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मंगलवार, 22 मार्च 2016

23 मार्च/शहीदी दिवस पर विशेष---मेरा रंग दे बसंती चोला.../राजेश कश्यप

23 मार्च/शहीदी दिवस पर विशेष

शहीदे आज़म भगत सिंह 

       आज हम जिस आजादी के साथ सुख-चैन की जिन्दगी गुजार रहे हैं, वह असंख्य जाने-अनजाने देशभक्त शूरवीर क्रांतिकारियों के असीम त्याग, बलिदान एवं शहादतों की नींव पर खड़ी है। ऐसे ही अमर क्रांतिकारियों में शहीद भगत सिंह शामिल थे, जिनके नाम लेने मात्र से ही सीना गर्व एवं गौरव से चौड़ा हो जाता है। शहीदे-आज़म भगत सिंह की जीवनी जन-जन में अदम्य देशभक्ति, शौर्य और स्वाभिमान का जबरदस्त संचार करती है। सरदार भगत सिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर के बंगा गाँव (पाकिस्तान) में एक परम देशभक्त परिवार में हुआ। सरदार किशन सिंह के घर श्रीमती विद्यावती की कोख से जन्में इस बच्चे को दादा अर्जुन सिंह व दादी जयकौर ने ‘भागों वाला’ कहकर उसका नाम ‘भगत’ रख दिया। बालक भगत को भाग्य वाला बच्चा इसीलिए माना गया था, क्योंकि उसके जन्म लेने के कुछ समय पश्चात् ही, स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण लाहौर जेल में बंद उनके पिता सरदार किशन सिंह को रिहा कर दिया गया और जन्म के तीसरे दिन उसके दोनों चाचाओं को जमानत पर छोड़ दिया गया।
       बालक भगत सिंह में देशभक्त परिवार के संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए थे। ‘होरहान बिरवान के होत चिकने पात’ कहावत को चरितार्थ करते हुए बालक भगत ने तीन वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता के दोस्त नन्द किशोर मेहता को हतप्रभ कर दिया था। उसके पिता भगत सिंह को साथ लेकर अपने मित्र मेहता के खेत में गए हुए थे तो दोनों मित्र बातों में मशगूल हो गए। लेकिन भगत सिंह ने खेत में छोटी-छोटी डोलियों पर लकड़ियों के छोटे छोटे तिनके गाड़ दिए। यह देखकर मेहता हतप्रभ रह गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या बो दिया है, भगत? भगत ने तपाक से उत्तर दिया कि ‘मैंने बन्दूकें बोई हैं। इनसे अपने देश को आजाद कराऊंगा’। भारत माँ को परतन्त्रता की बेड़ियांे से मुक्त कराने वाले इस लाल की ऐसी ही देशभक्ति से भरे भावों वालीं असंख्य मिसालें हैं।
पाँच वर्षीय बालक भगत का नाम पैतृक बंगा गांव के जिला बोर्ड प्राइमरी स्कूल में लिखाया गया। उनकी मित्र मण्डली काफी बड़ी थी। बंद कमरों में बैठकर पढ़ना भगत सिंह को बोर कर देता था। इसीलिए वो अक्सर कक्षा से भागकर खुले मैदान में आ बैठते थे। बालक भगत सिंह कुशाग्र बुद्धि, साहसी, निडर एवं स्पष्टवक्ता थे। जब वे ग्यारह वर्ष के थे तो उनके साथ पढ़ रहे उनके बड़े भाई जगत सिंह को असामयिक निधन हो गया। इसके बाद सरदार किशन सिंह सपरिवार लाहौर के पास नवाकोट चले आए। प्राइमरी पास कर चुके बालक भगत सिंह को सिख परम्परा के अनुसार खालसा-स्कूल की बजाय राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिलवाया गया। इसी दौरान 13 अप्रैल, 1919 को वैसाखी वाले दिन ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में देशवासियों की जलियांवाला बाग में भारी सभा हुई। जनरल डायर के क्रूर व दमनकारी आदेशों के चलते निहत्थे लोगों पर अंग्रेजी सैनिकों ने ताड़बतोड़ गोलियों की बारिश कर दी। इस अत्याचार ने देशभर में क्रांति की आग को और भड़का दिया।
       भगत सिंह ने अमृतसर के जलियांवाला बाग की रक्त-रंजित मिट्टी की कसम खाई कि वह इन निहत्थे लोगों की हत्या का बदला अवश्य लेकर रहेगा। सन् 1920 में गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन चलाया और देशवासियों से आह्वान किया कि विद्यार्थी सरकारी स्कूलों को छोड़ दें व सरकारी कर्मचारी अपने पदों से इस्तीफा दे दें। उस समय नौंवी कक्षा में पढ़ रहे भगत सिंह ने सन् 1921 में गांधी जी के आह्वान पर डी.ए.वी. स्कूल को छोड़ लाला लाजपतराय द्वारा लाहौर में स्थापित नैशनल कॉलेज में प्रवेश ले लिया। इस कॉलिज में आकर भगत सिंह यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, रामकिशन, तीर्थराम, झण्डा सिंह जैसे क्रांतिकारी साथियों के सम्पर्क में आए। कॉलिज में लाला लाजपत राय व परमानंद जैसे देशभक्तों के व्याख्यानों ने देशभक्ति की लहर भर दी थी। कॉलिज के प्रो. विद्यालंकार जी भगत सिंह से विशेष स्नेह रखते थे। वस्तुतः प्रो. जयचन्द विद्यालंकार ही भगत सिंह के राजनीतिक गुरू थे। भगत सिंह उन्हीं के दिशा-निर्देशन में देशभक्ति के कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाते थे।
       इसी समय घरवालों ने भगत सिंह पर शादी का दबाव डाला तो उन्होंने विवाह से साफ इनकार कर दिया। जब हद से ज्यादा दबाव पड़ा तो देशभक्ति में रमे भगत सिंह देश की आजादी के अपने मिशन को पूरा करने के उद्देश्य से 1924 में बी.ए. की पढ़ाई अधूरी छोड़कर कॉलिज से भाग गए। फिर वे केवल और केवल देशभक्तों के साथ मिलकर स्वतंत्रता के संघर्ष में जूट गए। कॉलिज से भागने के बाद भगत सिंह सुरेश्चन्द्र भट्टाचार्य, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए। इसी के साथ भगत सिंह उत्तर प्रदेश व पंजाब के क्रांतिकारी युवकों को संगठित करने में लग गए। इसी दौरान भगत सिंह ने ‘प्रताप’ समाचार पत्र में बतौर संवाददाता अपनी भूमिका खूब निभाई। इन्हीं गतिविधियों के चलते भगत सिंह की मुलाकात भारतीय इतिहास के महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद से हुई।
       कॉलिज से भागे भगत सिंह के परिवार वालों ने काफी खोजबीन करके भगत सिंह से लिखित वायदा किया कि वह घर वापिस आ जाए, उस पर शादी करने के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाएगा। परिवार वालों के इस लिखित वायदे व दादी जी के सख्त बीमार होने के समाचार ने भगत सिंह को वापिस घर लौटने के लिए बाध्य कर दिया। घर आकर वे पंजाब भर में घूम-घूमकर समाज की समस्याओं से अवगत होने लगे। सन् 1925 के अकाली आन्दोलन के सूत्रपात ने भगत सिंह को फिर सक्रिय कर दिया। अंग्रेज सरकार ने झूठा केस तैयार करके भगत सिंह के नाम गिरफ्तारी वारन्ट जारी कर दिया गया। भगत सिंह पंजाब से लाहौर पहुंच गए और सक्रिय होकर क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेकर अंग्रेज सरकार की नाक में दम करने लगे। 
       1 अगस्त, 1925 को ‘काकोरी-काण्ड’ हुआ। ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के सदस्यों द्वारा पार्टी के लिए धन इक्कठा करने के उद्देश्य से हरदोई से लखनऊ जा रही 8 डाऊन रेलगाड़ी के खजाने को लूट लिया गया। इस काण्ड में कुछ क्रांतिकारी पकड़े गए। पकड़े गए क्रांतिकारियेां को छुड़ाने के लिए भगत सिंह ने भरसक प्रयत्न किए, लेकिन उन्हें सफलता हासिल नहीं हो सकी। मार्च, 1926 में उन्होंने लाहौर में समान क्रांतिकारी विचारधारा वाले युवकों को संगठित करके ‘नौजवान सभा’ का गठन किया और इसके अध्यक्ष का उत्तरदायित्व रामकृष्ण को सौंप दिया। रामकृष्ण औपचारिक अध्यक्ष थे, जबकि मूलरूप से संचालन भगत सिंह स्वयं ही करते थे। फिर इसकी शाखाएं देश के अन्य हिस्सों में भी खोली गईं।
       जून, 1928 में इसी तर्ज पर भगत सिंह ने लाहौर में ही ‘विद्यार्थी यूनियन’ बनाई और क्रांतिकारी नौजवानों को इसका सदस्य बनाया। अंग्रेजी सरकार भगत सिंह के कारनामों से बौखलाई हुई थी। वह उन्हें गिरफ्तरी करने का बहाना ढूंढ़ रही थी। उसे यह बहाना 1927 के दशहरे वाले दिन मिल भी गया। जब भगत सिंह तितली बाग से लौट रहे थे तो किसी ने दशहरे पर लगे मेले में बम फेंक दिया। भगत सिंह पर झूठा इल्जाम लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वस्तुतः पुलिस के इशारों पर वह बम चन्नणदीन नामक एक अंग्रेज पिठ्ठू ने फेंका था। भगत सिंह को गिरफ्तार करके बिना मुकद्मा चलाए उन्हें लाहौर जेल में रखा गया और उसके बाद उन्हें बोस्टल जेल भेज दिया गया। पुलिस की लाख साजिशों के बावजूद भगत सिंह जमानत पर छूट गए। जमानत मिलने के बाद भी भगत सिंह सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।
       8 अगस्त, 1928 को देशभर के क्रांतिकारियों की बैठक फिरोजशाह कोटला में बुलाई गई। भगत सिंह के परामर्श पर ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ रख दिया गया। इस बैठक में क्रांतिकारियों ने कई अहम् प्रस्ताव पारित किए। एसोसिएशन का मुख्य कार्यालय आगरा से झांसी कर दिया गया। भगत सिंह ने कई अवसरों पर बड़ी चालाकी से वेश बदल कर अंग्रेज सरकार को चकमा दिया। 30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर पहुंचे साइमन कमीशन का विरोध लाला लाजपतराय के नेतृत्व में भगत सिंह सहित समस्त क्रांतिकारियों व देशभक्त जनता ने डटकर किया। पुलिस की दमनात्मक कार्यवाही में लाला जी को गंभीर चोटें आईं और लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी स्वर्ग सिधार गए। क्रांतिकारियों का खून खौल उठा। इस कार्यवाही के सूत्रधार स्कॉट को मारने के लिए क्रांतिकारियों ने 17 दिसम्बर, 1928 को व्यूह रचा, लेकिन स्कॉट की जगह साण्डर्स धोखे में मार दिया गया। इस काम को भगत सिंह ने जयगोपाल, राजगुरू आदि के साथ मिलकर अंजाम दिया था। इसके बाद तो पुलिस भगत सिंह के खून की प्यासी हो गई।
       आगे चलकर इन्हीं देशभक्त व क्रांतिकारी भगत सिंह ने कुछ काले बिलों के विरोध में असेम्बली में बम फेंकने जैसी ऐतिहासिक योजना की रूपरेखा तैयार की। क्रांतिकारियों से लंबे विचार-विमर्श के बाद भगत सिंह ने स्वयं बम फेंकने की योजना बनाई, जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने उनका सहयोग किया। ‘बहरों को अपनी आवाज सुनाने के लिए’ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को निश्चित समय पर पूर्व तय योजनानुसार असैम्बली के खाली प्रांगण में हल्के बम फेंके, समाजवादी नारे लगाए, अंग्रेजी सरकार के पतन के नारों को बुलन्द किया और पहले से तैयार छपे पर्चे भी फेंके। योजनानुसार दोनों देशभक्तों ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया ताकि वे खुलकर अंग्रेज सरकार को न्यायालयों के जरिए अपनी बात समझा सकें।
       7 मार्च, 1929 को मुकद्दमे की सुनवाई अतिरिक्त मजिस्टेªट मिस्टर पुल की अदालत में शुरू हुई। दोनों वीर देशभक्तों ने भरी अदालत में हर बार ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपने पक्ष को रखा। अदालत ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अन्तर्गत मामला बनाकर सेशन कोर्ट को सौंप दिया। 4 जून, 1929 को सेशन कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। दोनो ंपर गंभीर आरोप लगाए गए। क्रांतिकारी भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने हर आरोप का सशक्त खण्डन किया। अंत में 12 जून, 1929 को अदालत ने अपना 41 पृष्ठीय फैसला सुनाया, जिसमें दोनों क्रांतिकारियों को धारा 307 व विस्फोटक पदार्थ की धारा 3 के अन्तर्गत उम्रकैद की सजा दी। इसके तुरंत बाद भगत सिंह को पंजाब की मियांवाली जेल में और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर सेन्ट्रल जेल में भेज दिया गया। इन क्रांतिकारियों ने अपने विचारों को और ज्यादा लोगों तक पहंुचाने के लिए हाईकोर्ट में सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की। अंततः 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने भी सुनियोजित अंग्रेजी षड़यंत्र के तहत उनकी अपील खारिज कर दी। इसी बीच जेल में भगत सिंह ने भूख हड़ताल शुरू कर दी।
       इसी दौरान ‘साण्डर्स-हत्या’ केस की सुनवाई शुरू की गई। एक विशेष न्यायालय का गठन किया गया। अपने मनमाने फैसले देकर अदालत ने भगत सिंह के साथ राजगुरू व सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र केस में दोषी ठहराकर सजाए मौत का हुक्म सुना दिया। पं. मदन मोहन मालवीय ने फैसले के विरूद्ध 14 फरवरी, 1931 को पुनः हाईकोर्ट में अपील की। लेकिन अपील खारिज कर दी गई। जेल में भगत सिंह से उनके परिवार वालों से मिलने भी नहीं दिया गया। भगत सिंह का अपने परिवार के साथ अंतिम मिलन 3 मार्च, 1931 को हो पाया था। इसके बीस दिन बाद 23 मार्च, 1931 को जालिम अंग्रेजी सरकार ने इन क्रांतिकारियों को निर्धारित समय से पूर्व ही फांसी के फन्दे पर लटका दिया और देश में कहीं क्रांति न भड़क जाए, इसी भय के चलते उन शहीद देशभक्तों का दाह संस्कार भी फिरोजपुर में चुपके-चुपके कर दिया। इस तरह सरदार भगत सिंह ‘शहीदे आज़म’ के रूप में भारतीय इतिहास में सदा सदा के लिए अमर हो गये। कल भी सरदार भगत सिंह सबके आदर्श थे, आज भी हैं और आने वाले कल में भी रहंेगे, क्योंकि उन जैसा क्रांतिवीर न कभी पैदा हुआ है और न कभी होगा। उनके सिद्धान्तों और आदर्शों पर चलकर ही कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें सच्ची श्रद्धान्जलि दे सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

शनिवार, 5 मार्च 2016

सिसकते हरियाणा के सुलगते सवाल

ज्वलंत मुद्दा/ जाट आन्दोलन


सिसकते हरियाणा के सुलगते सवाल
-राजेश कश्यप

          जाट आन्दोलन की आग और हैवानियत के नंगे नाच ने हरियाणा प्रदेश के सम्मान, स्वाभिमान और गौरवमयी पहचान को खाक करके रख दिया है। गत 15 से 23 फरवरी, 2016 के बीच हरियाणा भर में जो कुछ भी घटित हुआ, वह प्रदेश के इतिहास में लोकतांत्रिक मर्यादाओं, नैतिक उत्तरदायित्वों, मानवीय संवेदनाओं और राजधर्म की प्रतिबद्धताओं को तार-तार करने वाले काले अध्याय के रूप में दर्ज हो गया। आगामी एक नवम्बर को हरियाणा प्रदेश अपनी स्थापना के 50 वर्ष पूरे करने जा रहा है। यह प्रदेश की गौरवमयी उपलब्धियों का गौरवगान करने और खुशी एवं उमंगों भरा जश्र मनाने का स्वर्णिम अवसर था। लेकिन, मुठ्ठीभर लोगों की संकीर्ण सियासत, तुच्छ मानसिकता और पैशाचिक प्रवृत्ति के कारण चहुंओर करूण-क्रन्दन, सिसकियां और मातम पसरा पड़ा है।

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        आन्दोलन की आड़ में आतंकी उपद्रवियों ने न केवल जमकर लूटपाट की, बल्कि वाहनों, स्कूलों, अस्पतालों, आद्योगिक इकाईयों, पुलिस चौकियों, रेलवे स्टेशनों, सरकारी व गैर-सरकारी प्रतिष्ठानों आदि सबको आग में स्वाहा कर दिया, निर्दोष व मासूमों को मौत के मुंह में पहुंचा दिया, भयंकर खून-खराबा किया, कथित तौरपर महिलाओं की इज्जत लूटी, कानून व्यवस्था का सरेआम जनाजा निकाला और हर वह कुकत्र्य किया, जिसकी एक लोकतांत्रिक व सामाजिक व्यवस्था में कतई कल्पना नहीं की जा सकती। बेशक, जाट आरक्षण की आग की भयंकर लपटें शांत हो चुकी हैं और गहरे जख्मों पर हर स्तर पर मरहम लगाने की भरसक कोशिशें शुरू हो चुकी हैं। लेकिन, इसके बावजूद सब कुछ सही नहीं कहा जा सकता है। राख के ढ़ेरों के नीचे भयंकर शोले अभी भी धधक रहे हैं। स्थिति बेहद संवेदनशील है। जन-जन में उत्पातियों के जघन्य कृत्यों की भारी दहशत भरी हुई है। समाज में अविश्वास का माहौल है। फिर से कोई अनहोनी न घट जाये, यह कल्पना करके हर कोई सिहर रहा है। पूरा हरियाणा सिसक रहा है और सुलगते सवालों का सैलाब उगल रहा है।

        सबसे बड़ा सवाल यह है कि जाट आरक्षण आन्दोलन एकाएक हिंसक क्यों हुआ? यह महज आक्रोश था या संकीर्ण सियासत की नीचता? हिंसक आन्दोलन का उत्तरदायी कौन है? क्या हिंसा, गुण्डागर्दी और संवैधानिक प्रक्रियाओं की धज्जियां उड़ाकर किसी मांग को पूरा करवाने की छूट दी जा सकती है? हिंसक ताण्डव के बीच पुलिस, सुरक्षाबल और सेना तक मूक दर्शक क्यों बनी रही? आतंकी उपद्रवियों के हाथों पूरी कानूनी व्यवस्था क्यों बन्धक बनी रही? धारा 144 और कर्फ्यू  की सरेआम क्यों धज्जियां उड़ीं? जब उपद्रवियों को देखते ही गोली मारने के आदेश थे तो फिर भी उपद्रवियों की दरिन्दगी और लूट निर्बाध रूप से कैसे जारी रही? आम जनता को शासन व प्रशासन ने गुण्डों के हाथों मरने के लिए नि:सहाय क्यों छोड़ दिया? मुरथल में कथित महिलाओं की अस्मत क्यों नहीं बचाई जा सकी? मामला संज्ञान में आने के बावजूद शासन व प्रशासन ने लीपापोती की भरसक कोशिश क्यों की? (हालांकि, हरियाणा सरकार व पुलिस प्रशासन ने इस तरह की किसी घटना होने से साफ इनकार किया है।) क्या आर्थिक मदद से आन्दोलन के नुकसान की भरपाई हो जायेगी? भविष्य में ऐसी दर्दनाक एवं शर्मनाक घटनाओं का दोहराव न हो, इसके लिए क्या शासन व प्रशासन ने कोई पुख्ता व्यवस्था सुनिश्चित की है? क्या दंगे व लूट के नामजद आरोपियों को कड़ा सबक सिखाया जायेगा या फिर उन्हें भी जातीय दबाव में माफ कर दिया जायेगा? ऐसे ही अनेकों सुलगते सवाल हैं, जिनके ठोस जवाब दिया जाना बहुत जरूरी है।

        अंतरिम आंकड़ों के अनुसार जाट आन्दोलन की हिंसा के दौरान 30 लोगों की मौत और 200 लोग घायल हुए हैं। उपद्रवियों ने हरियाणा रोड़वेज की 36 बसें फूंक दीं, 26 पेट्रोल पम्प आग के हवाले कर दिए, 18 पुलिस थाने जला दिए, भिवानी व पिल्लूखेड़ा के रेलवे स्टेशन जला डाले, कई शहर बुरी तरह से बर्बाद कर दिए और सोनीपत जिले के मुरथल में 10 महिलाओं के साथ कथित तौरपर सामूहिक बलात्कार जैसी दरिन्दगी को अंजाम दिया गया (हालांकि, हरियाणा सरकार व पुलिस प्रशासन ने इस तरह की किसी घटना होने से साफ इनकार किया है।) । इस हिंसक आन्दोलन से हरियाणा प्रदेश को 36,000 करोड़ रूपये से भी अधिक का आर्थिक नुकसान हुआ है। हजारों पेड़ काटे गए हैं। जान माल के नुकसान के इन आंकड़ों में बढ़ौतरी संभव है। इसके बावजूद इन अंतरिम आंकड़ों से सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि आन्दोलन की आड़ में उपद्रवियों ने किस हद तक प्रदेश की कानून व्यवस्था के साथ नंगा खेल खेला है? हालांकि, हरियाणा सरकार की ओर से पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट में दाखिल स्टेट्स रिपोर्ट के अनुसार  इन उपद्रवियों के खिलाफ 1117 एफआईआर दर्ज की गई हैं, 147 गिरफ्तारियां की गई हैं और हजारों उपद्रवियों की पहचान की गई है। दोषियों से नुकसान की भरपाई करने के दावे किए जा रहे हैं।  लेकिन, जिस तरह से उपद्रवियों के आगे प्रदेश सरकार व प्रशासन ने अप्रत्याशित रूप से आत्मसमर्पण कर दिया, उससे इस तरह के दावों में तनिक भी दम दिखाई नहीं दे रहा है। यदि उपद्रवियों को सख्त सजा नहीं मिली और उनसे नुकसान की भरपाई नहीं हो सकी तो उनके हौंसले और भी बुलन्द होने निश्चित हैं। भविष्य में भी वे ऐसी ही घटनाओं को दोहराने में किसी तरह का कोई संकोच नहीं करेंगे। क्या हरियाणा की भाजपा सरकार उपद्रवियों को सख्त सन्देश देने में कामयाब हो पायेगी और क्या आम जनता में सुरक्षा का विश्वास जगा पायेगी? यह तो आने वाले समय में ही पता चल सकेगा। लेकिन, इतना तय है कि यदि हरियाणा सरकार उपद्रवियों को सख्त सन्देश देने में नाकाम रही तो इसके परिणाम भविष्य में और भी घातक हो सकते हैं।

        हरियाणा सरकार ने त्वरित रूप से पीडि़त लोगों को अग्रिम आंशिक आर्थिक मदद देकर कुछ हद तक मरहम लगाने की कोशिश की है और साथ ही दोषी उपद्रवियों पर सख्त कार्यवाही करने व उनसे नुकसान की भरपाई करने का दावा भी किया है। हिंसक वारदातों को रोकने में नाकाम रहने वाले गैर-जिम्मेदार प्रशासनिक अधिकारियों पर भी सख्त कार्यवाही शुरू की गई है। आन्दोलन के दौरान मारे गए निर्दोष लोगों के परिवारों को दस लाख रूपये की आर्थिक मदद एवं एक सरकारी नौकरी देने का आश्वास भी दिया गया है। स्थिति को सामान्य करने के हर संभव प्रयास किए जा रहे हैं। हरियाणा की मनोहर सरकार द्वारा उठाये गए ये सब कदम संतोषजनक कहे जा सकते हैं। लेकिन, सरकार के समक्ष सबसे बड़ी जटिल चुनौती आम जनता के दिलों से दहशत को निकालकर उनमें सुरक्षा व कानून व्यवस्था के प्रति मजबूत विश्वास जगाने की है।

        हरियाणा सरकार को इस हिंसक आन्दोलन की तह तक जाना होगा और हर उस सुलगते सवाल का जवाब देना होगा, जो समय की मांग है। इस आन्दोलन की कडिय़ां संकीर्ण सियासत करने वाले नेताओं से जुड़ती दिखाई दे रही हैं। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के राजनीतिक सलाहकार रहे प्रोफेसर वीरेन्द्र और दलाल खाप के प्रवक्ता कैप्टन मान सिंह के बीच आन्दोलन को तेज कर भडक़ाने संबंधी वायरल हुआ ऑडियो आन्दोलन के पीछे की संकीर्ण सियासत को समझने के लिए काफी अहम कड़ी है। इसके साथ ही यह आरोप भी काफी सटीक दिखाई दे रहे हैं कि जातिवाद की संकीर्ण राजनीति करने वाले कुछ नेताओं को गैर-जाट मुख्यमंत्री पचा नहीं, इसीलिए उन्होंने साजिश के तहत मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर सरकार का तख्ता पलट करने के लिए जाट आन्दोलन को हिंसक बनाने में अहम भूमिका निभाई। इनके अलावा यह भी चर्चा है कि दिल्ली दरबार में जाति विशेष का दबदबा साबित करके अपनी पकड़ व महत्ता बनाये रखने के मकसद से भी आन्दोलन सुनियोजित तरीके से हिंसक बनाया गया। लेकिन, आन्दोनकारियों की तरह से कहा जा रहा है कि गैर-जाटों की राजनीति करने वाले भाजपा सांसद राजकुमार सैनी द्वारा जाट आरक्षण के विरूद्ध दिये गए भडक़ाऊ बयानों के कारण जाट आन्दोलनकारियों के आक्रोश ने हिंसक रूप ले लिया। यदि ऐसा है तो उन लोगों को चुन-चुनकर क्यों तबाह किया गया, जिनका इस आन्दोलन से कोई लेना-देना ही नहीं था? जाट आन्दोलनकारियों का यह भी दावा है कि उन्होंने लूटपाट नहीं की है, लूटपाट करने वाले कोई और लोग थे। सभी राजनीतिक पार्टियां जाट आन्दोलन के नाम पर हुई भारी हिंसा एवं कानूनी अव्यवस्था के लिए एक दूसरे को दोषी ठहरा रही हैं। भाजपा सीधे कांग्रेस को दोषी दे रही है तो कांग्रेस भाजपा सरकार का किया धरा बता रही है तो इनेलो कांग्रसियों की चाल बता रही है। वहीं, हजकां इसके लिए कांग्रेस व इनेलो को ही जिम्मेवार मानती है। अब चूंकि, वित्तमंत्री कैप्टन अभिमन्यु ने अपने जले हुए निवास की राख से चीनी कोयले के पैकेट मिलने का दावा किया है, और इस हिंसा व आगजनी के पीछे विदेशी तार जुड़े होने की शंका भी जाहिर की है। इस तरह के पैकेट अन्य व्यापारियों ने भी अपनी जली हुई दुकानों में पाये जाने के दावे किये हैं और दावे किये हैं कि जरूर इसके पीछे विदेशी ताकतों का हाथ हो सकता है। पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के राजनीतिक सलाहकार प्रो. विरेन्द्र व खाप प्रवक्ता मान सिंह पर देशद्रोह के केस के तहत शिकंजा कड़ा शिकंजा कसा जा रहा है। पुलिस द्वारा दिये गए समय के तहत वे जांच के लिए पेश नहीं हुए, तो पुलिस ने अदालत से गिरफ्तारी वारंट जारी करवा लिए हैं। प्रो. ने रोहतक सिविल कोर्ट में अग्रिम जमानत के लिए अर्जी लगाई तो अदालत ने उसे खारिज करके विरेन्द्र को कड़ा झटका दिया हैं। उधर, पूर्व मुख्यमंत्री ने समय आने पर प्रमाणों के साथ इस पूरे षड़यंत्र का खुलासा करने के जोरदार दावे किये हैं।

        अब इन दावों और प्रतिदावों में कितना दम है, यह तो उच्च स्तरीय निष्पक्ष जांच के बाद ही पता चल सकता है। लेकिन, इतना तय है कि जाट आन्दोलन के हिंसक होने के पीछे संकीर्ण सियासत जरूर है। हिंसक आन्दोलन के असली सच को सामने लाना बेहद जरूरी है। वरना, जाट व गैर-जाट की संकीर्ण सियासत के कारण हरियाणा प्रदेश का सामाजिक सौहार्द व भाईचारा खतरे में पड़ जायेगा और यह जातीय उन्माद प्रदेश की कानून व शांति व्यवस्था के लिए जटिल चुनौती बन सकता है। जाट हिंसक आन्दोलन के बाद सभी पार्टी के नेता जनता के बीच हमदर्दी व दुःख और शांति का पैगाम लेकर जाने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन, पहली बार, उन्हें भारी आक्रोश एवं विरोध का सामना करना पड़ रहा है। एक तरफ जहां, रोहतक में पीड़ितों ने मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को काले झण्डे दिखाये गए, वहीं पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को उन्हीं के गृहजिले रोहतक में जूतों का सामना करना पड़ा। एक तरफ झज्जर में कृषि मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ को वापिस जाओ के नारों का सामना करना पड़ा और लोगों ने भागकर अपने दरवाजे बंद कर लिये और धनखड़ साहब को अपना मुंह लेकर वापिस लौटना पड़ा। इसी तरह का व्यवहार भूपेन्द्र सिंह हुड्डा को भी झेलना पड़ा है। कहने का अभिप्राय है कि जनता किसी भी राजनीतिक दल को कोई तवज्जों नहीं दे रही है और सभी को अपनी बर्बादी का बराबर जिम्मेदार मान रही है। राजनीतिकों को अपनी संकीर्ण राजनीति से सबक लेने का इससे अधिक और मौका क्या हो सकता है। अब सवाल यह है कि क्या ऐसा हो भी पायेगा या नहीं?




        सौ बातों की एक बात यह है कि हम सबको यह ध्यान में रखना होगा कि हिंसा, हत्या, लूट और अपराधिक कृत्य करने वाले व्यक्ति की कोई जाति, धर्म या मजहब नहीं होता। वह कानूनन अपराधी है और अपराधी चाहे कोई भी हो, उसे सख्त से सख्त सजा मिलनी ही चाहिये।

शुक्रवार, 4 मार्च 2016

समाज के महादिग्दर्शक स्वामी दयानंद सरस्वती

193वीं जयन्ति पर विशेष

समाज के महादिग्दर्शक स्वामी दयानंद सरस्वती
-राजेश कश्यप


         महर्षि दयानंद आर्य समाज के संस्थापक, महान समाज सुधारक, राष्ट्र-निर्माता, प्रकाण्ड विद्वान, सच्चे सन्यासी, ओजस्वी सन्त और स्वराज के संस्थापक थे। उनका जन्म गुजरात के राजकोट जिले के काठियावाड़ क्षेत्र में टंकारा गाँव के निकट मौरवी नामक स्थान पर भाद्रपद, शुक्ल पक्ष, नवमी, गुरूवार, विक्रमी संवत् 1881 (फरवरी, 1824) को साधन संपन्न एवं श्रेष्ठ ब्राहा्रण परिवार में  हुआ था। कुछ विद्वानों के अनुसार उनके पिता का नाम अंबाशंकर और माता का नाम यशोदा बाई था। उनके बचपन का नाम मूलशंकर था। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। वे तीन भाईयों और दो बहनों में सबसे बड़े थे। उन्होंने मात्र पाँच वर्ष की आयु में ‘देवनागरी लिपि’ का ज्ञान हासिल कर लिया था और संपूर्ण यजुर्वेद कंठस्थ कर लिया था। बचपन में घटी कुछ घटनाओं नेे उन्हें मूलशंकर से स्वामी दयानंद बनने की राह पर अग्रसित कर दिया। पहली घटना चौदह वर्ष की उम्र में घटी। उनके पिता शिव के परम भक्त थे। वर्ष 1837 के माघ माह में पिता के कहने पर बालक मूलशंकर ने भगवान शिव का व्रत रखा। जागरण के दौरान अर्द्धरात्रि में उनकी नजर मन्दिर में स्थित शिवलिंग पर पड़ी, जिस पर चुहे उछल कूद मचा रहे थे। एकाएक बालक मूलशंकर के मन में विचार आया कि यदि जिसे हम भगवान मान रहे हैं, वह इन चूहों को भगाने की शक्ति भी नहीं रखता तो वह कैसा भगवान?
        इसी तरह जब मूलशंकर 16 वर्ष के थे तो उनकीं चौदह वर्षीय छोटी बहन की मौत हो गई। वे अपनी बहन से बेहद प्यार करते थे। पूरा परिवार व सगे-संबंधी विलाप कर रहे थे और मूलशंकर भी गहरे सदमे व शोक में भाव-विहल थे। तभी उनके मनोमस्तिष्क में कई तरह के विचार पैदा हुए। इस संसार में जो भी आया है, उसे एक न एक दिन यहां से जाना ही पड़ेगा, अर्थात् सबकी मृत्यु होनी ही है और मौत जीवन का शाश्वत सत्य है। अगर ऐसा है तो फिर शोक किस बात का? क्या इस शोक और विलाप की समाप्ति का कोई उपाय हो सकता है? उनके मन में बिल्कुल इसी तरह के भाव और प्रश्न एक बार फिर तब जागे, जब विक्रमी संवत् 1899 में उनके प्रिय चाचा ने उनके सामने बेहद व्यथा एवं पीड़ा के बीच दम तोड़ा। युवा मूलशंकर के मनोमस्तिष्क में अब सिर्फ एक ही विचार बार-बार कौंध रहा था कि जब जीवन मिथ्या है और मृत्यु एकमात्र सत्य है। ऐसे में क्या मृत्यु पर विजय नहीं पाई जा सकती? क्या मृत्यु समय के समस्त दुःखों से बचा नहीं जा सकता?
        क्या मृत्यु पर विजय पाई जा सकती है? यदि हाँ तो कैसे? इस सवाल का जवाब पाने के लिए युवा मूलशंकर खोजबीन में लग गया। काफी मशक्त के बाद उन्हें एक आचार्य ने सुझाया कि मृत्यु पर विजय ‘योग’ से पाई जा सकती है और ‘योगाभ्यास’ के जरिए ही अमरता को हासिल किया जा सकता है। आचार्य के इस जवाब ने युवा मूलशंकर को इतना प्रभावित किया कि उन्होंने ‘योगाभ्यास’ के लिए घर छोड़ने का फैसला कर लिया। जब पिता को उनकीं इस मंशा का पता चला तो उन्होंने मूलशंकर को मालगुजारी के काम में लगा दिया और इसके साथ उन्हें विवाह-बन्धन में बांधने का फैसला कर लिया ताकि वह विरक्ति से निकलकर मोह-माया में बंध सके।
        जब उनके विवाह की तैयारियां जोरों पर थीं तो मूलशंकर ने घर को त्यागकर सच्चे भगवान, मौत और मोक्ष का रहस्य जानने का दृढ़संकल्प ले लिया। जेष्ठ माह, विक्रमी संवत् 1903, तदनुसार मई, 1846 की सांय को उन्होंने घर त्याग दिया। इसके बाद वे अपने लक्ष्य को हासिल करने के लिए दर-दर भटकते रहे। इस दौरान उन्हें समाज में व्याप्त कर्मकाण्डों, अंधविश्वासों, कुरीतियों, पाखण्डों और आडम्बरों से रूबरू होने का पूरा मौका मिला। वे व्यथित हो उठे। उन्होंने सन्यासी बनने की राह पकड़ ली और अपना नाम बदलकर ‘शुद्ध चैतन्य ब्रहा्राचारी’ रख लिया। वे सन् 1847 में घूमते-घूमते नर्मदा तट पर स्थित स्वामी पूर्णानंद सरस्वती के आश्रम मंे जा पहुंचे और उनसे 24 वर्ष, 2 माह की आयु में ‘सन्यास-व्रत’ की दीक्षा ले ली। ‘सन्यास-दीक्षा’ लेने के उपरांत उन्हें एक नया नाम दिया गया, ‘दयानंद सरस्वती’।
        अब दयानंद सरस्वती को आश्रम में रहते हुए बड़े-बड़े साधु-सन्तों से अलौकिक ज्ञान प्राप्त करने, वेदों, पुराणों, उपनिषदों और अन्य धार्मिक साहित्यों के गहन अध्ययन करने, अटूट योगाभ्यास करने और योग के महात्म्य को साक्षात् जानने का भरपूर मौका मिला। उन्होंने अपनी योग-साधना के दृष्टिगत विंध्याचल, हरिद्वार, गुजरात, राजस्थान, मथुरा आदि देशभर के अनेक महत्वपूर्ण पवित्र स्थानों की यात्राएं कीं।
        इसी दौरान जब वे कार्तिक शुदी द्वितीया, संवत् 1917, तदनुसार, बुधवार, 4 नवम्बर, सन् 1860 को यम द्वितीया के दिन मथुरा पहुंचे तो उन्हें परम तपस्वी दंडी स्वामी विरजानंद के दर्शन हुए। वे एक परम सिद्ध सन्यासी थे। पूर्ण विद्या का अध्ययन करने के लिए उन्होंने स्वामी जी को अपना गुरू बना लिया। सन् 1860-63 की तीन वर्षीय कालावधि के दौरान दयानंद सरस्वती ने अपने गुरू की छत्रछाया में संस्कृत, वेद, पाणिनीकृत अष्टाध्यायी आदि का गहन अध्ययन पूर्ण किया।
        पूर्ण विद्याध्ययन के बाद दयानंद सरस्वती ने अपने गुरू की पसन्द को देखते हुए ‘गुरू-दक्षिणा’ में आधा सेर लोंग भेंट करनी चाहीं। इसपर स्वामी विरजानंद ने दयानंद सरस्वती से बतौर गुरू-दक्षिणा, कुछ वचन मांगते हुए कहा कि देश का उपकार करों, सत्य शास्त्रों का उद्धार करो, मतमतान्तरों की अविद्या को मिटाओ और वैदिक धर्म का प्रचार करो। तब स्वामी दयानंद ने अपने गुरू के वचनों की आज्ञापालन का संकल्प लिया और गुरू का आशीर्वाद लेकर आश्रम से निकल पड़े। उन्होंने देशभर का भ्रमण और वेदों के ज्ञान का प्रचार-प्रसार करना शुरू कर दिया।
        इसके बाद स्वामी दयानंद सरस्वती ने ही देशभर में सर्वप्रथम स्वराज्य, स्वभाषा, स्वभेष और स्वधर्म की अलख जगाई थी। इसी दौरान देश में ब्रिटिश सरकार का दमनचक्र चल रहा था और देश की जनता स्वतंत्रता की पुकार कर रही थी। ऐसे माहौल में दयानंद सरस्वती ने देश की रक्षा को ‘स्वधर्म’ और सर्वोपरि मानते हुए स्वाधीनता संघर्ष की राह पकड़ी ली। बड़े-बड़े देशभक्त उनसे मार्गदर्शन और आशीर्वाद लेने आने लगे।
        स्वामी दयानंद सरस्वती ने सन् अपै्रल, 1867 में हरिद्वार के कुम्भ मेले में श्रद्धालुओं को अपनी ओजस्वी वाणी और वैदिक ज्ञान से तृप्त किया तो हर कोई उनका भक्त बन गया। सन् 1869 में काशी में मूर्ति पूजा के पाखण्ड के सन्दर्भ में ऐतिहासिक शास्त्रार्थ करके उन्होंने अपने तप, ज्ञान और वाणी की देशभर में तूती बोलने लगी। इसके बाद तो वे जहां भी जाते लोगों का सैलाब उमड़ आता और स्वामी दयानंद सरस्वती के वैदिक ज्ञान से अभिभूत होकर स्वयं को धन्य पाता।
        स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेद-शास्त्रों के आधार पर आध्यात्मिक ज्ञान, योग, हवन, तप और ब्रह्मचर्य की शिक्षा प्रदान की। उन्होंने अलौकिक ज्ञान, समृद्धि और मोक्ष का अचूक मंत्र दिया, ‘वेदों की ओर लौटो’। उन्होंने बताया कि ईश्वर सर्वत्र विद्यमान है। जिस प्रकार तिलों में तेल समाया रहता है, उसी प्रकार भगवान सर्वत्र समाए रहते हैं। आत्मा में ही परमात्मा का निवास है। परमेश्वर ने ही इस संसार (प्रकृति) को बनाया है। उन्होंने ‘मुक्ति’ के रहस्य बताते हुए कहा कि जितने दुःख हैं, उन सबसे छूटकर एक सच्चिदानंदस्वरूप् परमेश्वर को प्राप्त होकर सदा आनंद में रहना और फिर जन्म-मरण आदि दुःखसागर में न गिरना, ‘मुक्ति’ है। ‘मुक्ति’ पाने का मुख्य साधन सत्य का आचरण है।
        स्वामी दयानंद सरस्वती का कहना था कि एक धर्म, एक भाव और एक लक्ष्य बनाए बिना भारत का पूर्ण हित और उन्नति असंभव है। उन्होंने स्त्री शिक्षा और स्त्री-पुरूष समानता पर प्रमुखता से जोर दिया। इसके साथ ही उन्होंने समाज में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अभियान चलाया और देशभर में वैदिक स्कूल खोलने के लिए लोगों को प्रेरित किया। इतिहासकारों के अनुसार पहला वैदिक स्कूल सन् 1869 में फर्रूखाबाद में खोला गया। उसके बाद उनके प्रताप और मार्गदर्शन के चलते ही देश के कोने-कोने में वैदिक स्कूलों और गुरूकुलों की स्थापना हुईं।
        स्वामी दयानंद ने देश में रूढ़ियों, कुरीतियों, आडम्बरों, पाखण्डों आदि से मुक्त एक नए स्वर्णिम समाज की स्थापना के उद्देश्य से 10 अप्रैल, सन् 1875 (चैत्र शुक्ल प्रतिपदा संवत 1932) को गिरगांव मुम्बई व पूना में ‘आर्य समाज’ नामक सुधार आन्दोलन की स्थापना की। 24 जून, 1877 (जेष्ठ सुदी 13 संवत् 1934 व आषाढ़ 12) को संक्राति के दिन लाहौर में ‘आर्य समाज’ की स्थापना हुई, जिसमें आर्य समाज के दस प्रमुख सिद्धान्तों को सूत्रबद्ध किया गया। ये सिद्वान्त आर्य समाज की शिक्षाओं का मूल निष्कर्ष हैं।
        इसके बाद देश के कोने-कोने में आर्य समाज की इकाईयां गठित हुईं और वैदिक धर्म का व्यापाक प्रचार-प्रसार हुआ। देशभर में जाति-पाति, ऊँच-नीच, छूत-अछूत, सती प्रथा, बाल-विवाह, नर-बलि, गौहत्या, धार्मिक संकीर्णता, अंधविश्वास, कुरीति, कुप्रथा आदि हर सामाजिक समस्या के खिलाफ सशक्त जागरूकता अभियान चले और एक नए समाज के निर्माण का मार्ग प्रस्शस्त हुआ। इसके साथ ही आर्य समाज के इस अनंत अभियान ने पं. राम प्रसाद बिस्मिल, लाला लाजपतराय, अशफाक उल्लां खां, दादा भाई नारौजी, स्वामी श्रद्धानंद, भगत फूल सिंह, श्यामा कृष्ण वर्मा, भारी परमांनंद दास, वीर सावरकर, सरदार भगत सिंह, मदन लाल धींगड़ा, लाला हरदयाल, मैडम भीकामा जी, सरदार अजीत सिंह, चौधरी मातूराम आदि न जाने कितनी ही महान राष्ट्रीय शख्सियत पैदा की।
        स्वामी दयानंद सरस्वती ने हिन्दी को आर्यभाषा माना। हालांकि उन्होंने प्रारंभिक पुस्तकें में लिखीं। लेकिन, बाद में उन्होंने हिन्दी को आर्य भाषा का दर्जा देकर लेखन किया। उन्होंने सन् 1874 में हिन्दी में ही अपने कालजयी ग्रन्थ ‘सत्यार्थ-प्रकाश’ की रचना की। वर्ष 1908 में इस ग्रन्थ का अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित किया गया। इसके अलावा उन्होंने हिन्दी में ‘ऋग्वेदादि भाष्य भूमिका’, ‘संस्कार-विधि’, ‘आर्याभिविनय’ आदि अनेक विशिष्ट ग्रन्थों की रचना की। स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’, ‘गोकरूणानिधि’, ‘व्यवाहरभानू’ ‘पंचमहायज्ञविधि’, ‘भ्रमोच्छेदल’, ‘भ्रान्तिनिवारण’ आदि अनेक महान ग्रन्थों की रचना की। विद्वानों के अनुसार, कुल मिलाकर उन्होंने 60 पुस्तकें, 14 संग्रह, 6 वेदांग, अष्टाध्यायी टीका, अनके लेख लिखे। 
        स्वामी दयानंद सरस्वती के तप, योग, साधना, वैदिक प्रचार, समाजोद्धार और ज्ञान का लोहा बड़े-बड़े विद्वानों और समाजसेवियों ने माना। डा. भगवानदास ने उन्हें ‘हिन्दू पुनर्जागरण के मुख्य निर्माता’ की संज्ञा दी तो पट्टाभि सीतारमैया ने ‘राष्ट्र-पितामह’ की उपाधि से अलंकृत किया। सरदार पटेल के अनुसार भारत की स्वतंत्रता की नींव वास्वत में स्वामी दयानंद ने डाली थी। लोकमान्य तिलक ने स्वामी जी को ‘स्वराज्य का प्रथम संदेशवाहक’ कहा तो नेताजी सुभाषचन्द्र बोस ने ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ कहा।
        स्वामी दयानंद जी वर्ष 1883 में महाराजा के निमंत्रण पर जोधपुर पहुंचे। वहां पर उन्होंने महाराजा के महल में नर्तकी को अमर्यादित आचरण में पाया तो उन्होंने उसे अनैतिक व अमर्यादित आचरण छोड़कर आर्य धर्म की पालना का उपदेश दिया तो नर्तकी नाराज हो गई। 25 सितम्बर, 1883 को उसने मानसिक द्वेष के चलते रसाईए के हाथों स्वामी जी के भोजन में विष मिलवा दिया। विष-युक्त भोजन करने के उपरांत स्वामी जी रात्रि को विश्राम के लिए अपने कक्ष में चले गए। विष ने अपना प्रभाव दिखाया और स्वामी जी तड़पने लगे। रसाईये को भयंकर पश्चाताप हुआ और उसने स्वामी जी के चरण पकड़कर अपने अक्षम्य अपराध के लिए क्षमा-याचना की। इस परम सन्यासी ने रसोईये को न केवल क्षमा किया, अपितु धन देकर राज्य से बाहर भेज दिया, ताकि सच का पता लगने पर महाराजा उसे कठोर दण्ड न दे दें। स्वामी जी के जीवन को बचाने के लिए बड़े-बड़े डॉक्टर, वैद एवं हकीम बुलाए गए। लेकिन विष स्वामी जी के पूरे शरीर में फैल चुका था। पापिनी नर्तकी के महापाप के चलते विष की भयंकर पीड़ा में तड़पते हुए अंततः कार्तिक मास, अमावस्या, मंगलवार, विक्रमी संवत् 1940 (31 अक्तूबर, सन् 1883) को दीपावली की संध्या को 59 वर्ष की आयु में यह परम दिव्य आत्मा हमेशा के लिए यह कहकर, ‘‘हे दयामय हे सर्वशक्तिमान परमेश्वर ! तेरी यही इच्छा है। तेरी इच्छा पूर्ण हो’’, परम पिता परमात्मा के चरणों में विलीन हो गई। इस दिव्य परम आत्मा का अलौकिक प्रकाश आज भी विभिन्न रूपों में देश को आलोकित किए हुए है। इस महादिव्य आत्मा को कोटि-कोटि नमन। 
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में शोध सहायक हैं।)

गुरुवार, 3 मार्च 2016

35 बनाम 1 बिरादरी मुहिम के खतरे !

चिन्तन
35 बनाम 1 बिरादरी मुहिम के खतरे !
-राजेश कश्यप

        हरियाणा प्रदेश में हिंसक जाट आन्दोलन के बाद 35 बनाम 1 बिरादरी की मुहिम धीरे-धीरे जोर पकडऩे लगी है। सदियों से छत्तीस बिरादरियों के अटूट बन्धन में बंधा हरियाणा आज बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है। सार्वजनिक और अप्रत्याशित रूप से समाज की 35 बिरादरियां तेजी से लामबन्द हो रही हैं और जाट बिरादरी का राजनीतिक और आर्थिक रूप से बहिष्कार करने का संकल्प एवं शपथ ले रही हैं। पंजाबी एवं व्यापारिक समुदाय सहित सभी बिरादरियां भविष्य में होने वाले हर स्तर के चुनाव में जाट जाति के उम्मीदवारों को वोट न देने की कसम ली जा रही हैं। जिस तरह से 15 से 23 फरवरी, 2016 के दौरान जाट आरक्षण आन्दोलन हिंसक हुआ और जिस तरह से उपद्रवियों ने हैवानियत का नंगा नाच खेला व चुन-चुनकर लोगों को बर्बाद किया, उससे समाज में भयंकर आक्रोश और गुस्सा भरा हुआ है। हालांकि, जाट आन्दोलनकारियों द्वारा बचाव में कहा जा रहा है कि आन्दोलन को हिंसक बनाने व लूटपाट में उनके लोग शामिल नहीं थे और न ही उनके इरादे इस तरह के रहे थे। यदि उनके इरादे लूटपाट के होते तो जाम में फंसे वाहनों को आसानी से लूटा जा सकता था। लेकिन, ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। जाटों का आरोप है कि उनके नाम पर हुई लूटपाट अन्य असामाजिक तत्वों ने की है, जिसकी जांच की जानी चाहिए। लेकिन, इन सब स्पष्टीकरणों का अन्य बिरादरियों पर कोई खास असर पड़ता नहीं दिखाई दे रहा है। ऐसा होना स्वभाविक भी है। अभी हिंसक आन्दोलन के जख्म बिल्कुल ताजा हैं और लोगों के दिलों में दहशत भरी हुई है। समाज में सौहार्द एवं अमन लौटने में काफी समय लगेगा। इस बार परिस्थितियां काफी नाजुक एवं सवेदनशील हो चली हैं। 
        अतीत में अनेक भयंकर परिस्थितियां आईं, साम्प्रदायिक दंगे हुए, आन्दोलन हुए, आगजनी व लूटपाट भी हुई। लेकिन, कभी भी समाज के छत्तीस बिरादरी के तानेबाने पर आंच नहीं आई। इस बार, एक झटके में ही सामाजिक तानाबाना बिखरता दिखाई देने लगा है। नि:सन्देह, यह देश व प्रदेश की राष्ट्रीय एकता, अखण्डता, अस्मिता एवं सामाजिक सद्भावना के लिए सबसे बड़ी चिन्ता, चुनौती और विडम्बना का विषय है। इस विषय पर पूरी गम्भीरता, निष्पक्षता एवं निष्ठा के साथ चिन्तन नहीं किया गया और शीघ्रातिशीघ्र सार्थक, सकारात्मक और रचनात्मक पहल नहीं की गई तो आने वाला भविष्य पूरे देश व समाज के लिए किसी नरक से भी बदत्तर होगा। हमें किसी भी सूरत में 35 बनाम 1 बिरादरी की मुहिम के खतरों से जन-जन को अवगत करवाना होगा और इस मुहिम को रोकने के लिए जन-जन को जोडऩा होगा। यह सब असम्भव नहीं है। समाज के तमाम प्रबुद्ध एवं समाजसेवी लोगों को यह जिम्मेदारी स्वयं आगे बढक़र अपने कंधों पर लेनी होगी। हर उस चुनौती का डटकर मुकाबला करना होगा, जो सामाजिक सौहार्द को बिगाडऩे वाला हो और हर उस खतरे को गहराई से भांपना होगा, जो हमारे सामाजिक तानेबाने को खतरे में डालने वाला हो। उन असामाजिक तत्वों, स्वार्थी लोगों और नकाबपोश संकीर्ण सियासतदारों को सख्त से सख्त सन्देश देना होगा, जो अपनी महत्वाकांक्षाओं व निजि स्वार्थपूर्ति के लिए पूरे समाज की शांति, सौहार्द व सहिष्णुता की बलि चढ़ाने की सुनियोजित साजिश रचने की भयंकर भूल कर रहे हैं। 
        हमारा देश विभिन्न जातियों, धर्मों, संस्कृतियों और रीति-रिवाजों का सुन्दर एवं मनोहारी संगम है। ऐसी अद्भूत, अनूठी एवं अटूट संरचना शायद ही किसी देश की हो। इस देश की स्वतंत्रता, अखण्डता एवं अस्मिता के लिए असंख्य लोगों ने अनंत त्याग, बलिदान एवं कुर्बानियां दी हैं। अपने देश व समाज की आन-बान और शान के लिए हंसते-हंसते फांसी के फंदों को चूमा है और काले पानी की काली कोठरियों तक नारकीय जीवन भोगा है। सरदार भगत सिंह, चन्द्र शेखर आजाद, नेताजी सुभाषचन्द्र बोस, सरदार उधम सिंह, लाला लाजपतराय, खुदी राम बोस, मंगल पाण्डेय, राजा नाहर सिंह, राव तुलाराम, सुखदेव, राजगुरू आदि असंख्य अजर-अमर शहीदों की शहादतों के बाद ही हमें यह स्वतंत्रता, सम्मान और स्वाभिमान भरा जीवन विरासत में मिला है। क्या जातिगत दंगे हम सबके लिए शर्म का विषय नहीं है? क्या इस तरह हिंसक आन्दोलन हमारे शहीदों की कुर्बानियों का भद्दा मजाक नहीं हैं? क्या यह देश की राष्ट्रीय गरिमा एवं गौरव के साथ खिलवाड़ नहीं है? क्या इससे बढक़र अन्य कोई नीचता होगी? क्या हम इतने निकृष्ट व कृतघ्न हो गए हैं कि अपनी निजी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए पूरे देश व समाज की गरिमा एवं गौरव को खतरे में डालने से बाज नहीं आ रहे हैं? 
        जाट आरक्षण आन्दोलन असंवैधानिक नहीं कहा जा सकता। लेकिन, जिस तरह से इसे भडक़ाया गया, हिंसक बनाया गया और जन-जन में दहशत भरने वाला बनाया गया, यह सब असंवैधानिक है। यह सब कैसे हुआ? क्यों हुआ? इसका कौन जिम्मेदार है? इस नुकसान की भरपाई कैसे हो? आरक्षण के मानदण्ड क्या हों? इन सब सवालों का जवाब हर किसी को बड़ी गम्भीरता और निष्पक्षता के साथ सोचने की आवश्यकता है। इन सवालों को नजरअन्दाज करके सामाजिक तानेबाने पर कुठाराघात करना न केवल अशोभनीय है, अपितु अनैतिक, अमर्यादित एवं असंवैधानिक भी है। समाज को संकीर्ण सियासतदारों और निजी महत्वाकांक्षा रखने वाले लोगों की कुटिल चालों की भेंट नहीं चढ़ाया जाना चाहिए। जाति विशेष के नाम पर विद्वेष  भाव पैदा करना पूरे समाज के लिए अति घातक विष के समान है। जातिगत जहर हर जाति व बिरादरी के लिए हर स्तर पर भयंकर नुकसानदायक साबित होगा। हमें यह कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि समाज की छत्तीस बिरादरी एक दूसरे की पूरक है। एक-दूसरे के बिना किसी का कभी भी गुजारा नहीं हो सकता। खेत-खलिहान, तीज-त्यौहार, कामकाज, व्यापार, रहन-सहन आदि सब एक दूसरे के स्नेह, सहयोग और सम्मान पर टिका है। हर जाति व बिरादरी के घर, खेत, स्कूल, संस्थान आदि सब सांझा हैं। भोजन-पानी आदि के संसाधन सांझा हैं। सुख-दु:ख, लाभ-हानि, मेहनत-मजदूरी आदि सब सांझा हैं। मित्रता, रिश्तेदारी, सगे-सबंधी सब सांझा हैं। सडक़, चौराहे, रास्ते सब सांझा हैं। कुछ भी ऐसा तो नहीं है, जो सांझा न हो। एक बार कल्पना करके देखें कि क्या इन सब चीजों का बंटवारा कभी संभव हो सकता है? जब सबकुछ सांझा है और उनका बंटवारा बिल्कुल असंभव है तो फिर ऐसी संकीर्ण सोच एवं दुर्भावनाओं का शर्मनाक प्रदर्शन क्यों? भावावेश में आकर सदियों पुराने सौहार्द एवं भाईचारे पर अपूर्णीय चोट क्यों?  
        यदि संकीर्ण सियासत और स्वार्थ के चलते एक बनाम पैंतीस बिरादरी की मुहिम से सामाजिक विघटन होता है तो जरा कल्पना करके देखिए कि भविष्य में समाज की कैसी विभत्स तस्वीर होगी? एकदम जंगलराज स्थापित होगा। लोग एक-दूसरे के खून के प्यासे होंगे। कानून नाम की कोई चीज नहीं होगी। किसी भी बहन-बेटी की इज्जत सुरक्षित नहीं होगी। सब घर में कैद होकर रह जाएंगे। बल्कि, घर में भी कोई सुरक्षित नहीं होगा। रोजी-रोटी का संकट होगा। खेत-खलिहान, पशु-पालन, व्यापार आदि सब असंभव हो जायेगा। सुकून की सांस लेना मुश्किल हो जायेगा। चहूं ओर अशांति, वैमनस्य और तबाही का मंजर होगा। हर किसी को विस्थापन का शाप झेलना पड़ेगा। क्या इन सब खतरों का किसी को तनिक भी अहसास है?
        देश व समाज में उतार-चढ़ाव और चिंता एवं चुनौतियां आनी स्वभाविक हैं। विकट समस्याओं और चुनौतियों से निपटने के लिए राष्ट्रीयता, सामाजिकता और उदारता के साथ मानस-मन्थन होना चाहिए। देश व समाज की विघटनकारी शक्तियों को पहचानने व उनसे निबटने की क्षमता व विवेकशीलता हर किसी में होनी चाहिए। अफवाह, खौफ, फरेब, असहिष्णुता के चक्रव्युह को तोडऩे के लिए सामूहिक सोच विकसित करनी होगी। सबको अपना विवेक जगाना होगा। सामाजिक सौहार्द और भातृभाव को हर हालत में कायम रखने का संकल्प लेना होगा। आपसी स्नेह, सहयोग एवं परोपकार की मानवीय पहचान को बनाये रखना होगा। प्रदेश सरकार की ‘हरियाणा एक-हरियाणवी एक’ की नीति को सफल बनाने का संकल्प लेना होगा। हरियाणा का अमन-चैन व सामाजिक सौहार्द जल्द से जल्द पुन: स्थापित करने के लिए जन-जन को अपना समुचित योगदान सुनिश्चित करना होगा। यदि यह सब पूरी ईमानदारी, निष्ठा एवं संकल्प के साथ किया जाये तो ऐसी कोई भी ऐसी ताकत नहीं है, जो हमारे सामाजिक तानेबाने को तनिक भी नुकसान पहुंचा सके।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार एवं समीक्षक हैं।)