, जिसमें संगठन के नाम पर निजी स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं और अधिकारों के संघर्ष का सौदा किया जाता है। मजदूर लोग अपनी रोजी-रोटी को दांव पर लगाकर एकता का प्रदर्शन करते हैं और हड़ताल करके सड़कों पर उतर आते हैं, लेकिन, संगठनों के नेता निजी स्वार्थपूर्ति के चलते राजनेताओं व पूंजीपतियों के हाथों अपना दीन-ईमान बेच देते हैं। परिणामस्वरूप आम मजदूरों के अधिकारों का सुरक्षा कवच आसानी से छिन्न-भिन्न हो जाता है। वास्तविक हकीकत तो यह है कि आजकल हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि मजदूर वर्ग मालिक (पूंजीपति वर्ग) व सरकार के रहमोकर्म पर निर्भर हो चुका है। बेहतर तो यही होगा कि पूंजीपति लोग व सरकार स्वयं ही मजदूरों के हितों का ख्याल रखें, वरना कार्ल मार्क्स के एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार, ‘‘एक समय ऐसा जरूर आता है, जब मजदूर वर्ग एकाएक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं प्रवृत्ति वालों के लिए विनाशक शक्ति बन जाता है।’’
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

बुधवार, 22 अप्रैल 2015

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सोमवार, 13 अप्रैल 2015

क्यों, कब और कैसे बने दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर?

14 अप्रैल / 125वीं जयन्ति विशेष 
क्यों, कब और कैसे बने दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर?
-राजेश कश्यप

डॉ. भीमराव अम्बेडकर
             जब-जब मानवता पर अमानवता हावी हुई, धर्म पर अधर्म भारी हुआ, अच्छाई पर बुराई छाई और सत्य पर असत्य का बोलबाला हुआ, तब-तब इस धरा पर कोई न कोई अलौकिक शक्ति का किसी न किसी रूप में अवतरण हुआ है। उन्नीसवीं सदी में एक ऐसा समय भी आया, जिसमें उपर्युक्त बुराईयों का भारी समावेश हुआ। उन्नीसवीं सदी में देश में छूत-अछूत, जाति-पाति, धर्म-मजहब, ऊँच-नीच आदि कुरीतियों का स्थापित साम्राज्य चरम सीमा पर जा पहुंचा। देश में मनुवादी व्यवस्था के बीच समाज को ब्राहा्रण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में विभाजित कर दिया गया। शूद्रों में निम्न व गरीब जातियों को शामिल करके उन्हें अछूत की संज्ञा दी गई और उन्हें नारकीय जीवन जीने को विवश कर दिया गया। उन्हें छुना भी भारी पाप समझा गया। अछूतों को तालाबों, कुंओं, मंदिरों, शैक्षणिक संस्थाओं आदि सभी जगहों पर जाने से एकदम वंचित कर दिया गया। इन अमानवीय कृत्यों की उल्लंघना करने वाले को कौड़ों, लातों और घूसों से पीटा जाता, तरह-तरह की भयंकर यातनाएं दी जातीं। निम्न जाति के लोगों से बेगार करवाई जातीं, मैला ढुलवाया जाता, गन्दगी उठवाई जाती, मल-मूल साफ करवाया जाता, झूठे बर्तन मंजवाए जाते और उन्हें दूर से ही नाक पर कपड़ा रखकर अपनी जूठन खाने के लिए दी जाती व बांस की लंबी नलिकाओं से पानी पिलाया जाता। खांसने व थूकने के लिए उनके मुंह पर मिट्टी की छोटी कुल्हड़ियां बांधने के लिए विवश किया जाता। जिस स्थान पर कथित अछूत बैठते उसे बाद में पानी से कई बार धुलवाया जाता। 
             ऐसी कुटिल व मानवता को शर्मसार कर देने वाली परिस्थितियों के बीच यदि कोई बच्चा जन्म ले और इन सबका दृढ़ता के साथ सामना करते हुए सभी परिस्थितियों का अपने दम पर मुंह मोड़ दे, तो क्या वह बच्चा एक साधारण बच्चा कहलाएगा? कदापि नहीं। वह असाधारण बच्चा अलौकिक शक्ति का महापुंज और महामानव कहलाएगा। ऐसा ही एक महामानव और अलौकिक शक्ति के महापुंज के रूप में डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर ने इस धरा पर जन्म लिया। उनका जन्म 14 अपै्रल, 1891 को मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट महू छावनी में एक महार जाति के परिवार में हुआ। उनका पैतृक गाँव रत्नागिरी जिले की मंडणगढ़ तहसील के अंतर्गत आम्ब्रावेडे था। उनके पिता का नाम रामजी राव व दादा का नाम मालोजी सकपाल था। वे अपने पिता की चौदह संतानों, 11 लड़कियों व 3 लड़कों में चौदहवीं संतान थे। उस समय पूर्व के 13 बच्चों में से केवल चार बच्चे बलराम, आनंदराव, मंजुला व तुलासा ही जीवित थे। शेष बच्चों की अकाल मृत्यु हो चुकी थी। समाज जाति-पाति, ऊँच-नीच और छूत-अछूत जैसी भयंकर कुरीतियों के चक्रव्युह में फंसा हुआ था, जिसके चलते महार जाति को अछूत समझा जाता था और उनसे घृणा की जाती थी। ऐसे विकट और बुरे दौर में डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म हुआ था। उनके बचपन का नाम भीमराव एकपाल उर्फ ‘भीमा’ था। उनके पिता जी फौज में नौकरी करते थे और कबीर पंथ के बहुत बड़े अनुयायी थे। उनकीं माता श्रीमती भीमाबाई भी धार्मिक प्रवृति की घरेलू महिला थीं। 20 नवम्बर, 1896 में मात्र 5 वर्ष की आयु में ही माता का साया उनके सिर से उठ गया था। इसके बाद उनकी बुआ मीरा ने चारों बहन-भाईयों की देखभाल की।
             भीमराव ने प्रारंभिक शिक्षा सतारा की प्राथमिक पाठशाला में हासिल की। 7 नवम्बर, 1900 को उनका दाखिला सतारा के गवर्नमेंट वर्नाक्यूलर हाईस्कूल में करवाया गया। वे बचपन से ही अत्यन्त कुशाग्र बुद्धि के थे और हर परीक्षा में अव्वल स्थान पर रहते थे। इसके बावजूद सामाजिक कुरीतियों के चलते उन्हें अछूत के नाम पर प्रतिदिन अनेक असहनीय अपमानों और यातनाओं का सामना करना पड़ता था। लेकिन, बालक भीमराव एकदम विपरीत सामाजिक परिस्थितियों के बीच अनवरत रूप से अपने शिक्षा-अर्जन के कार्य में लगे रहे और बहुत अच्छे अंकों के साथ उन्होंने हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की। वर्ष 1907 में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा उत्तीर्ण की। उनकीं अनूठी प्रतिभा से प्रभावित होकर एक चहेते व सामाजिक संकीर्णताओं से मुक्त ब्राहा्रण शिक्षक ने उन्हें ‘अम्बेडकर’ उपनाम दिया, जोकि आगे चलकर उनके मूल नाम का अभिन्न हिस्सा बन गया। वर्ष 1908 में वे मात्र 17 वर्ष की आयु में रमाबाई के साथ विवाह-सूत्र में बंध गए। विवाह बंधन में बंधने के बावजूद उन्होंने मुंबई के एलफिंस्टन कॉलेज से एफ.ए. अर्थात इंटरमीडिएट और बड़ौदा के महाराजा द्वारा प्रदत्त 25 रूपये प्रतिमाह छात्रवृति के बलबूते वर्ष 1912 में बी.ए. की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों के साथ उत्तीर्ण की। 12 दिसम्बर, 1912 को उन्हंे यशवतं नामक पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई।
             2 फरवरी, 1913 को पिता के देहान्त के बाद भीमराव अम्बेडकर को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी और पारिवारिक दायित्व के निर्वहन के लिए नौकरी करने को विवश होना पड़ा। लेकिन, थोड़े समय बाद ही उन्हें बड़ौदा के महाराजा की कृपा पुनः प्राप्त हुई और उन्हें उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए विदेश जाने का सौभाग्य मिला। वे एस.एस. अकोना जहाज से अमेरिका के लिए रवाना हुए और 23 जुलाई, 1913 को न्यूयार्क जा पहुंचे। वहां जाकर उन्हांेने कोलम्बिया विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। उन्होंने वर्ष 1915 में एम.ए. की डिग्री और 10 जून, 1916 को अर्थशास्त्र में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से पी.एच.डी. पूरी की। हालांकि नियमानुसार उनका शोध धनाभाव के चलते आठ वर्ष बाद प्रकाशित होने के कारण पी.एच.डी डिग्री वर्ष 1924 में ही हासिल हो सकी। वे इसी वर्ष वास्तव में डॉ. भीमराव अम्बेडकर बने। 
             उन्होंने वर्ष 1916 में प्रख्यात ‘लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिकल एण्ड पॉलीटिकल साइंस’ में दाखिला ले लिया। अचानक छात्रवृति रोक दिए जाने से उन्हें पढ़ाई के बीच में ही 21 अगस्त, 1917 को स्वदेश लौटने को विवश होना पड़ा। भारत लौटकर उन्होंने पूर्व में हस्ताक्षरित अनुबंध के अनुसार महाराजा बड़ौदा की सेना में सैन्य सचिव के पद पर नौकरी करनी पड़ी। इस अत्यन्त सम्मानजनक पद पर रहने के बावजूद उन्हें अछूत के रूप में निरन्तर अपमान और तिरस्कार के दंश को झेलना पड़ा। अंततः उन्होंने इस पद को छोड़ दिया। इसके बाद वे एक निजी ट्यूटर व लेखाकार के रूप में काम करने लगे। बाद में उन्हें परिचित मित्रों के सहयोग से नवम्बर, 1918 में बंबई के सिडनेम कॉलेज ऑफ कॉमर्स एण्ड इकोनोमिक्स में राजनीतिक अर्थव्यवस्था के प्रोफेसर के रूप में नौकरी मिल गई। 
इसी दौरान वर्ष 1920 में ही सौभाग्यवश उन्हें महाराजा कोल्हापुर द्वारा प्रदत्त छात्रवृति हासिल हो गई और उन्होंने 5 जुलाई, 1920 को प्रोफेसर के पद को छोड़ दिया। वे पुनः ‘लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिकल एण्ड पॉलीटिकल साइंस’ में अपनी अधूरी पढ़ाई पूर्ण करने मे लिए लंदन जा पहुंचे और सितम्बर, 1920 से अपनी पढ़ाई शुरू कर दी। जनवरी, 1923 में उन्हें डी.एस.सी. अर्थात डॉक्टर ऑफ साईंस की उपाधि प्रदान की गई। लंदन के ‘गेज इन’ से उन्होंने बैरिस्टर की परीक्षा उत्तीर्ण की। वे 3 अपै्रल, 1923 में डॉक्टर ऑफ साईंस, पी.एच.डी. और बार एट लॉ जैसी कई बड़ी उपाधियांे के साथ स्वदेश लौटे। स्वदेश लौटकर उन्होंने मुंबई में वकालत के साथ-साथ अछूतों पर होने वाले अत्याचारों के विरूद्ध आवाज उठाना शुरू कर दिया। अपने आन्दोलन को अचूक, कारगर व व्यापक बनाने के लिए उन्होंने ‘मूक नायक’ पत्रिका भी प्रकाशित करनी शुरू की। उनके प्रयासों ने रंग लाना शुरू किया और वर्ष 1927 में उनके नेतृत्व में दस हजार से अधिक लोगों ने एक विशाल जुलूस निकाला और ऊँची जाति के लिए आरक्षित ‘चोबेदार तालाब’ के पीने के पानी के लिए सत्याग्रह किया और सफलता हासिल की। इसी वर्ष उन्होंने ‘बहिष्कृत भारत’ नामक एक पाक्षिक मराठी पत्रिका का प्रकाशन करके अछूतों में स्वाभिमान और जागरूकता का अद्भूत संचार किया। देखते ही देखते वे दलितों व अछूतों के बड़े पैरवीकार के रूप में देखे जाने लगे। इसी के परिणास्वरूप डॉ. भीमराव अम्बेडकर को वर्ष 1927 में मुंबई विधान परिषद का सदस्य मनोनीत किया गया। इसी तरह उन्हें पुनः 1932 में भी परिषद का मनोनीत सदस्य चुना गया। विधान परिषद में उन्होंने दलित समाज की वास्तविक स्थिति को न केवल उजागर किया, बल्कि शोषित समाज की आवाज को बखूबी बुलन्द किया।
             वर्ष 1929 में उन्होंने ‘समता समाज संघ’ की स्थापना की। अगले वर्ष 1930 में उन्होंने नासिक के कालाराम मंन्दिर में अछूतों के प्रवेश की पाबन्दी को हटाने के लिए जबरदस्त सत्याग्रह किया। इसके साथ ही दिसम्बर, 1930 में ‘जनता’ नाम से तीसरा पत्र निकालना शुरू किया। वर्ष 1931 में उन्होंने राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के विरोध के बावजूद दूसरी गोलमेज कांफ्रेंस में दलितों के लिए अलग निर्वाचन का अधिकार प्राप्त करके देशभर में हलचल मचा दी। गांधी जी के अनशन के बाद डॉ. अम्बेडकर व कांग्रेस के बीच 24 सितम्बर, 1932 को ‘पूना पैक्ट’ के नाम एक समझौता हुआ और डॉ. अम्बेडकर को भारी मन से कई तरह के दबावों के चलते दलितों के लिए अलग निर्वाचन की माँग वापस लेना पड़ा। लेकिन, इसके जवाब में उन्होंने वर्ष 1936 में ‘इंडिपेंडंेट लेबर पार्टी’ की स्थापना करके अपने घोषणा पत्र में अछूतों के उत्थान का स्पष्ट एजेण्डा घोषित कर दिया। अब शोषित समाज डॉ. अम्बेडकर को अपने मसीहा के रूप में देखने लग गया था। इसी के परिणास्वरूप वर्ष 1937 के आम चुनावों में डॉ. अम्बेडकर को भारी बहुमत से अभूतपूर्व विजय हासिल हुई और कुल 17 सुरक्षित सीटों में से 15 सीटें नवनिर्मित ‘इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी’ के खाते में दर्ज हुईं। वे 12 वर्ष तक बम्बई में विधायक रहे। इसी दौरान वे बम्बई कौंसिल से ‘साईमन कमीशन’ के सदस्य चुने गए। उन्होंने लंदन में हुई तीन गोलमेज कांफ्रेंसों में भारत के दलितों का शानदार प्रतिनिधित्व करते हुए दलित समाज को कई बड़ी उपलब्धियां दिलवाईं।
             दलितों के मसीहा डॉ. भीमराव अम्बेडकर का भारतीय राजनीति में कद बहुत ऊँचाई पर जा पहुंचा। वर्ष 1942 में उन्हें गर्वनर जनरल की काऊंसिल का सदस्य चुन लिया गया। उन्होंने शोषित समाज को शिक्षित करने के उद्देश्य से 20 जुलाई, 1946 को ‘पीपुल्स एजुकेशन सोसाइटी’ नाम की शिक्षण संस्था की स्थापना की। इसी सोसायटी के के तत्वाधान में सबसे पहले बम्बई में सिद्धार्थ कालेज शुरू किया गया और बाद में उसका विस्तार करते हुए कई कॉलेजों का समूह बनाया गया। ये कॉलेज समूह आज भी शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणीय भूमिका निभा रहे हैं। 15 अगस्त, 1947 को देश को लंबे समय के बाद स्वतंत्रता नसीब हुई। 29 अगस्त, 1947 को डॉ. भीमराव अम्बेडकर को संविधान निर्मात्री सभा की प्रारूप समिति का अध्यक्ष पद पर सुशोभित किया गया। अपनी टीस के चलते ही उन्होंने संविधान में यह प्रावधान रखा कि, ‘किसी भी प्रकार की अस्पृश्यता या छुआछूत के कारण समाज में असामान्य उत्पन्न करना दंडनीय अपराध होगा’। इसके साथ ही उन्होंने अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लोगों के लिए सिविल सेवाओं, स्कूलों और कॉलेजों की नौकरियों में आरक्षण प्रणाली लागू करवाने में भी सफलता हासिल की। उन्होंने महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्थिति सुदृढ़ करने पर पर बराबर बल दिया। 26 नवम्बर, 1949 को संविधान सभा ने संविधान को अपना लिया और इसे 26 जनवरी, 1950 को लागू कर दिया गया। इस संविधान के पूरा होने पर डॉ. अम्बेडकर के आत्मिक उद्गार थे कि, ‘‘मैं महसूस करता हूँ कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है, पर साथ ही इतना मजबूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था, बल्कि इसका उपयोग करने वाला अधम था।’’
             वर्ष 1948 में उनका दूसरा विवाह सविता अम्बेउकर के साथ हुआ। आगे चलकर वर्ष 1949 में उन्हें स्वतंत्र भारत का प्रथम विधिमंत्री बनाया गया। वर्ष 1950 में डॉ. अम्बेडकर श्रीलंका के ‘बौद्ध सम्मेलन’ में भाग लेने के लिए गए और बौद्ध धर्म के सिद्धान्तों से अत्यन्त प्रभावित होकर स्वदेश लौटे। उन्होंने वैचारिक मतभेदों के चलते वर्ष 1951 में विधिमंत्री के पद से त्यागपत्र दे दिया। डॉ. अम्बेडकर वर्ष 1952 के आम चुनावों में हार गए। इसके बावजूद वे वर्ष 1952 से वर्ष 1956 तक राज्यसभा के सदस्य रहे। अत्यन्त कठिन व अडिग संघषों के उपरांत, उनके मन में यह मलाल विष का रूप धारण कर चुका था कि वे शोषित समाज के उत्थान व समृद्धि के लिए जो अपेक्षाएं भारत सरकार से रखते थे, उनपर भारत सरकार खरा नहीं उतरीं और अपनी इच्छाओं को पूरा करने में वे पूरी तरह कामयाब नहीं हो सके। इससे बढ़कर, देश मंे कानून बनने के बावजूद दलितों व शोषितों की दयनीय स्थिति देखकर उन्हें बेहद कुंठा व वेदना का गहरा अहसास हुआ। देश व समाज में दलितों, शोषितों व अछूतों को अन्य जातियों के समकक्ष लाने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने बहुत लंबा गहन अध्ययन और मंथन किया। इसके उपरांत उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि एकमात्र बौद्ध धर्म ही ऐसा है, जो दलितों को न केवल सबके बराबर ला सकता है, बल्कि अछूत के अभिशाप से भी हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति दिला सकता है।
             इसी निष्कर्ष को अमलीजामा पहनाने के लिए उन्होंने 1955 में ‘भारतीय बौद्ध महासभा’ की स्थापना की और 14 अक्तूबर, 1956 में अपने 5 लाख अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म की दीक्षा लेकर एक नए युग का सूत्रपात कर दिया। उनका मानना था कि अछूतों के उत्थान और पूर्ण सम्मान के लिए यही एकमात्र अच्छा रास्ता है। इस अवसर पर उन्होंने 22 प्रतिज्ञाएं भी निर्धारित कीं, ये प्रतिज्ञाएं हिन्दू समाज की कुरीतियों व आडम्बरों पर गहरा आघात करने वाली हैं।
             डॉ. भीमराव अम्बेडकर बहुत बड़े युगदृष्टा थे। उन्होंने अछूतों व दलितों की मुक्ति के अभिशाप की थाह और उससे मुक्ति की राह स्पष्ट रूप से देख ली थी। इसीलिए, उन्होंने आजीवन गरीबों, मजदूरों, अछूतों, दलितों, पिछड़ों और समाज के शोषित वर्गों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आदि हर क्षेत्र में बराबर का स्थान दिलाने के लिए अनूठे संघर्ष किए और अनंत कष्ट झेले। उन्होंने समाजसेवक, शिक्षक, कानूनविद्, पदाधिकारी, पत्रकार, राजनेता, संविधान निर्माता, विचारक, दार्शनिक, वक्ता आदि अनेक रूपों में देश व समाज की अत्यन्त उत्कृष्ट व अनुकरणीय सेवा की व अपनी अनूठी छाप छोड़ी। 
             उन्होंने अपने जीवन में दर्जनों महत्वपूर्ण और क्रांतिकारी पुस्तकों और ग्रन्थों की रचनाएं कीं। इन पुस्तकों में ‘कास्ट्स इन इण्डिया’, ‘स्मॉल होल्डिंग्स इन इण्डिया एण्ड देयर रेमिडीज’, ‘दि प्राबल्म ऑफ दि रूपी’, ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’, ‘मिस्टर गांधी एण्ड दि एमेन्सीपेशन ऑफ दि अनटचेबिल्स’, ‘रानाडे, गांधी एण्ड जिन्ना’, ‘थॉट्स आन पाकिस्तान’, ‘वाह्ट कांग्रेस एण्ड गांधी हैव इन टु दि अनटचेबिल्स’, ‘हू वेयर दि शूद्राज’, ‘स्टेट्स एण्ड माइनारिटीज’, ‘हिस्ट्री ऑफ इण्डियन करेन्सी एण्ड बैंकिंग’, ‘दि अनटचेबिल्स’, ‘महाराष्ट्र एज ए लिंग्विस्टिक स्टेट’, ‘थाट्स ऑन लिंग्विस्टिक स्टेट्स’ आदि शामिल थीं। कई महत्पूर्ण पुस्तकें उनके जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो पाईं। इन पुस्तकों में ‘लेबर एण्ड पार्लियामेन्ट्री डेमोक्रेसी’, ‘कम्युनल डेडलॉक एण्ड ए वे टु साल्व इट’, ‘बुद्ध एण्ड दि फ्ूचर ऑफ पार्लियामेंट डेमोक्रेसी’, ‘एसेशिंयल कन्डीशंस प्रीसीडेंट फॉर दि सक्सेसफुल वर्किंग ऑफ डेमोक्रेसी’, ‘लिंग्विस्टिक स्टेट्स: नीड्स फॉर चेक्स एण्ड बैलेन्सज’, ‘माई पर्सनल फिलॉसफी’, ‘बुद्धिज्म एण्ड कम्युनिज्म’, ‘दि बुद्ध एण्ड हिज धम्म’ आदि शामिल हैं।
             युगदृष्टा व दलितों के मसीहा ने देश में व्याप्त छूत-अछूत, जाति-पाति, ऊँच-नीच आदि कुरीतियों के उन्मुलन के लिए अंतिम सांस तक अनूठा और अनुकरणीय संघर्ष किया। उन्होंने 6 दिसम्बर, 1956 को अपने अनंत संघर्ष की बागडोर नए युग के कर्णधारों के हाथों सौंप, इस संसार को सदा-सदा के लिए अलविदा कहकर चले गए। निश्चित तौरपर उनका यह संघर्ष इक्कीशवी सदी में भी जारी है और यह तब तक जारी रहेगा, जब तक उनके सभी सपने वास्वतविक अर्थों में साकार नहीं हो जाते। महामानव डॉ. भीमराव अम्बेडकर को देश व समाज के लिए उनके आजीवन समग्र योगदान को नमन करते हुए भारत सरकार ने वर्ष 1990 में देश के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत-रत्न’ से अलंकृत किया। देश व समाज इस अनमोल रत्न की अनमोल देनों के लिए सदैव कृतज्ञ रहेगा। इस महान आत्मा को कोटि-कोटि नमन है।

डा. अम्बेडकर की अमरवाणी

14  अप्रैल /125वीं जयंति विशेष
डा. अम्बेडकर की अमरवाणी
-राजेश कश्यप 
डा. भीम राव अम्बेडकर

           जब-जब मानवता पर अमानवता हावी हुई, धर्म पर अधर्म भारी हुआ, अच्छाई पर बुराई छाई और सत्य पर असत्य का बोलबाला हुआ, तब-तब इस धरा पर किसी न किसी अलौकिक शक्ति का किसी न किसी रूप में अवतरण हुआ है। उन्नीसवीं सदी में एक ऐसा समय भी आया, जिसमें उपर्युक्त बुराईयों का भारी समावेश हुआ। देश में छूत-अछूत, जाति-पाति, धर्म-मजहब, ऊँच-नीच आदि कुरीतियों का स्थापित साम्राज्य चरम सीमा पर जा पहुंचा। देश में मनुवादी व्यवस्था के बीच समाज को ब्राहा्रण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के रूप में विभाजित कर दिया गया। शूद्रों में निम्न व गरीब जातियों को शामिल करके उन्हें अछूत की संज्ञा दी गई और उन्हें नारकीय जीवन जीने को विवश कर दिया गया। उन्हें छुना भी भारी पाप समझा गया। अछूतों को तालाबों, कुंओं, मंदिरों, शैक्षणिक संस्थाओं आदि सभी जगहों पर जाने से एकदम वंचित कर दिया गया। इन अमानवीय कृत्यों की उल्लंघना करने वाले को कौड़ों, लातों और घूसों से पीटा जाता, तरह-तरह की भयंकर यातनाएं दी जातीं। निम्न जाति के लोगों से बेगार करवाई जातीं, मैला ढुलवाया जाता, गन्दगी उठवाई जाती, मल-मूल साफ करवाया जाता, झूठे बर्तन मंजवाए जाते और उन्हें दूर से ही नाक पर कपड़ा रखकर अपनी जूठन खाने के लिए दी जाती व बांस की लंबी नलिकाओं से पानी पिलाया जाता। खांसने व थूकने के लिए उनके मुंह पर मिट्टी की छोटी कुल्हड़ियां बांधने के लिए विवश किया जाता। जिस स्थान पर कथित अछूत बैठते उसे बाद में पानी से कई बार धुलवाया जाता। 
           ऐसी कुटिल व मानवता को शर्मसार कर देने वाली परिस्थितियों के बीच यदि कोई बच्चा जन्म ले और इन सबका दृढ़ता के साथ सामना करते हुए सभी परिस्थितियों का अपने दम पर मुंह मोड़ दे, तो क्या वह बच्चा एक साधारण बच्चा कहलाएगा? कदापि नहीं। वह असाधारण बच्चा अलौकिक शक्ति का महापुंज और महामानव कहलाएगा। ऐसा ही एक महामानव और अलौकिक शक्ति के महापुंज के रूप में डॉ. भीमराव रामजी अम्बेडकर ने इस धरा पर जन्म लिया। उनका जन्म 14 अपै्रल, 1891 को मध्य प्रदेश में इंदौर के निकट महू छावनी में एक महार जाति के परिवार में हुआ। उनके बचपन का नाम ‘भामा’ था। भीमा का पूरा जीवन अत्यन्त जटिल एवं चुनौतीपूर्ण रहा। छोटी उम्र में ही उनके सिर से माता-पिता का साया उठ गया था। उन्होंने अपनी अनूठी मेधा व प्रतिभा के बल पर ही छात्रवृतियां हासिल कीं और विदेशों में उच्च से उच्चतर शिक्षा हासिल की। वे अपनी कर्मठता, बौद्धिकता और कार्य-कौशलता के दम पर देश के बड़े-बड़े पदों पर सुशोभित हुए। देश के प्रथम विधिमंत्री बने और राष्ट्र की आत्मा ‘संविधान’ की निर्मात्री सभा के अध्यक्ष बने।
           डा. अम्बेडकर ने देश में फैले जाति-पाति, ऊंच-नीच, धर्म-मजहब, छूत-अछूत आदि अमानवीय भेदभाव के चक्रव्युह के बीच अपना पूरा जीवन बिताया और कदम-कदम पर असहनीय अपमान, घृणा व तिरस्कार के गहरे जख्म खाए। हर किसी ने उन्हें झुकाने, दबाने, रोकने, पीड़ने, मिटाने और हराने के हरसंभव प्रयास किए, लेकिन वे अस्थिर, अडिग और अविचल बने रहे। उन्होंने कभी हार नहीं मानी। उन्होंने ‘समुद्र में रहकर मगर से बैर’ रखने का अभूतपूर्व कारनामा कर दिखाया। डा. अम्बेडकर बहुत बड़े राष्ट्रभक्त, दूरदर्शी, समाज सुधारक, दर्शनशास्त्री, बुद्धिजीवी, राजनीतिज्ञ, कानूनविद्, समाजशास्त्री और प्रकाण्ड विद्वान थे। डॉ. अम्बेडकर जी के दर्शनशास्त्र की गहराई को आंकना असंभव-सा है। उनके एक-एक शब्द, कथन, चिंतन, विचार, संकेत, नियम, सिद्धान्त, उद्देश्य और लक्ष्य में अनंत गहराई समाहित है। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि यदि डा. अम्बेडकर के जीवन को समझने के लिए पूरा जीवन लगा दिया जाए, तो भी कम होगा।
           डा. भीमराव अम्बेडकर के दर्शनशास्त्र रूपी अथाह सागर की हर बूंद इस दुनिया के लिए अमृत के समान है। उन्होंने समाज में व्याप्त हर बुराई, गन्दगी और अमानवीयता के कीचड़ को उसी के बीच रहकर साफ करने का असंभव काम करके दिखाया और एक पवित्र, स्वच्छ व आदर्श देश व समाज के निर्माण का मार्ग प्रशस्त किया। डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने स्पष्ट तौरपर बताया कि ‘‘अस्पृश्यता गुलामी से भी बदतर स्थिति है। यह एक सामाजिक बुराई है और भारत पर एक बदनुमा दाग है।’’ उनका मानना था कि ‘‘गैर-बराबरी की व्यवस्था, लोकतांत्रिक देश पर काला धब्बा है।’’ डा. अम्बेडकर मानवता के बहुत बड़े पक्षधर थे। उनके अनुसार ‘‘किसी का शोषण करना, मानवता के खिलाफ है। समस्त मानव एक समान हैं। मैं ऐसी व्यवस्था भारत में कर दूँगा, जिसमें मानव का  मानव शोषण न करे।’’
           डा. अम्बेडकर का साफ मानना था कि ‘‘देश की सभी समस्याओं की जड़ जातिवाद है। जातिवाद ने ही आम आदमी की भावना को कुचला है। वर्ण और जातियां राष्ट्र विरोधी हैं। जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना सच्ची आजादी नहीं आयेगी।’’ वे राष्ट्रीय एकता और सामाजिक सद्भावना के प्रबल पक्षधर थे। वे हमेशा आह्वान करते थे कि, ‘‘बहुसंख्यक लोगों को सभी वर्गों के साथ एकता के सूत्र में बांधने का प्रयास करना चाहिए। हमें प्रेम और भाईचारा बनाकर देश की एकता को मजबूत करना चाहिए। जब तक लोगों के दिलों में राष्ट्रीयता की भावना नहीं आएगी, तबतक देश में राष्ट्रवाद स्थापित नहीं हो सकता।’’
           डा. अम्बेडकर ने देश में व्याप्त छूत-अछूत जैसी भयंकर बुराईयों पर कड़े प्रहार करते हुए कहा था कि ‘‘छुआछूत की भावना हिन्दू वर्ग के लिए उचित नहीं है। छुआछूत का भेदभाव हिन्दु धर्म पर एक कलंक है। मैं अछूतों के हितों से एक कदम भी पीछे नहीं हट सकता। आपसी अच्छे संबंधों के बिना समाज का विकास नहीं हो सकता।’’ उन्होंने एक प्रगतिशील देश व समाज के निर्माण पर हमेशा जोर दिया और इसके लिए दो टूक कहा कि ‘‘प्रगतिशील समाज तभी बनेगा, जब आर्थिक शोषण नहीं होगा। सम्मानजनक जीवन जीना मनुष्य का जन्मसिद्ध अधिकार है।’’
           डा. अम्बेडकर साहब महिलाओं के उत्थान और सशक्तिकरण पर बेहद जोर देते थे। उन्होंने महिलाओं के संबंध में कहा था कि ‘‘किसी भी समाज की प्रगति का अनुमान, समाज में महिलाओं की प्रगति से लगाना चाहिए। महिलाओं के बिना हमारा आन्दोलन सफल नहीं हो सकता।’’ वे देश व समाज की प्रगति व उत्थान का सबसे सशक्त माध्यम महिलाओं का ही मानते थे। वे एक स्वर्णि समाज की स्थापना के लिए महिलाओं से आह्वान करते थे कि ‘‘महिलाओं यदि तुम्हारे बच्चे शराब पीते हैं, यदि तुम्हारे पति भ्रष्ट हैं तो उन्हें खाना मत दो।’’
           डा. अम्बेडकर ने जीवन भर हिन्दू धर्म को बुराईयों से मुक्त करवाने के लिए अभियान चलाया और हिन्दू धर्म की बुराईयों पर तीखे कटाक्ष किए। उन्होंने लोगों को अंधविश्वासों, रूढ़ियों और कुरीतियों से मुक्ति पाने का बराबर आह्वान किया। वे कहते थे कि ‘‘अवतारवाद, स्वर्ग, नरक, भाग्य, भगवान, पुनर्जन्म सब झूठ हैं। आप इस बात को त्याग दें कि दुःख पूर्व निर्धारित हैं और आपकी गरीबी पिछले जन्मों के कर्मांे का फल है।’’ वे धर्म की बजाय कर्म को प्रधान मानते थे। वे कहते थे कि ‘‘धर्म का आधार नैतिकता और मनुष्य है। धर्म मनुष्य के लिए है, न कि मनुष्य धर्म के लिए। धर्म को व्यक्तिगत जीवन तक सीमित रखना ही श्रेयस्कर होता है। यदि धर्म असहाय समाज की प्रगति में बाधक है तो उसे त्याग दो। जो धर्म एक व्यक्ति को निरक्षर व दूसरे को साक्षर बनाना चाहता है, वह धर्म सही नहीं है।’’ डा. अम्बेडकर भाग्य और ईश्वर में कभी विश्वास नहीं करते थे। उनका मानना था कि ‘‘भाग्यवाद व्यक्ति को बुजदिल, कायर, दब्बू व कमजोर बनाता है।’’ उनका तो यहां तक कहना था कि ‘‘यदि ईश्वर असहाय समाज की प्रगति में बाधक है तो उसे त्याग दो।’’
           डा. अम्बेडकर समाज को सर्वांगीण विकास का आधार शिक्षा माना। उनका स्पष्ट कहना था कि ‘‘ शिक्षा ही मनुष्य के सर्वांगीण विकास का मार्ग है।’’ वे आत्म-सम्मान पर खूब जोर देते थे। वे कहते थे कि ‘‘ अज्ञानता के गड्डे में गिरे रहकर आत्म-सम्मान की भावना नहीं जाग सकती।’’ उन्होंने सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के सूत्र देते हुए कहा कि ‘‘मेरा ध्येय समाज को सामाजिक समता की प्राप्ति और प्रगतिशीलता है। समता, स्वतंत्रता तथा बंधुत्व के आधार पर अधिष्ठित सामाजिक जीवन ही लोकतंत्र है। गुलामों को गुलामी का एहसास करवा दो, वह स्वयं गुलामी की जंजीरों को तोड़ देगा।’’
           डा. अम्बेडकर भारतीय संविधान को देश की आत्मा मानते थे। संविधान के पूरा होने पर डॉ. अम्बेडकर के आत्मिक उद्गार थे कि, ‘‘मैं महसूस करता हूँ कि संविधान, साध्य (काम करने लायक) है, यह लचीला है, पर साथ ही इतना मजबूत भी है कि देश को शांति और युद्ध दोनों के समय जोड़कर रख सके। वास्तव में, मैं कह सकता हूँ कि अगर कभी कुछ गलत हुआ तो इसका कारण यह नहीं होगा कि हमारा संविधान खराब था, बल्कि इसका उपयोग करने वाला अधम था।’’ इसके साथ ही उन्होंने देश को आगाह करते हुए कहा था कि ‘‘भारत के संविधान के उद्देश्य को तोड़ना राष्ट्रद्रोह के समान होगा। सावधान कानून सिर्फ कागजों पर ही न रह जाए।’’
           डा. अम्बेडकर ने दलितों और शोषितों को अमोघ मंत्र देते हुए कहा कि ‘‘जहां सहनशीलता समाप्त हो जाती है, वहां क्रांति का उदय होता है। जुल्म करने वाले से जुल्म सहने वाले अधिक गुनहगार होता है। न्याय और अधिकार मांगने से नहीं मिलते, उन्हें लड़कर लिया जाता है। बलि बकरे की दी जाती है, शेर की नहीं। अतः आप शेर बनें। तुम ऐसा प्रयत्न करो कि तुम्हारे बच्चे तुमसे बेहतर जीवन जी सकें। हमारी मुसीबतें तभी दूर होंगी, जब हमारे हाथों में राजनीतिक शक्ति होगी। हम एकजुट होकर ही अपनी बिगड़ी स्थिति बना सकते हैं।''
           डा. अम्बेडकर बहुत बड़े समाजशास्त्री थे। वे हर किसी से अपने समाज के उत्थान के लिए समर्पित होकर काम करने का सन्देश देते हुए कहते थे कि ‘‘ जिस समाज में हमारा जन्म हुआ है, उसका उद्वार करना हमारा कर्त्तव्य है। चरित्र ही स्वस्थ समाज की बुनियाद होता है।’’ उन्होंने समाजोत्थान के लिए अपना पूरा जीवन कुर्बान कर दिया। समाज के उत्थान के लिए उन्होंने जो कारवां शुरू किया, वह आज भी बदस्तूर जारी है। उन्होंने अपनी अंतिम अभिलाषा इस सारगर्भित सन्देश के माध्यम से प्रकट करते हुए कहा था कि ‘‘ जिस कारवां को मैं यहां तक लाया हूँ, उसे आगे नहीं तो पीछे भी न जानें दें। मेरे उठाए हुये कार्यों को पूरा करना ही मेरा सबसे बड़ा सम्मान है।’’ इस अमर ज्योति को हमारा कोटि-कोटि नमन है।

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2015

एक बार इस मासूम अबला की मर्मस्पर्शी पुकार जरूर सुनिए...

       एक बार इस  मासूम अबला की मर्मस्पर्शी पुकार जरूर सुनिए और अपना यथेष्ट योगदान दीजिये। आपकी बड़ी कृपा होगी। 
निवेदक : राजेश कश्यप 

अब देखें और समझें : 'लव के फंडे'

बॉलीवुड / आने वाली फिल्म
अब देखें और समझें :  'लव के फंडे'
-राजेश कश्यप
LOVE KE FUNDAY 
           प्यार के आधुनिक रूप की सच्ची दास्तां दिखाने आ रही है फिल्म 'लव के फंडे'। किसी से छिपा हुआ नहीं है कि बदलते दौर के साथ समाज में खासकर मैट्रो सिटी कहलाने वाले बड़े-बड़े शहरों में 'लव' के प्रति दृष्टिकोण में बदलाव आया है। इसी के चलते आधुनिक दौर में 'प्यार' के असल मायने ही बदल गए हैं।  ये मायने किस रूप में बदले हैं और 'आधुनिक प्यार' का असली रूप क्या है, यही फिल्म 'लव के फंडे' की मूल कथावस्तु है। फिल्म जबरदस्त लव, रोमांच और ग्लैमर से भरपूर है। फिल्म के निर्देशक इन्द्रवेश योगी हैं। वे इस फिल्म के जरिये बतौर निर्देशक पारी शुरू करने जा रहे हैं। इन्द्रवेश योगी हरियाणा प्रदेश से हैं। वे टीवी एवं फिल्मों की दुनिया में लंबे समय से जुड़े हुए हैं और अनेक नामचीन कलाकारों एवं निर्माता-निर्देशकों के साथ काम कर चुके हैं। 

       निर्देशक इन्द्रवेश योगी ने विशेष बातचीत के दौरान फिल्म की कथावस्तु पर प्रकाश डालते हुए बताया कि 'लव के फंडे' एक यूनिक रोमांटिक कॉमेडी फिल्म है। यह आधुनिक दौर के प्रेम की असलियत को सबके सामने लेकर लायेगी। योगी ने बताया कि इस फिल्म की कहानी का तानाबाना इस तरह बुना गया है कि मध्यांतर तक दर्शक यही तय नहीं कर पायेंगे कि असलियत में कौन किससे और किस रूप में 'लव' कर रहा है। दर्शकों को गुदगुदाने और पेट में बल डालने के लिए हरियाणवी तडक़ा लगाया गया है। कश्मीर की बर्फीली हसीन वादियों से लेकर गोवा की अनेक मस्त एवं मनोहारी लोकेशनों पर फिल्माए गए हसीनाओं के जलवे पानी में आग लगाने वाले होंगे। फिल्म में पाँच मधुर गाने युवाओं की जुबां पर छा जाने वाले हैं।
       फिल्म 'लव के फंडे' में उदयीमान एवं ऊर्जावान प्रतिभाओं को भरपूर मौका दिया गया है, जिसमें शालीन भानोट, पूजा बनर्जी, समीक्षा भटनागर, रिशांक तिवारी, राहुल सूरी, हर्षवद्र्धन जोशी, रीतिका गुलाटी, निशा गुलाटी, प्रियंका खत्री, आशुतोष कौशिक आदि शामिल हैं। शालीन भानोट 'सात फेरे', 'सजदा तेरे प्यार का', 'कुलवधु', 'दो हंसों का जोड़ा' जैसे बेहतरीन धारावाहिकों के माध्यम से छोटे पर्दे पर धूम मचा चुके हैं और इस फिल्म के जरिए बॉलीवुड में पदार्पण कर रहे हैं। बिग बॉस-2 के विजेता और 'जिला गाजियाबाद' आदि फिल्मों में अपनी प्रतिभा का लौहा मनवाने वाले आशुतोष कौशिक एक हरियाणवी किरदार निभा रहे हैं और उन्हें एक सरप्राइज पैकेज के रूप में पेश किया गया है। फिल्म में बेहद मधुर एवं कर्णप्रिय फैज अनवर के गीत और प्रकाश प्रभाकर का संगीत है। इन्द्रवेश योगी ने फिल्म के निर्देशन के साथ-साथ इसकी कहानी और संवाद भी लिखे हैं। फिल्म के निर्माता फैज अनवर हैं। एफआरवी बैनर की यह फिल्म बड़े पर्दे पर धूम मचाने के लिए तैयार है। 

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2015

मित्रो ! नोट कीजिये मेरा (राजेश कश्यप ) वाट्स एप्प नम्बर :

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आपका तहेदिल से आभार।

बुधवार, 1 अप्रैल 2015

नारी अस्मिता के प्रति अमर्यादित जनप्रतिनिधि!

विडम्बना

नारी अस्मिता के प्रति अमर्यादित जनप्रतिनिधि!
-राजेश कश्यप

           इक्कीसवीं सदी में भी नारी अपनी अस्मिता एवं सम्मान को बचाने के लिए संघर्षरत है। अनेक रूढिय़ों, वर्जनाओं और भारी भेदभावों की मजबूत सामाजिक दीवारों को तोडक़र निरन्तर आगे बढ़ रही नारी सडक़ से लेकर संसद तक पहुँच चुकी है और नित नए आयाम हासिल कर रही है। लेकिन, दुनिया की आधी आबादी के प्रति आज भी पुरूष की संकीर्ण मानसिकता जस की तस बनी हुई है। सबसे बड़ी विडम्बना का विषय तो यह है कि देश के जनप्रतिनिधि भी इससे अछूते नहीं हैं। आए दिन कोई न कोई नेता नारी के प्रति अनैतिक, अव्यवहारिक और अमर्यादित टिप्पणी कर बैठता है, जिससे नारी अस्मिता को गहरी चोट पहुँचती है। ताजा मामला गोवा का सुर्खियों में आया है। अपनी मांगों को लेकर कई दिनों से हड़ताल पर बैठी नर्सों ने आरोप लगाया है कि जब वे अपनी मांगों को लेकर गोवा के मुख्यमंत्री लक्ष्मीकांत पारसेकर से मिलीं तो मुख्यमंत्री ने उन्हें कहा कि लड़कियों को धूप में बैठकर भूख हड़ताल नहीं करनी चाहिये, इससे उनका रंग काला होगा और अच्छा दूल्हा मिलने में दिक्कत आयेगी। किसी प्रदेश के मुखिया द्वारा इस तरह की टिप्पणी करना, क्या इंगित करता है, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है।
          इससे पहले हाल ही में समाप्त हुये राज्यसभा सत्र के आदर्श सांसद का सम्मान हासिल कर चुके जेडीयू नेता शरद यादव ने दक्षिण भारत की महिलाओं के सांवलेपन पर बेतुकी एवं अमर्यादित टिप्पणी करते हुए कहा कि 'साउथ की महिला जितनी ज्यादा खूबसूरत होती है, जितना ज्यादा उसका बॉडी...जो पूरा देखने में...यानी इतना हमारे यहां नहीं होती हैं...वह नृत्य जानती हैं...।' जब यादव ने यह टिप्पणी की तो राज्यसभा में बैठे अधिकतर जनप्रतिनिधि खिलखिलाकर नारी जाति की अस्मिता का चीरहरण करने में सहयोगी बन रहे थे। जब मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति इरानी ने ऐतराज जताया तो शरद यादव दो कदम और आगे बढ़ गये और खेद जताने के बजाय उलटा तंज कस दिया कि 'मैं जानता हूँ कि आप क्या हैं!' इससे पहले भी शरद यादव इसी तरह नारी अस्मिता को अपमानित कर चुके हैं। जब संसद में पहली बार महिला आरक्षण विधेयक रखा गया था, तब उन्होंने कहा था कि 'क्या आप परकटी महिलाओं को संसद में लाना चाहते हैं?' वर्ष 2010 में महिला आरक्षण के सन्दर्भ में नारी अस्मिता से खिलवाड़ करने के मामले में सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव भी पीछे नहीं रहे थे। उन्होंने कहा था कि महिला आरक्षण बिल पास होने से संसद ऐसी महिलाओं से भर जायेगी, जिन्हें देखकर लोग सीटियां बजायेंगे। उन्होंने एक अन्य बयान में यहां तक कह डाला था कि बड़े घर की लड़कियां और महिलाएं ही ऊपर तक जा सकती हैं, क्योंकि उनमें आकर्षण होता है। इसलिए महिला आरक्षण बिल से ग्रामीण महिलाओं को कोई फायदा नहीं होगा। 
          देश के राष्ट्रीय समाचार चैनल एबीपी न्यूज की लाईव बहस के दौरान कांग्रेस सांसद संजय निरूपम भी नारी अस्मिता को ताक पर रख चुके हैं। वर्ष 2011 में हुए गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनावों के परिणामों के बाद जारी बहस के दौरान संजय निरूपम ने आपा खोते हुए भाजपा नेत्री श्रीमती स्मृति ईरानी पर अशोभनीय टिप्पणी करते हुए कह डाला कि 'कल तक टेलीविजन पर ठुमके लगा रहीं थीं, आज राजनीतिज्ञ बनकर घूम रही हैं आप! आपके संस्कार बहुत अच्छे हैं! शटअप, क्या करेक्टर है आपका?' समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने तो लोकसभा चुनावों के दौरान बलात्कारों के लिए महिलाओं को ही दोषी ठहराते हुए कह डाला था कि आज किसी के घर के जानवर को भी कोई जबरदस्ती नहीं ले जा सकता है। इसके साथ ही मुलायम ने यहां तक कह दिया कि लडक़े हैं, गलती हो जाती है। दिल्ली की निर्भया-काण्ड ने हर किसी को हिलाकर रख दिया था। राष्ट्रव्यापाी आक्रोश एवं आन्दोलन के दौरान राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी के बेटे और कांगे्रस सांसद अभिजीत मुखर्जी ने विवादित बयान देते हुए कहा कि हर मुद्दे पर कैंडल मार्च करने का फैशन चल पड़ा है। लड़कियां दिन में सज धज कर कैंडल निकालती हैं और रात में डिस्को जाती हैं। इसी तरह मुंबई आतंकी हमले के बाद भाजपा नेता मुख्तार अब्बास नकवी ने गैर-मर्यादित बयान देते हुए कहा कि कुछ महिलाएं लिपस्टिक पाउडर लगाकर क्या विरोध करेंगीं? 
          हरियाणा में कांगे्रस के प्रवक्ता धर्मवीर ने बलात्कार के लिए लड़कियों को ही दोषी ठहराते हुए कह दिया था कि नब्बे फीसदी मामलों में बलात्कार नहीं, बल्कि लड़कियां सहमति से संबंध बनाती हैं। तृणमूल कांगे्रस विधायक चिरंजीत भी बलात्कार मामले में विवादास्पद बयान देते हुए कह चुके हैं कि वारदात के लिए कुछ हद तक लड़कियां भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि हर रोज उनकीं स्कर्ट छोटी हो रही हैं। बलात्कार के मामले में बेहद शर्मनाक बयान देते हुए भाजपा के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय भी यहां तक कह चुके हैं कि औरतें अपनी सीमाएं लांघती हैं तो उन्हें दंड मिलना तय है। एक ही शब्द है, मर्यादा। मर्यादा का उल्लंघन होता है तो सीता हरण हो जाता है। लक्ष्मण रेखा हर व्यक्ति की खींची गई है। उस लक्ष्मण रेखा को कोई भी पार करेगा, तो रावण सामने बैठा है, वह सीता का हरण करके ले ही जायेगा। सीपीएम के वरिष्ठ नेता ने तो मर्यादा की सारी सीमाएं लांघते हुए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से यहां तक पूछ लिया था कि वह रेप के लिए कितना चार्ज लेंगी? 
          वर्ष, 2013 में कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने एक आम सभा में नारी अस्मिता को ताक पर रखकर स्वयं को राजनीति का पुराना जौहरी बताते हुए कह डाला कि मुझे पता है कि कौन फजी है और कौन सही है। इस क्षेत्र की सांसद मिनाक्षी नटराजन सौ टंच माल है। भाजपा सांसद राजपाल सैनी कह चुके हैं कि गृहणियों और स्कूली छात्राओं को मोबाइल फोन रखने की क्या जरूरत है? इससे बाहरी लोगों से उनकी जान-पहचान बढ़ती है और यौन अपराधों को बढ़ावा मिलता है। इसी तर्ज पर पिछले दिनों पांडिचेरी की सरकार ने स्कूलों में पढऩे वाली लड़कियों को आदेश दे डाला कि वो ओवरकोट पहनें। इतना हीं नहीं, सरकार ने लड़कियों को अलग स्कूल बसों में जाने के लिए भी कह दिया। छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री ननकी राम कंवर भी अजीब तरह का बयान देते हुए कह चुके हैं कि उन महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, जिनका भाग्य खराब चल रहा है।  
          सबसे बड़ी विडम्बना का विषय तो यह है कि केवल पुरूष जनप्रतिनिधि ही नहीं एक महिला जनप्रतिनिधि भी नारी अस्मिता को ताक पर रखकर बयानबाजी करती रहती हैं। कभी कभी एक जिम्मेदार महिला ही नारी अस्मिता को ताक पर रखकर गैर-जिम्मेदाराना टिप्पणी कर बैठती हैं। पिछले दिनों छत्तीसगढ़ महिला आयोग की अध्यक्ष विभा राव ने कहा कि महिलाओं के खिलाफ हो रहे क्राइम के लिए वह खुद भी जिम्मेदार हैं। महिलाएं वेस्टर्न कल्चर को अपनाकर पुरूषों को गलत संदेश दे रही हैं। उनके कपड़े, उनके व्यवहार से पुरूषों को गलत सिग्नल मिलते हैं। वर्ष 2008 में युवा टीवी पत्रकार सौम्या विश्वनाथन की हत्या के बाद दिल्ली की तत्कालीन मुख्यमंत्री श्रीमती शीला दीक्षित ने बेहद चौंकाने वाला बयान दिया कि इतना अडवेंचरस नहीं होना चाहिए। वह एक ऐसे शहर में सुबह के तीन बजे अकेली गाड़ी चलाकर जा रही थी, जहां रात के अंधेेरे में महिलाओं का निकलना सुरक्षित नहीं माना जाता। मुझे लगता है कि थोड़ा ऐतिहात बरतना चाहिए। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ने तो यह कहकर कि लडक़े-लड़कियों को माता-पिता द्वारा दी गई आजादी से ही बलात्कार जैसी घटनाएं हो रही हैं, दो कदम आगे बढ़ गईं। इसी तरह राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी की महिला नेत्री आशा मिर्जे भी अमर्यादित बयान देते हुए कह चुकी हैं कि महिलाएं ही एक हद तक बलात्कार के लिए जिम्मेदार हैं और उनके कपड़े एवं व्यवहार भी इसमें एक भूमिका अदा करते हैं। 
          जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दला का यह सारगर्भित बयान पूरे देश व समाज के लिए सीख देने वाला रहा कि ''नेताओं द्वारा दिए गए बयान महिलाओं की आजादी और उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन करते हैं। महिलाओं का पहनावा, उनके साथ होने वाले यौन शौषण या बलात्कार के लिए कतई जिम्मेदार नहीं हैं। यदि ऐसा होता तो छोटी बच्चियों और सूट-सलवार या साड़ी पहनने वाली महिलाओं के साथ बलात्कार क्यों होता? इस तरह के बयान देने से पहले नेता यह क्यों भूल जाते हैं कि वे हमारे समाज के जनप्रतिनिधि हैं और जब प्रतिनिधि ही महिलाओं पर इस तरह की टिप्पणी करकेंगे तो बाकी समाज से उम्मीद ही क्या की जा सकती है?" नि:सन्देह, महिला अस्मिता की अक्षुण्ता बनाए रखने के लिए जन-प्रतिनिधियों को अमर्यादित एवं गैर-जिम्मेदाराना बयान नहीं देने चाहिए और साथ ही अपनी महिलाओं के प्रति अपनी मानसिक संकीर्णताओं को बदल लेना चाहिए। उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि महिलाओं को अलग-अलग संज्ञा देना, उनकी शारीरिक संरचना, रंग-रूप और पहनावे पर किसी भी तरह की अमर्यादित टिप्पणी करना, नारी अस्मिता के साथ सरेआम खिलवाड़ है और यौन अपराधों से किसी भी मायने में कम नहीं है।