28 जून/शहीदी दिवस विशेष
1857 की क्रांति का महान क्रांतिवीर : उदमी राम
-राजेश कश्यप
सन् 1857 की क्रांति के दौर में असंख्य ऐसे असीम महान क्रांतिकारी, देशभक्त, बलिदानी, एवं शहीद रहे, जो इतिहास के पन्नों में या तो दर्ज ही नहीं हो जाए, या फिर सिर्फ आंशिक तौरपर ही उनका उल्लेख हो पाया। ऐसा ही एक उदाहरण सोनीपत जिले के गाँव लिबासपुर के महान क्रांतिकारी उदमी राम हैं। सोनीपत से सात किलोमीटर दूर बहालगढ़ चौंक के नजदीक इस लिबासपुर गाँव के नंबरदार उदमी राम ही थे और दूर-दूर तक उनकी देशपरस्ती के किस्से मशहूर थे। उदमी राम ने आजादी पाने के लिए हर मजदूर, किसान, दुकानदार आदि को अपनी ताकत बना लिया था। उन्होंने लिबासपुर व आसपास के कुंडली, भालगढ़, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर, सराय आदि गाँवों के जन-जन में आजादी की बलिवेदी पर कुर्बान होने का जज्बा कूट-कूट कर भर दिया था।
उन दिनों उदमी राम के नेतृत्व में २२ नौजवान वीरों का एक दल तो चौबीस घण्टे अंग्रेजी अफसरों को ठिकाने लगाने के मि’ान में लगा रहता था। सबसे बड़ी बात यह थी कि वे भूमिगत होकर अपने पारंपरिक हथियारों मसलन, लाठी, जेली, गंडासी, कुल्हाड़ी, फरसों आदि से दिल्ली से होते हुए यहां से गुजरने वाले अंग्रेज अफसरों पर धावा बोलते और उन्हें मौत के आगोश में सुलाकर गहरी खाईयों व झाड़-झंखाड़ों के हवाले कर देते थे।
एक दिन एक अंग्रेज अधिकारी लिबासपुर के नजदीक जी. टी. रोड़ से निकल रहा था। जब इसकी सूचना उदमी राम को लगी तो उन्होंने अपनी टोली के साथ उस अंग्रेज अफसर को भी घात लगाकर मार डालने की योजना बना डाली। उदमी राम ने साथियों सहित अफसर पर घात लगाकर हमला बोल दिया और उस अंगे्रज अफसर को मौत के घाट उतार दिया।
विडम्बनावश उस अंग्रेज अफसर के साथ उनकी पत्नी भी थीं। भारतीय संस्कृति के वीर स्तम्भ उदमी राम ने एक महिला पर हाथ उठाना पाप समझा और काफी सोच-विचार कर उस अंग्रेज महिला को लिबासपुर के पड़ौसी गाँव भालगढ़ में एक बाई (ब्राहा्रणी) के घर बड़ी मर्यादा के साथ सुरक्षित पहुंचा दिया और बाई को उसकी पूरी देखरेख करने की जिम्मेदारी सौंप दी। उदमी राम के कहेनुसार अंग्रेज महिला को अच्छा खाना, कपड़े और अन्य सामान दिया जाने लगा।
कुछ दिन बाद इस घटना का समाचार आसपास के गाँवों में फैल गया। कौतुहूलवश लोग उस अंग्रेज महिला को देखने भालगढ़ में बाई के घर आने लगे और उदमी राम व उसके साथियों के संस्कारों की दाद देने लगे। राठधाना गाँव का निवासी सीताराम अंग्रेजों का मुखबिर और दलाल था। उदमी राम एवं उनके साथियों से संबंधित नया समाचार सुनकर वह भी घटना का पता लगाने के लिए पहले लिबासपुर गाँव में पहुंचा और फिर सारी जानकारी एकत्रित करके बहालगढ़ में बाई के घर जा पहुंचा।
अंग्रेजों के मुखबिर सीता राम बंधक अंग्रेज महिला से मिला और लिबासपुर से एकत्रित की गई सारी जानकारी उस महिला को दे दी। उसने अंगे्रज महिला को उदमी राम एवं उनके सभी साथियों गुलाब सिंह, जसराम, रामजस, जसिया, रतिया आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दी। केवल इतना ही नहीं, सीताराम ने उस अंग्रेज महिला को बताया कि लिबासपुर गाँव ही अंग्रेजी सरकार के विद्रोह का केन्द्र है और उसी के निवासी ही नंबरदार उदमी राम के नेतृत्व में अंग्रेज अफसरों की घात लगाकर हत्या कर रहे हैं। सीता राम ने अंग्रेज महिला को यह कहकर और भी डरा दिया कि बहुत जल्द वे क्रांतिकारी उसे भी मौत के घाट उतारने वाले हैं। यह सुनकर अंग्रेज महिला भय के मारे कांप उठी। उसने चालाकी से काम लेते हुए सीता राम को बहुत बड़ा लालच दिया और कहा कि यदि वह उसकी मदद करे और उसे पानीपत के अंग्रेजी कैम्प तक किसी तरह पहुंचा दे तो उसे मुंह मांगा ईनाम दिलवाएगी।
सीता राम तो था ही इसी लालच की इंतजार में। उसने झट अंग्रेज महिला की मदद करना स्वीकार कर लिया। लेकिन उसके मार्ग में बाई बाधा बन गई। बाई ने सीता राम को भला-बुरा कहा और अंग्रेज महिला को किसी भी कीमत पर घर से बाहर न जाने देने की जिद्द पर अड़ गई। अब सीता राम ने बाई को यह कहकर बुरी तरह धमकाया और डराया कि यदि वह उसकी बात नहीं मानेगी तो अंग्रेजी सरकार को वह इस घटना की खबर दे देगा और फिर उसके पूरे परिवार को कोल्हू के नीचे कुचल दिया जाएगा। बाई डर गई और डरकर गद्दार सीता राम के हाथों की कठपुतली बन गई। अंतत: सीता राम अपने मंसूबे में कामयाब हुआ। वह बाई के साथ रातोंरात लोगों की नजरों से बचते-बचाते हुए उस अंग्रेज महिला को लेकर पानीपत के अंग्रेजी कैम्प में पहुंच गया।
कैम्प में पहुंचकर अंग्रेज महिला ने सीता राम की दी हुई सभी गोपनीय जानकारियां अंग्रेजी कैम्प में दर्ज करवाईं और यह भी कहा कि विद्रोह में सबसे अधिक भागीदारी लिबासपुर गाँव ने की है और उसका नेता उदमीराम है। इसके बाद अंग्रेजों का कहर लिबासपुर एवं उदमीराम पर टूटना ही था। सन् 1857 की क्रांति पर काबू पाने के बाद क्रांतिकारियों एवं विद्रोही गाँवों को भयंकर दण्ड देना शुरू किया। इसी क्रम में अंग्रेजों ने लिबासपुर गाँव को सुबह चार बजे चारों तरह से भारी पुलिस बल के साथ घेर लिया और सख्त नाकेबन्दी कर दी, ताकि एक भी व्यक्ति बचकर जाने न पाए। क्रांतिवीर उदमी राम अपने साथियों सहित अपने पारंपरिक हथियार लाठी, जेली, गंडासी, फरसे आदि के साथ अंग्रेजी सिपाहियों का काफी देर तक मुकाबला किया। अंतत: आधुनिक हथियारों से लैस सिपाहियों के आगे उदमी राम और उसके साथियों को हार का सामना करना पड़ा। कई क्रांतिकारियों को पकड़ लिया गया, काफी क्रांतिकारी मौके पर ही मारे गए और कई भागने में कामयाब हो गये। क्रांतिकारियों के नायक उदमी राम को भी मौके की नजाकत को समझते हुए पास के खेतों में छुपने को विवश होना पड़ा।
इसके बाद अंग्रेज सिपाही गाँव में घुसे और उनके सामने जो भी आया उसी को पकड़ लिया। गाँव में एकाएक आतंक का माहौल बन गया। बच्चे से लेकर बूढ़े तक अंग्रेजों के आतंक से सिहर उठे। सभी गाँव वालों को जबरदस्ती घर से पकड़-पकड़कर चौपाल में एकत्रित कर दिया। इसके बाद हर किसी पर अंग्रेजों का कहर टूट पड़ा। सभी लोगों, महिलाओं, बच्चों और बूढ़ों को जमीन पर उलटा लिटा-लिटाकर कोड़ों से भयंकर पिटाई की गई, लेकिन किसी ने क्रांतिकारियों के खिलाफ मुंह नहीं खोला।
उसी चौपाल में उदमी राम के पिता को भी पकड़कर लाया गया और उसकी बेरहमी से पिटाई की गई और कई तरह से अमानवीय यातना देने के साथ-साथ बुरी तरह से बेइज्जत किया। उनपर अपने लड़के उदमी राम को अंग्रेजी सरकार के सामने आत्म-समर्पण करने के लिए भारी दबाव बनाया। अंतत: वह बुजुर्ग अमानवीय यातनाओं के आगे बेबस हो गया और उसने घर की छत पर खड़े होकर अपने बेटे उदमी राम को आवाज लगाई।
पिता की दर्दभरी आवाज सुनकर उदमी राम पर रहा नहीं गया और उसने अपने खेत की मिट्टी को चूमा और माथे पर तिलक लगाकर उसे आखिरी सलाम किया, क्योंकि क्रान्तिवीर उदमी राम को अंग्रेजी सरकार के समक्ष आत्म-समर्पण करने के अंजाम को भलीभांति पता था। अंजाम की परवाह किए बगैर उदमी राम पूरी निडरता के साथ खेतों से निकलकर गाँव की चौपाल की तरफ चल पड़ा। जैसे ही उसने गाँव में प्रवेश किया, उसका सामना दो सिपाहियों से हो गया और भारत माँ के इस सच्चे लाल ने अपनी जेली से दोनों सिपाहियों को यमलोक पहुंचा दिया। इसके बाद वह खून से सनी जेली के साथ गाँव में पहुंच गया।
उदमीराम के इस भयंकर रौद्र रूप को देखकर चौपाल में मौजूद अंग्रेज सिपाही एकदम हक्के-बक्के रह गये और खौफ के भाव उनके चेहरों पर उतर आए। अंग्रेज सिपाहियों ने साहस बटोरा और एकाएक उदमी राम पर टूट पड़े और उन्हें बन्धक बना लिया।
उदमी राम के बन्धक बनने के बाद अब बाजी पूरी तरह से अंग्रेजों के हाथ में आ गई थी। अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों की शिनाख्त के लिए देशद्रोही एवं गद्दार सीता राम और भालगढ़ की बा्रहा्रणी बाई, जिसके घर अंगे्रज महिला को सुरक्षित रखा गया था को भी चौपाल में बुलवाया गया। गद्दारों ने उस समय जिस-जिस व्यक्ति का नाम लिया, अंग्रेजों ने उन सबको तत्काल गिरफ्तार कर लिया।
इसके बाद अंगे्रजों ने क्रांतिकारियों को जो दिल दहलाने वाली भयंकर सजाएं दीं, उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। क्रान्तिवीर उदमी राम को उनकी पत्नी श्रीमती रत्नी देवी सहित गिरफ्तार करके राई (सोनीपत) के कैनाल रैस्ट हाऊस में ले जाकर उन्हें पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से ठोंक दिया गया। अन्य क्रांतिकारियों को जी.टी. रोड़ पर लेटाकर बुरी तरह से कोड़ों से पीटा गया और उनकी चमड़ी उधेड़ दी गई। इसके बाद सड़क कूटने वाले कोल्हू के पत्थरों के नीचे राई पड़ाव के पास बहालगढ़ चौंक पर सरेआम खून से लथपथ क्रांतिकारियों को बुरी तरह से रौंद दिया गया। इनमें से एक कोल्हू का पत्थर सोनीपत के ताऊ देवीलाल पार्क में आज भी स्मृति के तौरपर रखा हुआ है।
क्रांतिकारियों का कतरा-कतरा कोल्हू के पत्थरों के नीचे मलहम बनकर सड़क पर फैल गया। इस खौफनाक मौत को देखकर आसमान भी थर्रा उठा।
उधर राई के रैस्ट हाऊस में पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से टांगे गए क्रांतिवीर उदमी राम और उसकी पत्नी रत्नी देवी को तिल-तिल करके तड़पाया जा रहा था। उन दोनों को खाने के नाम पर झन्नाटेदार कोड़े और पीने के नाम पर पेशाब दिया जाता था। कुछ दिनों बाद उनकी पत्नी ने पेड़ पर कीलों से लटकते-लटकते ही जान दे दी। इतिहासकारों के अनुसार क्रांतिवीर उदमी राम ने 35 दिन तक जीवन के साथ जंग लड़ी और 35वें दिन भारत माँ का यह लाल इस देश व देशवासियों को हमेशा-हमेशा के लिए आजीवन ऋणी बनाकर चिन-निद्रा में सो गया।
उदमी राम की शहादत के बाद अंगे्रजी सरकार ने उनके पार्थिव शरीर का भी बहुत बुरा हाल किया और कोल्हू के नीचे रौंदकर सड़क पर बहा दिया। क्रांतिवीर उदमी राम की स्मृति में एक स्मृति-स्तम्भ सोनीपत के ही ताऊ देवीलाल पार्क में बनाया गया है।
अंग्रेजों का दिल इतने भयंकर दमन व अत्याचार के बावजूद नहीं भरा। अंग्रेजी सरकार ने अपने मुखबिर सीताराम को पूरा लिबासपुर गाँव मात्र 900 रूपये में निलाम कर दिया। सबसे बड़ी विडम्बना की बात तो यह है कि आजादी के छह दशक बाद भी आज लिबासपुर गाँव की मल्कियत सीताराम के वंशजों के नाम ही है और शहीद उदमीराम एवं उसके क्रांतिकारी शहीदों के वंशज आज भी अंग्रेजी राज की भांति अपनी ही जमीन पर मुजाहरा करके गुजारा कर रहे हैं। लिबासपुर के ग्रामीण अपनी जमीन वापिस पाने के लिए दशकों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है। यदि शहीद उदमी राम की शहादत पर सच्ची श्रद्धांजलि देनी है तो लिबासपुर को शहीद गाँव और शहीदों के वंशजों को शहीद-परिवार का सम्मान एवं उसका लाभ देना ही होगा। इसके साथ ही उनकी अपनी जमीन भी वापिस लौटानी होगी। तभी हम सच्चे अर्थों में शहीदों की शहादत को नमन कर सकते हैं।
आज भी कर रहा है बगावत का भुगतान लिबासपुर गाँव
सन् 1857 की क्रांति में सबसे बड़ी कुर्बानी देने वाला लिबासपुर गाँव और अमर शहीद क्रांतिकारी उदमी राम सहित सभी शहीदों के वंशज, स्वतंत्रता प्राप्ति के छह दशक बाद भी बगावत का भुगतान कर रहे हैं। सबसे बड़ी विडम्बना देखिए, सरकारी कागजों में पुरस्कार के तौरपर नीलामी में अंग्रेजों से लिबासपुर को हासिल करने वाले सीताराम के वंशजों का स्वामित्व आजादी के छह दशक बाद भी चल रहा है। लिबासपुर के शहीद क्रांतिकारियों के बीस परिवार आज भी आजाद अपना हक हासिल करने के लिए न्यायालयों के चक्कर कर रहे हैं। ग्रामीणों के मुताबिक आजादी के बाद लागू हुई चकबन्दी के दौरान गाँव को ‘कॉमन प्रपज’ के लिए जो जमीन दी गई, उस पर भी सीताराम परिवारों का स्वामित्व है। सोनीपत जिला बार के मुंशी एवं लिबासपुर निवासी अतर सिंह का कहना है कि उस समय लिबासपुर गाँव की 2200 बीघे जमीन थी। इसमें से कुछ जमीन मुजाहरा करके और कुछ पैसों से ग्रामीणों ने खरीद ली और अब भी गाँव के बीस परिवार लगभग 150 एकड़ जमीन का हक पाने के लिए कोर्टों के चक्कर काट रहे हैं। अपनी इस विडम्बनापूर्ण बदकिस्मती के दर्द को बयां करते हुए लिबासपुर के 80 वर्षीय वृद्ध एवं गाँव के भूतपूर्व सरपंच चौधरी सुल्तान सिंह कहते हैं कि, "सन् 1857 की क्रांति के बाद से लेकर आज तक इस गाँव के साथ अन्याय होता आ रहा है। गाँववासी अपनी व्यथा को लेकर आजादी के बाद नेहरू जी के पास भी गए और दिल्ली से लाहौर तक के न्यायालयों में गए, लेकिन कहीं न्याय नहीं मिला। किसी भी सरकार ने हमारी सुनवाई नहीं की। हम अपनी ही जमीन पर मुजाहरे बन गए।
आज भी मुजाहरे के तौरपर किसानों को देना पड़ता है फसल का एक-तिहाई हिस्सा
शहीद उदमी राम के 75 वर्षीय वंशज जयनारायण कहना है कि आजादी के 64 साल बाद भी हमें अंग्रेजों के जमाने की तरह मुजाहरे के तौरपर राठधाना निवासी सीताराम के वंशजों को प्रति छ: माही फसल का एक-तिहाई हिस्सा देना पड़ता है। यह सब अन्याय नहीं तो और क्या है। जयनारायण ने रूंधे गले से बताया कि हम अपनी ही जमीन पर मजदूर का जीवन जी रहे हैं और कई पीढ़ियों से न्याय पाने के लिए दर-दर भटक रहे हैं, लेकिन हमें कहीं न्याय नहीं मिल रहा है। उन्होंने कहा कि हमारे पूर्वजों ने जिस आजादी के लिए अपनी कुर्बानी दी, वह आजादी तो हमें आज तक नसीब नहीं हुई है, उल्टे हम अपनों के ही गुलाम बनकर रह गए हैं।
‘निर्मल ग्राम’ बनने के बावजूद लिबासपुर में समस्याओं का लगा है अंबार
28 जून, 2007 में चौधरी भूपेन्द्र हुड्डा की सरकार ने शहीद उदमी राम के शहीदी दिवस पर लिबासपुर गाँव को ‘निर्मल ग्राम’ घोषित कर दिया था। लेकिन इसके बावजूद इस गाँव की समस्याओं का अंबार लगा हुआ है। गाँव में गन्दे पानी की निकासी भी नहीं हो पा रही है, जिससे गाँव के बीचों-बीच एक दस फूट गहरा गन्दगी का तालाब बन चुका है। इस बारे में पन्द्रह वर्षों तक पंच रह चुके राजू ने बताते हैं कि हम हर अधिकारी के यहां गाँव के गन्दे पानी की निकासी के लिए अपनी समस्या को लेकर गए, लेकिन कहीं, कोई सुनवाई नहीं हुई। हमारी आज भी यही माँग है कि ये गन्दगी गाँव से बाहर जानी चाहिए। हम बिमार पड़ रहे हैं। गाँव के बीच में यह 8-10 फूट गहरा गन्दा तालाब बन चुका है। इससे बच्चों को भी खतरा बना रहता है। इसी समस्या पर ६६ वर्षीय वृद्धा श्रीमती फूलो ने अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि गाँव के आदमी व औरत अफसरों के चक्कर लगाकर थक चुके हैं, लेकिन हमारी समस्या का समाधान करने वाला कोई नहीं मिला है। लिबासपुर गाँव के नम्बरदार राजेश सरोहा का कहना है कि हमारे गाँव लिबासपुर को ‘निर्मल गाँव’ घोषित किए जाने के बावजूद उन्हें निर्मल गाँव वाली सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। गाँव के गन्दे पानी की निकासी भी नहीं हो पा रही है। गाँव के बीच में सड़ रहे पानी से गाँव में प्रतिवर्ष बिमारियां फैल रही हैं और गरीब लोगों की मौतें हो रही हैं। सरकार से निवेदन है कि हमारी इन सभी समस्याओं का तत्काल समाधान करे। गाँव में चौधरी उद्यमीराम से संबंधित एक द्वार निर्माणाधीन है, वह भी घपले की चपेट में आने से अधर में लटका पड़ा है।
लिबासपुर में रहते हैं विभिन्न बिरादरियों के एक हजार से अधिक लोग
लिबासपुर गाँव में चार मुख्य ठौले हैं, जसवाणे, हिन्द्याण, झुण्डा के और छक्कड़े। इन ठौलों में जाट, ब्राहमण, वाल्मिकी, चमार, कुम्हार, फकीर, नाई आदि रहते आए हैं। पहले प्रति ठौले चार-चार या पाँच-पाँच घर होते थे। आज तो कम से कम चालीस-चालीस घर हो गए हैं। इस समय लिबासपुर गाँव में लगभग 800 से 1000 के बीच मतदाता हैं।
150 साल बाद मिली गाँच को नम्बरदारी
सन् 1857 में लिबासपुर गाँव के नम्बरदार शहीद उदमी राम थे। इसके बाद उनसे यह नम्बरदारी अंग्रेजों ने छीनकर सीताराम परिवार को सौंप दी थी। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 150 वर्षों तक लिबासपुर गाँव की यह नम्बरदारी सीताराम परिवार के यहीं गिरवी थी। सन् 2008 में सीताराम परिवार के वंशज खेमचन्द की मृत्यु के बाद नम्बरदारी का पद रिक्त हो गया था। इस रिक्त पद पर नंबरदारी पद के लिए लंबे समय से संघर्षरत लिबासपुर ग्रामवासियों ने मुख्यमंत्री चौधरी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के समक्ष अपनी दावेदारी प्रस्तुत की, जिसे हरियाणा सरकार ने उनकी दावेदारी का सम्मान करते हुए लिबासपुर गाँव को नम्बरदारी लौटा दी। यह गौरवमयी नम्बरदारी लिबासपुर गाँव के ३९ वर्षीय युवा राजे’ा सरोहा को 20 फरवरी, 2008 को दी गई है।
बुनियादी सुविधाओं से वंचित है शहीद उदमी राम का वंशज
सबसे बड़ी विडम्बना की बात तो यह है कि जिस आजादी के लिए उदमी राम ने सबसे बड़ी कुर्बानी दी, उसी आजादी में उनका वंशज हरदेवा रोटी-कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी सुविधाओं का भी मोहताज बना हुआ है। गाँव लिबासपुर के मध्य में आंगनवाड़ी भवन के पास एक अत्यन्त जर्जर हालत में है एक मकान, जिसमें रहता है महान शहीद उदमी राम का वंशज-परिवार। परिवार मंे कुल छह सदस्य हैं। श्री हरदेवा (मुखिया, 48 वर्ष), श्रीमती मुकेश देवी (पत्नी, 40 वर्ष) और चार बच्चे सीमा (15 वर्ष), परमजीत (7 वर्ष), हर्ष (5 वर्ष) व मोनी ( 3 वर्ष)।
जब इस परिवार के हालातों से रूबरू होते हैं तो कलेजा मुंह को आता है। यह परिवार दाने-दाने के लिए मोहताज है और गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में आता है। घर का मुखिया हरदेवा कर्ज और बीमारी के बोझ के नीचे हड्डियों का ढ़ांचा मात्र रह गया है। घर की रोजी-रोटी चलाने के लिए दीन-हीन हरदेवा दूर-दूर गाँवों में मजदूरी की तलाश में जाता है। कभी मजदूरी मिलती है, कभी नहीं। जब मजदूरी मिलती है तो बीमारी काम के आड़े आ जाती है। घर को कोई सदस्य बीमार पड़ता है तो डॉक्टर को दिखाने के लिए सौ बार सोचा जाता है, क्योंकि दवा के लिए खर्च के पैसे ही नहीं हैं। सिर छिपाने के लिए पूर्वजों का पुश्तैनी मकान है, जोकि जर्जर हो चुका है। घरेलू सामान के लिए दुकानदारों के पास उधार खाता इतना बढ़ चुका है कि वे और सामान देने से कन्नी काटने लगे हैं। डॉक्टरों की उधार के चलते अब ईलाज भी सहज संभव नहीं हो पाता। जर्जर मकान कब गिर जाए, इसी भय के साये में समय काटना मजबूरी बन चुका है। गाँव के कुछ रसूखदार लोगों का कर्ज पिछले कई वर्षों से गले की फांस बना हुआ है। कुल मिलाकर मुसीबतों का विशाल पहाड़ हरदम ढ़ो रहा है महान शहीद उदमी राम का वंशज परिवार।
लिबासपुर निवासी आज भी मानते हैं स्वयं को गुलाम
कितने बड़े आश्चर्य एवं विडम्बना का विषय है कि देश को आजाद हुए छह दशक से अधिक हो चुके हैं और आजादी के लिए कुर्बान होने वाले शहीदों के वंशज आज भी स्वयं को गुलामी से मुक्त नहीं मान पा रहे हैं। इस बारे में नवनियुक्त नम्बरदार राजेश सरोहा ने बातचीत के दौरान बताया कि बड़े दु:ख की बात है कि आजादी के बावजूद हम अपने आपको गुलाम मानते हैं। उसका कारण यह है कि हमारे सार्वजनिक जोहड़, रास्ते, कुंए आदि ‘कॉमन-प्रपज’ की जमीन के मालिक आज भी वे सीताराम के वंशज ही हैं और हम उनके ‘मुजाहरे’ हैं। आज हमारे गाँव की हर प्रकार की जमीन पर उनका मालिकाना हक है। आज भी 150 एकड़ जमीन ऐसी है, जिसके वे मालिक हैं और मुजाहरे हैं। इसी नाइंसाफी की लड़ाई हम कोर्टों में लड़ रहे हैं। हमारे बुजुर्गों ने भी 50-60 सालों तक दिल्ली से लेकर लाहौर तक कानूनी तारीखें भुगती हैं।
हमारी मुख्य मांगे हैं कि व्यक्तिगत झगड़ों के अलावा गाँव की जो जमीन ‘कॉमन-प्रपज’ के लिए छोड़ी गई है, उसकी मलकियत हमारे गाँव को दी जाए। 1953 की चकबन्दी के नियम के तहत हमें मुजाहरों से मालिक घोषित किया जाए और हमारी ‘कॉमन-प्रपज+’ जमीन का इंतकाल गाँव के नाम पर चढ़ाया जाए। हमारे लिबासपुर गाँव को ‘स्वतंत्रता सेनानी गाँव’ घोषित किया जाए और शहीदों के वंशजों के परिवारों को ‘स्वतंत्रता सेनानी परिवार’ घोषित किया जाए एवं उन्हें वे सभी सरकारी सुविधाएं मुहैया करवाई जाएं, जो एक स्वतंत्रता सेनानी परिवार को सरकार द्वारा दी जा रही हैं। गाँव में शहीद उदमी राम का स्मारक बनाया जाए। मुख्यमंत्री चौधरी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा द्वारा हमारे गाँव लिबासपुर को ‘आदर्श गाँव’ घोषित किए जाने के बावजूद उन्हें आदर्श गाँव वाली सुविधाएं नहीं मिल पा रही हैं। गाँव के गन्दे पानी की निकासी भी नहीं हो पा रही है। गाँव के बीच में सड़ रहे पानी से गाँव में प्रतिवर्ष बिमारियां फैल रही हैं और गरीब लोगों की मौतें हो रही हैं। सरकार से निवेदन है कि हमारी इन सभी समस्याओं का तत्काल समाधान करे।
(राजेश कश्यप)
स्वतंत्र पत्रकार एवं युवा समाजसेवी
टिटौली (रोहतक)
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