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मंगलवार, 31 मार्च 2015

दो नए 'भारत-रत्न' : संक्षिप्त परिचय

विशेष

दो नए 'भारत-रत्न' : संक्षिप्त परिचय
-राजेश कश्यप

        देश के राष्ट्रपति महामहिम प्रणव मुखर्जी ने श्री अटल बिहारी वाजपेयी और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी को देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत-रत्न' से अंलंकृत किया है। 'भारत-रत्न' के नाम पर सरकार और विपक्ष के बीच खींचतान जबरदस्त राजनीति देखने को मिलती रहती है। लेकिन, पहली बार इन दोनों महान शख्यितों को 'भारत-रत्न' दिये जाने पर सर्वत्र स्वागत किया गया है। स्वर सामाज्ञी लता मंगेशकर ने तो श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सन्दर्भ में अपनी भावनाएं प्रकट करते हुए कहा कि यह सम्मान तो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। ऐसा हो भी सकता था। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब भी उन्हें 'भारत-रत्न' देने की मांग ने जोर पकड़ा था। लेकिन, तब वाजपेयी जी ने इन सब मांगों को यह कहकर दरकिनार कर दिया था कि मैं स्वयं को ही 'भारत-रत्न' कैसे दे दूं? अपनी सरकार में स्वयं ही को 'भारत-रत्न' देना अटल बिहारी वाजपेयी को बिलकुल नागवारा था। यदि मैं इसके लायक लगा तो कोई दूसरी सरकार 'भारत-रत्न' दे देगी। दोनों महान शख्सियतों को उनके जन्मदिवस 25 दिसम्बर को  'भारत-रत्न' दिए जाने की घोषणा होते ही देशभर में खुशी की लहर दौड़ गई। आईये] इन दोनों महान हस्तियों के अनूठे एवं आदर्श जीवन से रूबरू होते हैं।



'स्टेट्समैन' श्री अटल बिहारी वाजपेयी
        उच्चकोटि के राजनेता, कवि, विचारक, पत्रकार, वक्ता श्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर, 1924 को ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी के घर श्रीमती कृष्णा देवी की कोख से हुआ। उनके तीन भाई अवध बिहारी, सदा बिहारी एवं पे्रम बिहारी और तीन बहनें विमला, कमला एवं उर्मिला हुईं। उस समय शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि बालक अटल बिहारी आगे चलकर 'भारत-रत्न' की उपाधि से अलंकृत किया जायेगा। उनके पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी संस्कृत के बड़े विद्वान और पेशे से शिक्षक थे। वे हिन्दी एवं ब्रज भाषा के एक अच्छे कवि भी थे और उनकी एक रचना प्रार्थना के रूप में ग्वालियर के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। पिता के कवि गुण नन्हे बालक अटल में भी देखने को मिले। 
        अटल बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उनकीं प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर में हुई। उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज (आज लक्ष्मीबाई कॉलेज) से स्नातक (बी.ए.) की शिक्षा उत्तीर्ण की। वे कॉलेज में छात्र संघ के मंत्री एवं उपाध्यक्ष भी बने। अटल छात्रजीवन में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ जुड़ गए। उन्होंने एक स्वयंसेवक के रूप में अथक एवं असीम सेवा की और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया। अटल राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बढ़चढक़र भाग लेते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गए 'अंग्रेजो भारत छोड़ोÓ अभियान में भी भाग लिया था और इसके लिए उन्हें जेल में भी जाना पड़ा था। वे उस समय नाबालिग थे। इसी वजह से उन्हें आगरा जेल की बच्चा-बैरक में रखा गया था और चौबीस दिन के बाद उन्हें रिहा किया गया था।
        अटल ने कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की डिग्री प्रथम श्रेणी में हासिल की। इसके बाद उन्होंने कानपुर में रहते हुए ही एल.एल.बी. की शिक्षा प्रारम्भ की। लेकिन, कुछ समय के बाद वे एल.एल.बी. की शिक्षा बीच में ही छोडक़र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सेवा में पूर्णत: समर्पित हो गए। इसके साथ ही उन्होंने पंडित दीनदयाल के निर्देशन में राजनीति का पाठ भी पढऩा शुरू किया।  उन्होंने एक उत्कृट पत्रकार के रूप में 'राष्ट्रधर्म', 'पाँचजन्य', 'वीर-अर्जुन' आदि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादक के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं। वे वर्ष 1951 में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने। संगठन में उनकीं बहुमुखी प्रतिभा का हर कोई कायल हो गया। उन्हें चुनावों में उतारा गया। भारतीय जनसंघ ने उन्हें वर्ष 1957 के चुनावों में तीन सीटों पर अपना उम्मीदवार बनाया, जिनमें से बलरामपुर सीट को अटल बिहारी वाजपेयी जीतने में कामयाब हो गए। इसके बाद तो उनका संसदीय सफरनामा ऐसा चला कि सब देखते रह गए। 
        अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जीवन में कई बुलन्दियों को छुआ। वे दस बार लोकसभा सांसद और दो बार राज्यसभा सांसद चुने गए। वे लोकसभा के लिए वर्ष 1957 व वर्ष 1961 में बलरामपुर से, वर्ष 1971 में ग्वालियर से, वर्ष 1977 व वर्ष 1980 में नई दिल्ली से, वर्ष 1991 में विदिशा से, वर्ष 1996 में गाँधीनगर से और वर्ष 1998, वर्ष 1999 व वर्ष 2004 में लखनऊ से चुने गए। उन्होंने लोकसभा में कुल मिलाकर चार राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया। वे दो बार वर्ष 1962 एवं वर्ष 1986 में राज्यसभा के लिए भी चुने गए। इसी दौरान वे वर्ष 1968 से वर्ष 1973 तक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी बने। 
        अटल बिहारी वाजपेयी देश के तीन बार प्रधानमंत्री बने। पहली बार वे 16 मई, 1996 को प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत न होने के कारण उन्हें मात्र 13 दिन बाद ही 31 मई, 1996 को त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद वे विपक्ष के नेता चुने गए। अटल बिहारी वाजपेयी 19 मार्च, 1998 को दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने और 13 माह बाद गठबन्धन दल सहयोगी एआईएडीएमके द्वारा समर्थन वापिस लेने के कारण 12 अक्तूबर, 1999 को सरकार गिर गई। इसके बाद फिर आम चुनाव हुए और एनडीए पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौटा। तीसरी बार फिर से एनडीए ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति अपना विश्वास जताया और उन्हें प्रधानमंत्री चुन लिया गया। इस बार वे पूरे पाँच वर्ष 13 मई, 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे। 
        अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल के दौरान देश ने कई ऐतिहासिक उपलब्धियाँ हासिल कीं। उनके नेतृत्व में 11 एवं 13 मई, 1998 के पोखरण में पाँच भूमिगत परमाण परीक्षण करने के बाद भारत विश्व की परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की श्रेणी में शामिल हुआ। 19 फरवरी, 1999 को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 'सदा-ए-सरहद' नामक बस सेवा दिल्ली-लाहौर के बीच शुरू की और वे स्वयं इस बस में सवार होकर पाकिस्तान पहुँचे। वर्ष 1999 की 'कारगिल विजय' भी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रमुख उपलब्धियों में से एक रही। अटल बिहारी वाजपेयी देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज हुए। वे पहले ऐसे विदेश मंत्री के रूप में दर्ज हुए, जिन्होंने वर्ष 1977 में यूएनओ में पहली बार हिन्दी में अपना भाषण दिया। उन्हें पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद देश का दूसरा 'पोलिटिकल स्टेट्समैन' माना गया। उनकीं साहित्यिक रचनाओं ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी अनूठी नेतृत्व कौशलता का परिचय देते हुए 24 राजनीतिक दलों को संगठित करके 81 मंत्रियों के साथ सरकार चलाकर देश की राजनीति में एक अनूठा अध्याय जोड़ा।
        वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो पार्टी के कई नेताओं ने उन्हें 'भारत-रत्न' से नवाजे जाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस प्रस्ताव को सिरे से ही नकार दिया। उन्होंने कहा कि ये उचित नहीं लगता कि अपनी सरकार में खुद को ही सम्मानित किया जाए। इसके बाद कुछ मंत्रियों ने योजना बनाई कि जब वाजपेयी जी विदेशी दौरे पर हों, तब उन्हें 'भारत-रत्न' देने की घोषणा कर दी जाये। लेकिन, इस योजना की भनक अटल जी को लग गई और इस पर वे बेहद सख्ती से पेश आए। उनके तेवरों को देखते हुए फिर किसी ने इस तरह की कोशिश करने का साहस नहीं किया। हालांकि, इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी को कई विशिष्ट सम्मानों से नवाजा जा चुका था। वर्ष 1992 में उन्हें 'पदम विभूषण' से नवाजा गया था। वर्ष 1993 में कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें 'डी-लिट्' की उपाधि से विभूषित किया था। वर्ष 1994 में उन्हें 'श्रेष्ठ सांसद' एवं 'लोकमान्य तिलक पुरस्कार' से अलंकृत किया गया था।  इसके साथ ही उन्हें 'भारत-रत्न गोविन्द बल्लभपन्त पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था। 

'महामना' पंडित मदन मोहन मालवीय
        'महामना', 'हिन्दी के भगीरथ', 'युगपुरूष' आदि अनेक उपनामों से विख्यात पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1801 को इलाहाबाद में बैजनाथ मालवीय के घर श्रीमती भूना देवी की कोख से हुआ। उनके पिता संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वान थे और भागवत-कथा के विशिष्ट वाचक थे। वे अपने पिता की सात संतानों में से पाँचवीं संतान थे। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता। वे बचपन से महामेधा के धनी थे। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्ननातक (बी.ए.) की शिक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद के एक स्कूल में अध्यापक के रूप में अपने कैरियर की शुरूआत की। मात्र 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह मिर्जापुर की सुशील कन्या कुन्दन देवी के साथ हो गया। उन्होंने वर्ष 1991 में एलएलबी की डिग्री हासिल की और उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। उन्होंने राष्ट्रसेवा के लिए वर्ष 1913 में ही वकालत छोड़ दी। हालांकि पंडित मदन मोहन मालवीय वर्ष 1886 से ही कांगे्रस से जुड़ गए थे। 
        इस वर्ष के वार्षिक अधिवेशन में उनका सम्बोधन बेहद प्रभावशाली रहा। कलकता में ए.ओ. ह्यूम की अध्यक्षता में हुए अधिवेशन के बाद ए.ओ. ह्यूम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि 'युवा मदनमोहन मालवीय ने अधिवेशन में अपनी प्रखरता की छाप छोड़ी।' इससे प्रभावित होकर कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह ने उन्हें अपने नव प्रकाशित समाचार पत्र साप्तिाहिक हिन्दुस्तान का सम्पादक बना दिया। मालवीय जी ने अढ़ाई वर्ष तक बतौर सम्पादक अपनी सेवाएं दीं। इसके अलावा उन्होंने इलाहाबाद से अंग्रेजी समाचार पत्र 'दि लीडर' का प्रकाशन शुरू किया। आगे चलकर वर्ष 1909 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के अध्यक्ष चुन लिये गए। इस पद पर वे 1918 तक रहे। इसके बाद वे वर्ष 1930 और वर्ष 1932 में भी भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के अध्यक्ष चुने गए। इस अवधि के दौरान उन्होंने राष्ट्रहित में असीम एवं उल्लेखनीय सेवाएं दीं। उनकीं जीवनशैली और गुणों से प्रभावित होकर महात्मा गाँधी ने उन्हें 'महामना' की उपाधि से सम्बोधित किया। 
        पंडित मदन मोहन मालवीय वर्ष 1903 से वर्ष 1918 तक प्रांतीय विधायी परिषद के सदस्य रहे। वे वर्ष 1910 से वर्ष वर्ष 1920 के दौरान केन्द्रीय परिषद के सदस्य भी रहे। मालवीय जी ने वर्ष 1924 से वर्ष 1930 तक लोकसभा के सदस्य के रूप में भी काम किया। उन्होंने वर्ष 1931 में दूसरे राऊण्ड टेबल कांफे्रस में भाग लिया। उन्होंने वर्ष 1937 में सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया।
        जब 'चौरीचौरा' केस में 177 स्वतंत्रता सेनानियों को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई तो पंडित मदन मोहन मालवीय का खून खौल उठा। उन्होंने इसके विरूद्ध अदालत में अपनी वकालत का अचूक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और 156 स्वतंत्रता सेनानियों को बरी करवाकर दम लिया। उन्होंने वर्ष 1911 में एनी बेसेंट के साथ मिलकर वाराणासी में 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' की स्थापना का अटूट संकल्प लिया। जब तक यह विश्वविद्यालय बनकर तैयार नहीं हो गया, तब तक पंडित मदन मोहन मालवीय ने चैन की सांस नहीं ली। उन्होंने इसके लिए भारी मात्रा में चन्दा जुटाया और विश्वविद्यालय के निर्माण में महत्ती भूमिका निभाई। इससे पूर्व उन्होंने वर्ष 1909 में 'स्काऊट आन्दोलन' की नींव भी रखी। देशभर में 'सत्यमेव जयते' के नारे का उद्घोष सर्वप्रथम मालवीय जी ने ही किया था। इसके साथ ही हरिद्वार में 'हर की पौड़ी' में गंगा जी की सांध्य आरती का आगाज करने का श्रेय भी पंडित मदन मोहन मालवीय जी को ही जाता है। जब अंगे्रजों ने गंगा स्नान पर प्रतिबंध लगाया तो इसके विरूद्ध मालवीय ने डटकर संघर्ष लिया और जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटाया गया, उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं हटाए। 
          पंडित मदन मोहन मालवीय जी वर्ष 1912 से वर्ष 1926 तक सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य रहे। उन्होंने असहयोग आन्दोलन और खिलाफत आन्दोलन में अग्रणीय भूमिका निभाई। उन्होंने वर्ष 1928 में लाला लाजपत राय और पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ साईमन कमीशन के विरूद्ध देशव्यापी प्रदर्शनों का बखूबी नेतृत्व किया। वे राष्ट्रीय एकता की प्रतिमूर्ति बनकर उभरे। एक बार एनी बेसेन्ट ने मालवीय जी की उत्कृष्ट शैली से प्रभावित होकर कहा था कि ''मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच केवल मालवीय जी ही भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हैं।'' इसी तरह राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने उनके बारे में कहा था कि ''मैं तो मालवीय जी महाराज का पुजारी हूँ। यौवनकाल से प्रारंभ होकर आज तक उनकी देशभक्ति का प्रवाह अविछिन्न चलता आया है। मैं उनको सर्वश्रेष्ठ हिन्दू मानता हूँ। यद्यपि आचार में बड़े ही नियमित हैं, किन्तु विचार में बड़े उदार हैं। वे किसी से द्वेष कर ही नहीं सकते, उनके विशाल हृदय में शत्रु भी समा सकते हैं।'' इस राष्ट्र संत एवं युगपुरूष का देहावसान काशी में 12 नवम्बर, 1946 को हो गया। 
ये हैं हमारे 'भारत-रत्न' 
1. सी.राजगोपालाचारी (वर्ष 1954)
2. सी.वी. रमन (वर्ष 1954)
3. एस. राधाकृष्णनन (वर्ष 1954)
4. भगवान दास (वर्ष 1955)
5. एम. विश्वेश्वरैया (वर्ष 1955)
6. पंडित जवाहर लाल नेहरू (वर्ष 1955)
7. गोविन्द वल्लभ पन्त (वर्ष 1957)
8. डी.के. कर्वे (वर्ष 1958)
9. बी.सी. रॉय (वर्ष 1961)
10. पुरूषोत्तम दास टंडन (वर्ष 1961)
11. राजेन्द्र प्रसाद (वर्ष 1962)
12. जाकिर हुसैन (वर्ष 1963)
13. पी.डी. कणे (वर्ष 1963)
14. लाल बहादुर शास्त्री (वर्ष 1966)
15. इंदिरा गांधी (वर्ष 1971)
16. वी.वी. गिरी (वर्ष 1975)
17. के. कामराज (वर्ष 1976)
18. मदर टेरेसा (वर्ष 1980)
19. विनोबा भावे (वर्ष 1983)
20. खान अब्दूल खफ्फार खान (वर्ष 1987)
21. एम.जी. रामचन्द्रन (वर्ष 1988)
22. बी.आर. अम्बेडकर (वर्ष 1990)
23. नेल्सन मण्डेला (वर्ष 1990)
24. राजीव गाँधी (वर्ष 1991)
25. वल्लभ भाई पटेल (वर्ष 1991)
26. मोरारजी देसाई (वर्ष 1991)
27. अबुल कलाम आजाद (वर्ष 1992)
28. जे.आर.डी. टाटा (वर्ष 1992)
29. सत्यजीत रे (वर्ष 1992)
30. गुलजारी लाल नंदा (वर्ष 1997)
31. अरूणा आसफ अली (वर्ष 1997)
32. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (वर्ष 1997)
33. एम.एस. सुब्बलक्ष्मी (वर्ष 1998)
34. चिदम्बरम सुब्रमण्यम (वर्ष 1998)
35. जय प्रकाश नारायण (वर्ष 1999)
36. पंडित रवि शंकर (वर्ष 1999)
37. अमृत्य सेन (वर्ष 1999)
38. गोपीनाथ बारदोलोई (वर्ष 1999)
39. लता मंगेशकर (वर्ष 2001)
40. बिस्मिल्ला खान (वर्ष 2001)
41. भीमसेन जोशी (वर्ष 2009)
42. सचिन तेन्दुलकर (वर्ष 2013)
43. प्रो. सी.एन.आर. राव (वर्ष 2013)
44. अटल बिहारी वाजपेयी (वर्ष 2014)
45. पंडित मदन मोहन मालवीय (वर्ष 2014)
'भारत-रत्न' : प्रमुख तथ्य
-भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान
-वर्ष 1954 से प्रारंभ।
-एक पीपल के पत्ते के आकार में।
- अब तक 12 को मरणोपरान्त प्रदान। 
-सबसे कम उम्र 40 वर्ष में सचिन तेन्दुलकर को प्रदान। वे भारत-रत्न पाने पहले खिलाड़ी बने।

गुरुवार, 26 मार्च 2015

धन्यवाद एवं आभार विजीटर्स

  
धन्यवाद एवं आभार 
-राजेश कश्यप
    आदरणीय मित्रो! मुझे यह बताते हुए अति हर्ष एवं रोमांच का अनुभव हो रहा है कि अल्प समय में ही अपने ब्लॉग के विजीटर्स की संख्या 9000 और कुल पृष्ठ दृश्य संख्या 30,000 को पार कर गई है। मैं तहेदिल से अपने सुधी पाठक मित्रों को उनके असीम सहयोग के लिए तहेदिल से धन्यवाद देता हूँ और सादर आभार प्रकट करता हूँ। मैं आपके लिए निकट भविष्य में कई रचनात्मक लेख एवं जानकारियाँ लेकर आ रहा हूँ। कृपा करके अपने इस ब्लॉग को विजिट करते रहियेगा और अपना असीम सहयोग एवं मार्गदर्शन देते रहियेगा। आप सबका पुनः धन्यवाद एवं आभार प्रकट करता हूँ। 
-राजेश कश्यप

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बुधवार, 25 मार्च 2015

कब कारगर होंगे गोवंश हत्या प्रतिबंध?

यक्ष प्रश्र 
कब कारगर होंगे गोवंश हत्या प्रतिबंध?
-राजेश कश्यप
गौ धन

            हरियाणा सरकार ने प्रदेश में 'गोसंरक्षण एवं गोसंवद्र्धन विधेयक' पारित करके गोवंश की हत्या को गैर-जमानती अपराध घोषित कर दिया है। इसके साथ ही, अब हरियाणा में गोहत्या करना, विकलांग करना, हत्या करवाना अथवा हत्या के लिए पेश करना भी अपराध की श्रेणी में शामिल होगा और प्रदेश में गोमांस की बिक्री पर पूर्णत: पाबन्दी लागू होगी।  राज्यपाल के हस्ताक्षर के साथ ही यह कानून अमल में आ जायेगा। इसके बाद अपराध साबित होने पर दस साल तक कैद और एक लाख रूपये तक के जुर्माने का प्रावधान लागू हो जायेगा। दूसरी तरफ, महाराष्ट्र सरकार ने भी अंतत: बीस साल बाद नया कानून लागू करके गोवंश हत्या पर पूर्णत: प्रतिबंध लगा दिया है। हालांकि, महाराष्ट्र में वर्ष 1976 से ही गोहत्या गैर-कानूनी है, लेकिन, अब नए कानून के बाद अब गाय के अलावा बैल-बछड़े की हत्या भी गैर-कानूनी बना दी गई है। इसके साथ ही नए कानून के तहत अब गोमांस रखना भी अपराध माना जायेगा। इससे गोमांस की बिक्री-खरीद, खाने, ले जाने, आयात-निर्यात के अलावा गायों को राज्य से बाहर ले जाने पर भी पूरी तरह पाबन्द लागू हो गई है। 
          हरियाणा के पशुपालन एवं डेयरी उद्योग मंत्री ओमप्रकाश धनखड़ ने दावा किया है कि हरियाणा का कानून दूसरे राज्यों से अधिक सख्त है, क्योंकि विधेयक का ड्राफ्ट तैयार करने से पहले सरकार ने कई राज्यों में बनाए गए कानूनों का अध्ययन किया है। प्रदेश सरकार ने स्पष्ट किया है कि इस विधेयक के पारित होने के बाद पंजाब गोवध प्रतिषेध अधिनियम-1955 निरस्त हो गया है। सरकार ने कहा कि नया विधेयक पास हो गया है, लेकिन अभी नये नियम नहीं बनाये गए हैं। जब तक नियम नहीं बन जाते, हरियाणा गोवध प्रतिषेध अधिनियम-1972 के तहत बनाए गए नियम लागू होंगे। हरियाणा सरकार के विधेयक में 'गाय' शब्द के तहत गाय के अलावा सांड, बैल, बछिया-बछड़ा, निशक्त बीमार व बांझ गाय को भी शामिल किया गया है। इसमें गाय को विकलांग करना, शारीरिक क्षति व यातना पहुँचाना भी अपराध होगा। मरी गाय की खाल उतारने के लिए लाइसेंस अनिवार्य होगा। दुर्घटना और आत्म-रक्षा की स्थिति गोवध की श्रेणी में शामिल नहीं होगी। हरियाणा में गोवध या इसकी कोशिश करने पर तीन साल से दस साल तक की कठोर कैद और तीस हजार से एक लाख रूपये तक के जुर्माने का प्रावधान बनाया गया है। 
          अब हरियाणा व महाराष्ट्र सहित देश के 24 राज्यों में किसी न किसी रूप में गोहत्या और गोमांस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। केवल पाँच राज्यों बिहार, केरल, पश्चिम बंगाल, मेघालय और नागालैण्ड में गोहत्या पर पाबन्दी नहीं है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि लगभग सारे देश में गोहत्या और गोमांस पर प्रतिबंध लग चुका है, इसके बावजूद इन सब कुकत्र्यों को धड़ल्ले से अंजाम दिया जा रहा है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, देश में 62 मान्यता प्राप्त बूचडख़ाने हैं। इनमें सबसे ज्यादा 38 अकेले उत्तर प्रदेश में चल रहे हैं। इनके अलावा अवैध रूप से चलने वाले बूचडख़ानों की संख्या भी बहुत बड़ी है। एक अनुमान के अनुसार उत्तर प्रदेश में साथ लगते प्रदेशों पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और अन्य राज्यों से प्रतिदिन 400 से अधिक गाय बूचडख़ानों में कटने के लिए पहुँचती हैं। इससे बढक़र 500 से अधिक गाय प्रतिदिन झारखण्ड के 10 जिलों के 30 बूचडख़ानों में अवैध रूप से कत्ल हो रही हैं। बिहार में गोहत्या तो प्रतिबंधित नहीं है, लेकिन अवैध बूचडख़ानों में 500 से अधिक गाय प्रतिदिन काटी जा रही हैं। इनके अलावा महाराष्ट्र, पंजाब, दिल्ली आदि 19 प्रतिबंधित प्रदेशों में न केवल गोहत्या हो रही है, अपितु गोमांस की बिक्री भी गैर-कानूनी रूप से बदस्तूर जारी है। एक दावे के अनुसार तो महाराष्ट्र में प्रतिदिन 1000 गायों का कत्ल होता है। नए कानून के बनने से पहले प्रदेश में प्रतिदिन 9 लाख किलोग्राम 'बीफ' की बिक्री होती थी, जिसमें भैंस का मात्र 20 फीसदी और शेष गौवंश का शामिल होता था। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, गुजरात और राजस्थान में गोहत्या के मामले तो सामने नहीं आते हैं, लेकिन, गो-तस्करी बड़े पैमाने पर हो रही है। है। लगभग सभी प्रतिबंधित राज्यों में प्रतिवर्ष लाखों गाय, बैल, बछड़े तस्करी के तहत पकड़े जाते हैं।
          सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि देश के 24 राज्यों में गोहत्या पर प्रतिबंध के बावजूद प्रतिदिन 61 लाख किलोग्राम 'बीफ' की बिक्री हो रही है। केवल इतना ही नहीं, गैर-कानूनी होने के बावजूद गोमांस 20-25 रूपये प्रति प्लेट आसानी से बिक रहा है। एक राष्ट्रीय पत्रिका में छपी रिपोर्ट में हरियाणा के सामाजिक कार्यकर्ता के हवाले से सचित्र प्रकाशित गया है कि 'गोमांस सस्ता, पौष्टिक और स्वादिष्ट होता है। प्रतिबंध लगने की वजह से चोरी-छिपे इसका कारोबार चल रहा है।' गोमांस को सामान्य होटलों में 'सफेदा' और पांच सितारा होटलों में 'बीफ टेंडरलॉयन', 'फिलेट मिगनॉन' आदि डिश कोड के जरिए सहजता से परोसा जा रहा है। यदि देश में पिछले चार साल के दौरान 'बीफ' यानी गौवंश और भैंस के मीट की खपत के आंकड़ों का आकलन किया जाये तो रौंगटे खड़े हो जाते हैं। 
प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, भारत में गत चार वर्ष में 'बीफ' की खपत में लगभग 10 फीसदी की बढ़ौतरी हुई है। वर्ष 2011 में जहां 'बीफ' की खपत 20.4 लाख टन थी, वहीं यह वर्ष 2014 में बढक़र 22.5 लाख टन दर्ज की गई। विश्व में 'बीफ' निर्यात के मामले में भारत का दूसरा स्थान है। भारत ने पिछले वर्ष 19.5 लाख टन 'बीफ' का निर्यात किया और गत छह माह के दौरान निर्यात में 15.58 प्रतिशत की बढ़ौतरी हुई। 'बीफ' की बढ़ती खपत के कारण देश में गोवंश की संख्या में वर्ष 2007 के मुकाबले वर्ष 2012 में 4.1 प्रतिशत की कमी दर्ज हुई। इसमें देशी गोवंश की संख्या 9 प्रतिशत कमी पाई गई। 'बीफ' की बढ़ती खपत ने देश के दूध उत्पादन को बुरी तरह प्रभावित किया है। प्राप्त आंकड़ों के अनुसार देश में दूधारू पशुओं की हत्या के कारण दूध उत्पादन में 80-85 लाख टन दूध की क्षति प्रतिदिन दर्ज हो रही है, जिसमें 30-35 प्रतिशत मात्रा गाय का दूध शामिल है।  
          देशभर में गोहत्या पर कड़ा वाद-प्रतिवाद चल रहा है। एक तरफ जहां देश की अधिकतर राज्य सरकारें गोहत्या और गोमांस पर प्रतिबंध के साथ-साथ संज्ञेय अपराध की श्रेणी में शामिल कर चुके हैं, वहीं दूसरी तरफ ऐसे लोगों की मुहिम भी चल रही है, जो गोमांस पर प्रतिबंध को भोजन के अधिकार का हनन एवं साम्प्रदायिक फासीवाद करार दिया जा रहा है। एक राष्ट्रीय पत्रिका ने अपने ताजा अंक की 'आवरण कथा' में पंजाब के एक सामाजिक कार्यकर्ता के हवाले से लिखा है कि 'खानपान निजी मामला है। दु:ख है कि सरकारें खाने में धर्म को डाल रहे हैं। गोमांस खाना या न खाना हिन्दू होने की परिभाषा नहीं हो सकती।' इसके अलावा तमिलनाडु की एक पोषाहार विशेषज्ञ के मतानुसार कहा गया है कि 'गोमांस खाना एक सांस्कृतिक चुनाव और अधिकांश दलितों की संस्कृति का हिस्सा हैं। इससे गरीबों को सस्ता प्रोटीन मिलता है।' इनके साथ ही 'पवित्र गाय का मिथक' पुस्तक के रचनाकार डी.एन. झा के साक्षात्कार के जरिए गोवध एवं गोमांस पर प्रतिबंध को अनुचित बताया गया है। 


          यहाँ इन सब प्रतिवादों का जिक्र करने का एकमात्र उद्देश्य यही है कि जो लोग भ्रमवश इन प्रतिबंधों को अनुचित मान रहे हैं और गोवंश को केवल धर्म के चश्में से ही देख रहे हैं, उन लोगों के भ्रम को तर्कों के आधार पर दूर करना बेहद जरूरी है। देश में गौवंश की उपयोगिता को लेकर व्यापक पैमाने पर जाकता अभियान चलाये जाने की आवश्यकता है। गोवंश धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हर रूप में विशेष महत्ता रखता है। गाय का दूध हो अथवा मूत्र, गाय का गोबर हो या फिर उसकी त्वचा का स्पर्श, उसकी हर चीज अति गुणकारी और अमूल्य है। गाय के अलावा सांड, बैल और बछड़े कृषि अर्थव्यगरूवस्था में अमूल्य योगदान रखते हैं। गोवंश धार्मिक, आर्थिक, वैज्ञानिक आदि हर क्षेत्र में सर्वोत्तम स्थान रखता है। इन पहलूओं से जन-जन को अवगत करवाये जाने की सख्त आवश्यकता है। गोवंश देश की अमूल्य धरोहर है। इसका संरक्षण एवं संवद्र्धन करना प्रत्येक देशवासी का नैतिक दायित्व बनता है। यदि देशवासियों में इस दायित्वबोध को आंकड़ों, तथ्यों और तर्कों के आधार पर जगाने की राष्ट्रव्यापी मुहिम युद्ध स्तर पर चलाई जाये तो कहने की आवश्यकता नहीं कि परिणाम एकदम सार्थक एवं सकारात्मक हासिल होंगे। 

मंगलवार, 24 मार्च 2015

लाला मातूराम हलवाई: संक्षिप्त जीवन परिचय

लाला मातूराम हलवाई: संक्षिप्त जीवन परिचय
-राजेश कश्यप 
स्व. लाला मातूराम जी

‘‘गोल घेराली पीपली, डाल्है-डाल्है रस! बताना हो तै बता दे, ना तै रपिए दे दे दस!!’’ ये हरियाणा प्रदेश की एक प्रसिद्ध सांस्कृतिक पहेली है, जिसे हरियाणावासी बहुत पुराने समय से बुझाते चले आ रहे हैं। इसका जवाब है ‘‘जलेबी’’। ‘जलेबी’ वो रसीली चीज है, जिसका नाम जुबान पर आते ही मुँह में पानी भर आता है और यदि ये जलेबी गोहाना के लाला मातूराम हलवाई की हो तो क्या कहने! मुँह में आए पानी को लार बनकर टपकने में तनिक भी देर नहीं लगती!! ऐसा सिर्फ हमारे हरियाणा प्रदेश के लोगों के साथ ही नहीं होता है। यह सब तो पूरे भारत देश के लोगों के साथ-साथ, दुनिया के सभी बड़े देशों के लोगों व बड़ी-बड़ी हस्तियों के साथ भी होता है। तभी तो जो विदेशी भारत आते हैं या फिर भारत के किसी भी राज्य के निवासी हरियाणा प्रदेश से होकर गुजरते हैं तो वो जिला सोनीपत (हरियाणा) के गोहाना शहर में बनी लाला मातूराम की जलेबी बतौर उपहार एवं यादगार स्मृति के रूप में ले जाने का मोह नहीं त्याग पाते। यह कोई अतिश्योक्ति नहीं, बिल्कुल शत-प्रतिशत सच है।

गोहाना (सोनीपत) की जलेबी ने अपनी अनूठी विशिष्टताओं के दम पर विश्व में जो ख्याति अर्जित की है और हरियाणा को वैश्विक स्तर पर जो पहचान दिलवाई है, उसका श्रेय स्व. लाला मातूराम जी की ‘जलेबी’ बनाने की सिद्धहस्त कला, अटूट मेहनत, कर्मठता और जूनून को जाता है। लाला मातूराम मूलरूप से सोनीपत जिले के गाँव लाठ जौली के निवासी थे। हालांकि उनका पैतृक व्यवसाय कृषि था, लेकिन वे हलवाई का काम करते थे। वे अधिक शिक्षित नहीं थे, लेकिन उर्दू में पढ़ाई-लिखाई और मुनीमी काम आसानी से कर लेते थे। उनके पाँच लड़के राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता, आनंद गुप्ता, ओम प्रकाश गुप्ता, रमेश गुप्ता और विजय गुप्ता के अलावा दो लड़कियां वीना गुप्ता और प्रेववती गुप्ता थे। लाला मातूराम हलवाई के रूप में दूर-दूर तक मशहूर थे। हर कोई शादी, समारोह में लाला मातूराम हलवाई से ही मिठाईयां बनवाता था। उनके मिठाई बनाने का जादूई हुनर लोगों के सिर चढ़कर बोलता था। लोग लाला मातूराम की बनाई हुई मिठाईयों के कायल हो गये थे। उनके द्वारा बनाई हुई जलेबी का स्वाद लोगों को इस कद्र भाया कि दूर-दराज के क्षेत्रों में ‘लाला मातूराम की जलेबी’ के चर्चे शुरू गए।

इसी बीच वर्ष 1955 में लाला मातूराम गाँव से निकलकर गोहाना कस्बे में आ गए। उस समय गोहाना कस्बा रोहतक जिले में आता था। यहाँ आकर उन्होंने अपने हलवाई व्यवसाय को जारी रखा। जलेबी के प्रति लोगों के बढ़ते रूझान के चलते उन्होंने वर्ष 1955 में गोहाना कस्बे की पुरानी मण्डी में एक लकड़ी का खोखा तैयार किया और उसमें ‘जलेबी’ बनाने व बेचने का काम शुरू कर दिया। आगे चलकर इसी गोहाना मण्डी में वर्ष 1968 में सरकार द्वारा आधा दर्जन भर दुकानें बनाईं गईं और उन्हें व्यापारियों को 100 साल के लिए पट्टे पर दे दिया गया। सौभाग्यवश इनमें से एक दुकान लाला मातूराम को भी मिल गई। फिर तो लोगों को लाला मातूराम की जलेबी एक सुनिश्चित स्थान पर सहज, सुलभ होने लगीं और दूर-दराज से लोगों का तांता लगने लगा।

लाला मातूराम की जलेबी का जायका खासकर देहात के सिर चढ़कर बोलने लगा। मेहनतकश किसान एवं पहलवान लाला मातूराम की जलेबी को सेहत के लिए वरदान समझते थे। क्योंकि लाला मातूराम की जलेबी कोई सामान्य जलेबी नहीं थी। वह हर तरीके से अन्य जलेबियों से भिन्न और विशिष्ट गुणों से भरपूर थी। लाला मातूराम की जलेबी का आकार व वजन अन्य जलेबियों से कहीं ज्यादा था। क्योंकि उन्होंने अनुभव किया था कि बड़े आकार की जलेबी अधिक समय तक गरम रहती है, वह महीने भर तक खराब भी नहीं होती है, उसमें करारापन अपेक्षानुरूप ज्यादा होता है और वे नरम होती भी है। उनकी एक जलेबी का वजन 250 ग्राम होता था और आकार तो तीन-चार गुना बड़ा होता था। लाला मातूराम की जलेबी का सबसे बड़ा गुण यह था कि वह एकदम शुद्ध देशी घी में तैयार की जाती थी और किसी प्रकार का कोई रंग या पदार्थ या रसायन बिल्कुल भी नहीं डाला जाता था। शुद्ध मैदा जलेबियों में इस्तेमाल किया जाता था। चीनी को दूध से साफ किया जाता था। ये जलेबियां लकड़ी की भट्ठी की संतुलित आंच पर तैयार होती थीं। लाला मातूराम के जलेबी बनाने कर ऐसा निराला तरीका था कि गरमा गरम जलेबी से टपकता रस व लाजवाबकरारापन देखकर कोई भी व्यक्ति लार टपकाने से नहीं रोक पाया।
लाला मातूराम की जलेबी ने एक अनूठी स्वादिष्ट मिठाई के साथ-साथ औषधि के रूप में भी पहचान बनाई। काम से थककर चूर व्यक्ति की थकान और सुस्ती लाला मातूराम की जलेबी के सेवन करने से देखते ही देखते काफूर हो जाया करती थी। दूध के साथ इस जलेबी का सेवन करने से सिर का दर्द तुरन्त छू-मन्तर हो जाता था। एक अच्छे स्वास्थ्य के लिए लाला मातूराम की जलेबी एक औषधिय दवा के रूप में भी मशहूर हो गई। ये सभी गुण आज भी लाला मातूराम की जलेबी में ज्यों कि त्यों मौजूद हैं।
अपने विशिष्ट गुणों के कारण लाला मातूराम की जलेबी की प्रसिद्धि कस्बे, शहर और प्रदेश की सीमाओं को भी पार कर गई। वर्ष 1970 में लाला जी के इस व्यवसाय में उनके बड़े लड़के राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता ने हाथ बंटाना शुरू कर दिया और इस कला को जीवन्त बनाए रखने का संकल्प लिया। लाला मातूराम जीवनभर की अपनी अनूठी कला, मेहनत एवं लगन के बलबूते जलेबी से हासिल की हुई प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा को ‘विरासत’ के रूप में वर्ष 1987 में अपने इसी ज्येष्ठ सुपुत्र को सौंपकर स्वर्ग सिधार गए। राजेन्द्र प्रसाद गुप्ता ने अपने पूज्य पिता की इस प्रसिद्ध जलेबी की कला और विरासत को न केवल आगे बढ़ाया, बल्कि अपने दृढ़ संकल्प और असीम लगन के बलबूत उसे देश की सीमाओं के पार विश्व के कोने-कोने तक पहुंचा दिया। 

इक्कीशवीं सदी के आते आते ‘लाला मातूराम की जलेबी’ का जायका भारत की सीमाओं को पार करके पाकिस्तान, चीन, जापान, नेपाल, अमेरिका, ऑस्टेªलिया, सिंगापुर, मलेशिया, सऊदी अरब आदि तक जा पहुंचा और लोगों को अपना दीवाना बना लिया। अब हर पर्व, शादी, त्यौहार, मंगल उत्सव एवं समारोह में लाला मातूराम की जलेबी विशेष उपहार, स्मृति एवं सम्मान के लिए इस्तेमाल की जाने लगी। आगरा में पधारे पाकिस्तान के जनरल परवेज मुशर्रफ हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री चौधरी ओम प्रकाश चौटाला द्वारा सम्मान एवं उपहार के तौरपर गोहाना (सोनीपत) से भिजवाए गए लाला मातूराम जलेबी के 50 डिब्बे पाकर अत्यन्त हर्षित हुए थे और इन जलेबियों के जायके की तारीफ में उन्होंने खूब कसीदे पढ़े थे। पूर्व उपप्रधानमंत्री स्व. चौधरी देवीलाल तो लाला मातूराम की जलेबी के इस कद्र दीवाने थे कि वे जब भी मौका मिलता एक किलो जलेबी जरूर खाते थे। वर्तमान मुख्यमंत्री चौधरी भूपेन्द्र सिंह हुड्डा एवं उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा हुड्डा के साथ-साथ पूरा हुड्डा परिवार चौधरी मातूराम की जलेबी के मुरीद हैं और लगभग हर पर्व, त्यौहार एवं मंगल अवसर पर मातूराम की जलेबी मंगवाना नहीं भूलते। हरियाणा में विपक्ष के नेता ओम प्रकाश चौटाला व चौटाला परिवार के सदस्य भी इन जलेबियों के बेहद दीवाने हैं।
गत दिनों हुए राष्ट्रमण्डल खेलों में भारत सरकार की तरफ से विदेशी मेहमानों के लिए गोहाना की यही मातूराम की जलेबी विशेष तौरपर तैयार करवाई गई थी। विश्व व्यापार मेले (ट्रेड फेयर) के हरियाणा मण्डप में लाला मातूराम की जलेबी के स्टाल पर अपार भीड़ देखते ही बनती थी। हरियाणा में लगे सूरजकूण्ड मेले व चण्डीगढ़ में के  कलाग्राम में लाला मातूराम की जलेबी का स्टॉल विशेष तौरपर शामिल किया गया। राजनीतिक रैलियों, शादी-समारोहों, तीज-त्यौहारों, उत्सवों, अनुष्ठानों और अन्य अनेक अवसरों पर मातूराम की जलेबी का इस्तेमाल शान की बात बन चुकी है। अब आम जनमानस हर त्योहार पर नकली मिठाईयों से बचने के लिए लाला मातूराम की जलेबी ही इस्तेमाल करता है। इसीलिए दीपावली जैसे त्यौहारों पर दिनरात काम करने के बावजूद लोगों की मांग भी पूरी नहीं हो पाती है।
- राजेश कश्यप
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक।

सोमवार, 23 मार्च 2015

एक खुला पत्र सरदार भगत सिंह के नाम / राजेश कश्यप

बदले नहीं हालात...इसीलिए, पांच साल बाद, एक बार फिर वही... 

एक खुला पत्र सरदार भगत सिंह के नाम / राजेश कश्यप

सरदार भगत सिंह
परम श्रद्धेय भाई सरदार भगत सिंह जी, वन्देमातरम् !!!
             आशा  ही नहीं, अपितु पूर्ण विश्वास  है कि आप जहाँ भी होंगे, बहुत दु:खी होंगे। क्योंकि आपकी आत्मा कभी स्वतंत्र  नहीं रही होगी। आपको पहले ही पता था कि इस कुर्बानी के बाद देश  तो आजाद हो जाएगा, लेकिन इसके बाद यह अपनों का गुलाम हो जाएगा। अपनों की गुलामी दूर करने के लिए उसे स्वयं दोबारा आना होगा। इस कसक और तड़प ने आपकी आत्मा को बैचेन बनाए रखा होगा। लेकिन भाई भगत, मुझे बड़ी हैरानी हो रही है कि जो लाल अपनी भारत माँ को कष्टों में देखकर जिन्दगी में एक पल भी चैन से नहीं बैठा, वही लाल छह दशक से कहाँ छिपा बैठा है?

            भाई जी...अब तो अपने वतन लौट आओ। आज देश  को फिर आपकी जरूरत है। देश  एक बार फिर गुलामी की बेड़ियों में...हाँ..हाँ...हाँ...गुलामी की बेड़ियों में जकड़ता चला जा रहा है। पहले तो सिर्फ अंग्रेजों की राजनीतिक रूप में गुलामी थी। लेकिन आज तो पता नहीं कितनी तरह की गुलामी हो गई है? हम स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस आदि राष्ट्रीय त्यौहारों एवं अन्य धार्मिक त्यौहारों को भी संगीनों के साये में मनाने को मजबूर हैं, कि कहीं कोई आतंकवादी हमला न हो जाए अथवा कहीं कोई बम बगैरह न फट जाए? आपको आ’चर्य हो रहा होगा न! एक वो दिन था जब गोलियों की बौछारों,लाठियों की मारों और तोपों की गर्जनाओं की गर्जनाओं के बीच वन्देमातरम्...भारत माता की जय...इंकलाब-जिन्दाबाद आदि के उद्घोषों  के बीच बड़े गर्व के साथ सरेआम झण्डा फहराया जाता है और आज? गणतंत्र दिवस परेड और स्वतंत्रता दिवस पर ध्वजारोहण की औपचारिकता आतंकवाद के भय के चलते भयंकर सुरक्षा बंदोबस्तों के बीच डरते हुए स्कूलों के पचास-सौ छोटे-छोटे मासूम बच्चों को पी.टी. परेड में इक्कठा करके पूरी की जाती है। कहाँ गया वो जन-सैलाब और वो समय जब देशभक्ति के नारों को उद्घोषित करता आम आदमी भी दिल्ली के लालकिले की प्राचीर पर राष्ट्रीय दिवस मनाने पहुँचता था?

            आश्चर्य में मत पड़िए भगत जी! वो आम आदमी आज भी जिन्दा है, लेकिन अपनों के खौफ के साये में कहीं किसी कोने में छुपने को मजबूर है। यहाँ पर सुरक्षा के नाम पर कपड़े तक उतार लिए जाते हैं। और तो और हमारे देश  के सर्वोच्च प्रतिनिधि भी देश -विदेश  में गाहे-बगाहे सुरक्षा के नाम पर स्वयं अपने कपड़े तक उतरवा चुके हैं और उतरवा भी रहे हैं। जब हमारे कर्णधारों का ये हाल है तो भला आम आदमी की क्या बिसात! उसे तो बिना किसी बात के भी सरेआम नंगा होना पड़ता है।

            आजादी के बाद अपने ही सत्तासीन  लोग अपनी ही भारत माँ का ‘चीर-हरण’ कर रहे हैं। भय, भूख, भ्रष्टाचार, अत्याचार आदि का बोलबाला है। देश  की 80 प्रतिशत जनता मात्र 20 रूपये प्रतिदिन की आमदनी में गुजारा करने को मजबूर है। शेष 20 प्रतिशत मलाईखोर लोग हवाले-घोटाले करने में मशगूल हैं। विश्व  बैंक कहता है कि भारत में 70 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा के नीचे हैं और हमारे अपने लोग इसे सिर्फ25-26 प्रतिशत ही बता रही है। देश  का कई हजार खरब रूपया काले धन के रूप में विदेशी  बैंकों में जमा पड़ा है और यहाँ की अस्सी फीसदी जनता रोटी, कपड़े और मकान जैसी मूलभूत सुविधाओं के अभाव में जीने को लाचार है।

            आज किसी को देशभक्ति याद नहीं है। यदि याद है तो सिर्फ पापी पेट के लिए रोटी का जुगाड़ करना। यह जुगाड़ चाहे ईमानदारी से हो या फिर लूटमार अथवा बेईमानी से। फिरौती, लूट, हत्या, बलात्कार, डकैती, धोखाधड़ी, चोरी, मिलावट, छीना-झपटी, झूठ, फरेब, ढोंग, झूठा तमाशा, काला धन्धा....भला ऐसा क्या आपराधिक कार्य नहीं हो रहा है इस देश  में जो अपराध तंत्र से जुड़ा न हो? ‘अन्धा बाँटे-रेवड़ी, अपनों-अपनों को दे’ की तर्ज पर जिसकी सत्ता में कोई पहुँच है अथवा कोई सिफारिश  है या फिर पैसा है या फिर वोटरों की बड़ी संख्या मुठ्ठी में है...केवल उन्ही को ही नौकरी अथवा किसी तरह का कोई सत्ता-सुख का अंश नसीब हो पाता है। अंगे्रजी काल में  शिक्षा  पाकर नौजवान ‘पढ़े-लिखे क्लर्क’ बनते थे और आज शिक्षा  पाकर पढ़े-लिखे नौजवान बेरोजगार अथवा अपराधी बन रहे हैं।

            भाई भगत बहुत दु:ख की बात यह भी है कि हमारे नौजवान भी अपने पथ से भटक से गए हैं। उसे प’िचमी जगत की चकाचौंध ने पागल कर दिया है। एक वो समय था जब ‘स्वदेश’ के नाम पर सभी कीमती विदेशी चीजों की सरेआम होली जलाई गई थी, वहीं आज हर चीज विदेशी हो गई है। यहाँ तक की खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना, घूमना-फिरना, उठना-बैठना, गाना-बजाना, खेलना-कूदना, पढ़ना-लिखना, सोचना-समझना आदि सब भी! अधिकतर लड़के-लड़कियाँ जाते हैं अपना कैरियर बनाने स्कूल या कॉलेज में और पहुँचते हैं शानदार फाईव स्टार होटलों में मौजमस्ती और अय्याशी  करने। अपने परिवार, खानदान व भविष्य के प्रति एकदम लापरवाह होकर न जाने कितने नशों  में हो रहे हैं चूर! सती, सावित्रि, सीता, अनसूइया आदि के देश  में आज कालगल्र्स, सेक्सवक्र्स आदि का ही कोई छोर नहीं है। जहाँ शिक्षार्थियों  के बस्तों में देशभक्ति से ओतप्रोत साहित्य होता था आज पोर्न (ब्लयू) फिल्मों का साहित्य व सीडियाँ जमा पड़ा है। टी.वी. व सिनेमा सरेआम सैक्स एवं अश्लीलता  घर-घर परोस रहा है। गलत राह पर चल कर जवान अपनी जवानी पानी की तरह बहा रहे हैं और आधे से अधिक सेना की भर्ती के लिए होने वाली दौड़ में ही बाहर हो रहे हैं। भगत जी...परेशान मत होइये!! ये तो सिर्फ समस्या की बानगी भर है!!!

            आप न्याय व्यवस्था की तो धज्जियाँ उड़ रही हैं। झूठे व मक्कार लोग पैसे, शोहरत, बाहुबल के दम पर कानून की देवी को अपनी कठपुतली बनाए हुए हैं। गरीब आदमी के लिए न्याय दूर की कौड़ी बन गया है। गा्रम पंचायतों में भी दंबगों और ऊँची  पहुँच वालों की ही चलती है। यदि कोई सीदा-सादा व भोला-भाला आदकी सच्चाई व न्याय की बात करे तो सबको अखरती है। आज इस देश  में सच्चाई व न्याय के रास्ते पर चलने वाले व्यक्ति को या तो मौत के घाट उतार दिया जाता है या फिर अनगिनत धाराओं के तहत झूठे मुकदमों में फंसाकर तिल-तिल मरने को मजबूर कर दिया जाता है। अपराधों, भ्रष्टाचारों में लिप्त दबंग लोग चुनाव लड़ते हैं और संसद की कुर्सियों का बोझ बनते हैं। विभिन्न पार्टियों के रूप में ये लोग बारी-बारी से आते हैं और जनता की आँखों में धूल झोंककर  पाँच साल देश  में लूट मचाकर चले जाते हैं। आज कोई भी आदर्श  नेता हमारे देश  में रहा ही नहीं है...भला इससे बढ़कर देश का क्या दुर्भाग्य होगा?

            भाई भगत सिंह, मैं माफी चाहता हूँ कि इस दु:ख भरे पत्र को और भी लंबा करता ही चला जा रहा हूँ। मैं इसे और लंबा नहीं करूंगा। मैंने आपको सिर्फ इशारा  भर किया है। यदि इस पत्र के माध्यम से मेरी भावना आप तक पहुँच जाए तो मेहरबानी करके इस देश  की तरफ एक बार जरूर देखना! भाई जी नहीं...कल देखना!! क्योंकि आज तो बहुत सारे मदारी, नट, कलाकार, अभिनेता, स्वाँगी आदि लोग बड़े-बड़े चमकदारों बैनरों के साथ आपकी सहादत को सलाम करते हुए, देशभक्ति के राग अलापते हुए, चौराहों पर खड़ी जर्जर आपकी प्रतिमाओं पर हार पहनाते, आपके नाम पर रक्तदान शिविर  लगाते, चर्चा-संगोष्ठि या सेमीनार करते, झूठे पे्रस नोट जारी करते और देशभक्ति के झूठे मुखौटे लगाते हुए ही नजर आ सकते हैं। कृपा इस पत्र पर अमल करते हुए आप कल ही हिन्दुस्तान पर नजर डालना और नजर डालने के बाद अत्यन्त दु:खी हो जाओ तो मुझे गाली मत देना, कि आपको यह सब लिखकर बताने का आज ही मौका मिला है? अरे भाई जी, लिखना तो बहुत पहले चाहता था, लेकिन कहीं कोई मुझे पागल करार न दे दे, इसलिए नहीं लिखा। लेकिन आज सब चिन्ताओं एवं भ्रमों को दूर करके यह पत्र लिखने का साहस जुटा पाया हूँ। इस पत्र के बारे में कोई भी चाहे कुछ कहे, अब मुझे कोई परवाह नहीं। यह पत्र लिखने के बाद यदि मुझे एक व्यक्ति की भी शाबासी या हौंसला मिला तो भाई मैं समझूँगा कि कहीं किसी कोने में आज भी कोई भगत सिंह जिन्दा है!!! भाई जी, यदि आप अब तक इस दोबारा इस देश  में नहीं आये हो तो मेहरबानी करके जल्दी से जल्दी जरूर आ जाओ....क्योंकि ये देश  तुम्हें चीख-चीखकर पुकार रहा है। हाँ...इस बार एक रूप में मत आना! क्योंकि समस्याएँ अब एक नहीं अनेक हो गई हैं। इसलिए मेरी राय तो यह है कि आप अपनी आत्मा को आज की नौजवान पीढ़ी की आत्माओं में अंशों  के रूप में आत्मसात कर दो ताकि अनेक भगत सिंह, अनेक रूपों में, अनेक समस्याओं से लड़ सकें और अपनी भारत माता को अपनों व अपनों के दर्द को जल्द से जल्द दूर कर सकें। जब आप नौजवानों में आ जाओ तो कृपया पत्र का जवाब तो जरूर देना।

अच्छा अब जयहिन्द और नमस्ते। इन्कलाब-जिन्दाबाद।। भारत माता की जय।।।

आपका स्नेहाकांक्षी,

-राजेश कश्यप 

शनिवार, 21 मार्च 2015

अदम्य साहस, शौर्य और स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति थे शहीदे-आज़म भगत सिंह / -राजेश कश्यप

23 मार्च/शहीदी दिवस पर विशेष

शहीदे आज़म भगत सिंह 

       आज हम जिस आजादी के साथ सुख-चैन की जिन्दगी गुजार रहे हैं, वह असंख्य जाने-अनजाने देशभक्त शूरवीर क्रांतिकारियों के असीम त्याग, बलिदान एवं शहादतों की नींव पर खड़ी है। ऐसे ही अमर क्रांतिकारियों में शहीद भगत सिंह शामिल थे, जिनके नाम लेने मात्र से ही सीना गर्व एवं गौरव से चौड़ा हो जाता है। शहीदे-आज़म भगत सिंह की जीवनी जन-जन में अदम्य देशभक्ति, शौर्य और स्वाभिमान का जबरदस्त संचार करती है। सरदार भगत सिंह का जन्म 27 सितम्बर, 1907 को पंजाब के जिला लायलपुर के बंगा गाँव (पाकिस्तान) में एक परम देशभक्त परिवार में हुआ। सरदार किशन सिंह के घर श्रीमती विद्यावती की कोख से जन्में इस बच्चे को दादा अर्जुन सिंह व दादी जयकौर ने ‘भागों वाला’ कहकर उसका नाम ‘भगत’ रख दिया। बालक भगत को भाग्य वाला बच्चा इसीलिए माना गया था, क्योंकि उसके जन्म लेने के कुछ समय पश्चात् ही, स्वतंत्रता सेनानी होने के कारण लाहौर जेल में बंद उनके पिता सरदार किशन सिंह को रिहा कर दिया गया और जन्म के तीसरे दिन उसके दोनों चाचाओं को जमानत पर छोड़ दिया गया।
       बालक भगत सिंह में देशभक्त परिवार के संस्कार कूट-कूटकर भरे हुए थे। ‘होरहान बिरवान के होत चिकने पात’ कहावत को चरितार्थ करते हुए बालक भगत ने तीन वर्ष की अल्पायु में ही अपने पिता के दोस्त नन्द किशोर मेहता को हतप्रभ कर दिया था। उसके पिता भगत सिंह को साथ लेकर अपने मित्र मेहता के खेत में गए हुए थे तो दोनों मित्र बातों में मशगूल हो गए। लेकिन भगत सिंह ने खेत में छोटी-छोटी डोलियों पर लकड़ियों के छोटे छोटे तिनके गाड़ दिए। यह देखकर मेहता हतप्रभ रह गए। उन्होंने पूछा कि यह क्या बो दिया है, भगत? भगत ने तपाक से उत्तर दिया कि ‘मैंने बन्दूकें बोई हैं। इनसे अपने देश को आजाद कराऊंगा’। भारत माँ को परतन्त्रता की बेड़ियांे से मुक्त कराने वाले इस लाल की ऐसी ही देशभक्ति से भरे भावों वालीं असंख्य मिसालें हैं।
पाँच वर्षीय बालक भगत का नाम पैतृक बंगा गांव के जिला बोर्ड प्राइमरी स्कूल में लिखाया गया। उनकी मित्र मण्डली काफी बड़ी थी। बंद कमरों में बैठकर पढ़ना भगत सिंह को बोर कर देता था। इसीलिए वो अक्सर कक्षा से भागकर खुले मैदान में आ बैठते थे। बालक भगत सिंह कुशाग्र बुद्धि, साहसी, निडर एवं स्पष्टवक्ता थे। जब वे ग्यारह वर्ष के थे तो उनके साथ पढ़ रहे उनके बड़े भाई जगत सिंह को असामयिक निधन हो गया। इसके बाद सरदार किशन सिंह सपरिवार लाहौर के पास नवाकोट चले आए। प्राइमरी पास कर चुके बालक भगत सिंह को सिख परम्परा के अनुसार खालसा-स्कूल की बजाय राष्ट्रीय विचारधारा से ओतप्रोत लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में दाखिला दिलवाया गया। इसी दौरान 13 अप्रैल, 1919 को वैसाखी वाले दिन ‘रौलट एक्ट’ के विरोध में देशवासियों की जलियांवाला बाग में भारी सभा हुई। जनरल डायर के क्रूर व दमनकारी आदेशों के चलते निहत्थे लोगों पर अंग्रेजी सैनिकों ने ताड़बतोड़ गोलियों की बारिश कर दी। इस अत्याचार ने देशभर में क्रांति की आग को और भड़का दिया।
       भगत सिंह ने अमृतसर के जलियांवाला बाग की रक्त-रंजित मिट्टी की कसम खाई कि वह इन निहत्थे लोगों की हत्या का बदला अवश्य लेकर रहेगा। सन् 1920 में गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन चलाया और देशवासियों से आह्वान किया कि विद्यार्थी सरकारी स्कूलों को छोड़ दें व सरकारी कर्मचारी अपने पदों से इस्तीफा दे दें। उस समय नौंवी कक्षा में पढ़ रहे भगत सिंह ने सन् 1921 में गांधी जी के आह्वान पर डी.ए.वी. स्कूल को छोड़ लाला लाजपतराय द्वारा लाहौर में स्थापित नैशनल कॉलेज में प्रवेश ले लिया। इस कॉलिज में आकर भगत सिंह यशपाल, भगवती चरण, सुखदेव, रामकिशन, तीर्थराम, झण्डा सिंह जैसे क्रांतिकारी साथियों के सम्पर्क में आए। कॉलिज में लाला लाजपत राय व परमानंद जैसे देशभक्तों के व्याख्यानों ने देशभक्ति की लहर भर दी थी। कॉलिज के प्रो. विद्यालंकार जी भगत सिंह से विशेष स्नेह रखते थे। वस्तुतः प्रो. जयचन्द विद्यालंकार ही भगत सिंह के राजनीतिक गुरू थे। भगत सिंह उन्हीं के दिशा-निर्देशन में देशभक्ति के कार्यक्रमों में सक्रिय भूमिका निभाते थे।
       इसी समय घरवालों ने भगत सिंह पर शादी का दबाव डाला तो उन्होंने विवाह से साफ इनकार कर दिया। जब हद से ज्यादा दबाव पड़ा तो देशभक्ति में रमे भगत सिंह देश की आजादी के अपने मिशन को पूरा करने के उद्देश्य से 1924 में बी.ए. की पढ़ाई अधूरी छोड़कर कॉलिज से भाग गए। फिर वे केवल और केवल देशभक्तों के साथ मिलकर स्वतंत्रता के संघर्ष में जूट गए। कॉलिज से भागने के बाद भगत सिंह सुरेश्चन्द्र भट्टाचार्य, बटुकेश्वर दत्त, अजय घोष, विजय कुमार सिन्हा जैसे प्रसिद्ध क्रांतिकारियों के सम्पर्क में आए। इसी के साथ भगत सिंह उत्तर प्रदेश व पंजाब के क्रांतिकारी युवकों को संगठित करने में लग गए। इसी दौरान भगत सिंह ने ‘प्रताप’ समाचार पत्र में बतौर संवाददाता अपनी भूमिका खूब निभाई। इन्हीं गतिविधियों के चलते भगत सिंह की मुलाकात भारतीय इतिहास के महान क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद से हुई।
       कॉलिज से भागे भगत सिंह के परिवार वालों ने काफी खोजबीन करके भगत सिंह से लिखित वायदा किया कि वह घर वापिस आ जाए, उस पर शादी करने के लिए कोई दबाव नहीं डाला जाएगा। परिवार वालों के इस लिखित वायदे व दादी जी के सख्त बीमार होने के समाचार ने भगत सिंह को वापिस घर लौटने के लिए बाध्य कर दिया। घर आकर वे पंजाब भर में घूम-घूमकर समाज की समस्याओं से अवगत होने लगे। सन् 1925 के अकाली आन्दोलन के सूत्रपात ने भगत सिंह को फिर सक्रिय कर दिया। अंग्रेज सरकार ने झूठा केस तैयार करके भगत सिंह के नाम गिरफ्तारी वारन्ट जारी कर दिया गया। भगत सिंह पंजाब से लाहौर पहुंच गए और सक्रिय होकर क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लेकर अंग्रेज सरकार की नाक में दम करने लगे। 
       1 अगस्त, 1925 को ‘काकोरी-काण्ड’ हुआ। ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के सदस्यों द्वारा पार्टी के लिए धन इक्कठा करने के उद्देश्य से हरदोई से लखनऊ जा रही 8 डाऊन रेलगाड़ी के खजाने को लूट लिया गया। इस काण्ड में कुछ क्रांतिकारी पकड़े गए। पकड़े गए क्रांतिकारियेां को छुड़ाने के लिए भगत सिंह ने भरसक प्रयत्न किए, लेकिन उन्हें सफलता हासिल नहीं हो सकी। मार्च, 1926 में उन्होंने लाहौर में समान क्रांतिकारी विचारधारा वाले युवकों को संगठित करके ‘नौजवान सभा’ का गठन किया और इसके अध्यक्ष का उत्तरदायित्व रामकृष्ण को सौंप दिया। रामकृष्ण औपचारिक अध्यक्ष थे, जबकि मूलरूप से संचालन भगत सिंह स्वयं ही करते थे। फिर इसकी शाखाएं देश के अन्य हिस्सों में भी खोली गईं।
       जून, 1928 में इसी तर्ज पर भगत सिंह ने लाहौर में ही ‘विद्यार्थी यूनियन’ बनाई और क्रांतिकारी नौजवानों को इसका सदस्य बनाया। अंग्रेजी सरकार भगत सिंह के कारनामों से बौखलाई हुई थी। वह उन्हें गिरफ्तरी करने का बहाना ढूंढ़ रही थी। उसे यह बहाना 1927 के दशहरे वाले दिन मिल भी गया। जब भगत सिंह तितली बाग से लौट रहे थे तो किसी ने दशहरे पर लगे मेले में बम फेंक दिया। भगत सिंह पर झूठा इल्जाम लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। वस्तुतः पुलिस के इशारों पर वह बम चन्नणदीन नामक एक अंग्रेज पिठ्ठू ने फेंका था। भगत सिंह को गिरफ्तार करके बिना मुकद्मा चलाए उन्हें लाहौर जेल में रखा गया और उसके बाद उन्हें बोस्टल जेल भेज दिया गया। पुलिस की लाख साजिशों के बावजूद भगत सिंह जमानत पर छूट गए। जमानत मिलने के बाद भी भगत सिंह सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियों का संचालन करते रहे।
       8 अगस्त, 1928 को देशभर के क्रांतिकारियों की बैठक फिरोजशाह कोटला में बुलाई गई। भगत सिंह के परामर्श पर ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ का नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ रख दिया गया। इस बैठक में क्रांतिकारियों ने कई अहम् प्रस्ताव पारित किए। एसोसिएशन का मुख्य कार्यालय आगरा से झांसी कर दिया गया। भगत सिंह ने कई अवसरों पर बड़ी चालाकी से वेश बदल कर अंग्रेज सरकार को चकमा दिया। 30 अक्तूबर, 1928 को लाहौर पहुंचे साइमन कमीशन का विरोध लाला लाजपतराय के नेतृत्व में भगत सिंह सहित समस्त क्रांतिकारियों व देशभक्त जनता ने डटकर किया। पुलिस की दमनात्मक कार्यवाही में लाला जी को गंभीर चोटें आईं और लाख कोशिशों के बावजूद उन्हें बचाया नहीं जा सका। 17 नवम्बर, 1928 को लाला जी स्वर्ग सिधार गए। क्रांतिकारियों का खून खौल उठा। इस कार्यवाही के सूत्रधार स्कॉट को मारने के लिए क्रांतिकारियों ने 17 दिसम्बर, 1928 को व्यूह रचा, लेकिन स्कॉट की जगह साण्डर्स धोखे में मार दिया गया। इस काम को भगत सिंह ने जयगोपाल, राजगुरू आदि के साथ मिलकर अंजाम दिया था। इसके बाद तो पुलिस भगत सिंह के खून की प्यासी हो गई।
       आगे चलकर इन्हीं देशभक्त व क्रांतिकारी भगत सिंह ने कुछ काले बिलों के विरोध में असेम्बली में बम फेंकने जैसी ऐतिहासिक योजना की रूपरेखा तैयार की। क्रांतिकारियों से लंबे विचार-विमर्श के बाद भगत सिंह ने स्वयं बम फेंकने की योजना बनाई, जिसमें बटुकेश्वर दत्त ने उनका सहयोग किया। ‘बहरों को अपनी आवाज सुनाने के लिए’ भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने 8 अप्रैल, 1929 को निश्चित समय पर पूर्व तय योजनानुसार असैम्बली के खाली प्रांगण में हल्के बम फेंके, समाजवादी नारे लगाए, अंग्रेजी सरकार के पतन के नारों को बुलन्द किया और पहले से तैयार छपे पर्चे भी फेंके। योजनानुसार दोनों देशभक्तों ने खुद को पुलिस के हवाले कर दिया ताकि वे खुलकर अंग्रेज सरकार को न्यायालयों के जरिए अपनी बात समझा सकें।
       7 मार्च, 1929 को मुकद्दमे की सुनवाई अतिरिक्त मजिस्टेªट मिस्टर पुल की अदालत में शुरू हुई। दोनों वीर देशभक्तों ने भरी अदालत में हर बार ‘इंकलाब जिन्दाबाद’ के नारे लगाते हुए अपने पक्ष को रखा। अदालत ने भारतीय दण्ड संहिता की धारा 307 के अन्तर्गत मामला बनाकर सेशन कोर्ट को सौंप दिया। 4 जून, 1929 को सेशन कोर्ट की कार्यवाही शुरू हुई। दोनो ंपर गंभीर आरोप लगाए गए। क्रांतिकारी भगत सिंह व बटुकेश्वर दत्त ने हर आरोप का सशक्त खण्डन किया। अंत में 12 जून, 1929 को अदालत ने अपना 41 पृष्ठीय फैसला सुनाया, जिसमें दोनों क्रांतिकारियों को धारा 307 व विस्फोटक पदार्थ की धारा 3 के अन्तर्गत उम्रकैद की सजा दी। इसके तुरंत बाद भगत सिंह को पंजाब की मियांवाली जेल में और बटुकेश्वर दत्त को लाहौर सेन्ट्रल जेल में भेज दिया गया। इन क्रांतिकारियों ने अपने विचारों को और ज्यादा लोगों तक पहंुचाने के लिए हाईकोर्ट में सेशन कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की। अंततः 13 जनवरी, 1930 को हाईकोर्ट ने भी सुनियोजित अंग्रेजी षड़यंत्र के तहत उनकी अपील खारिज कर दी। इसी बीच जेल में भगत सिंह ने भूख हड़ताल शुरू कर दी।
       इसी दौरान ‘साण्डर्स-हत्या’ केस की सुनवाई शुरू की गई। एक विशेष न्यायालय का गठन किया गया। अपने मनमाने फैसले देकर अदालत ने भगत सिंह के साथ राजगुरू व सुखदेव को लाहौर षड़यंत्र केस में दोषी ठहराकर सजाए मौत का हुक्म सुना दिया। पं. मदन मोहन मालवीय ने फैसले के विरूद्ध 14 फरवरी, 1931 को पुनः हाईकोर्ट में अपील की। लेकिन अपील खारिज कर दी गई। जेल में भगत सिंह से उनके परिवार वालों से मिलने भी नहीं दिया गया। भगत सिंह का अपने परिवार के साथ अंतिम मिलन 3 मार्च, 1931 को हो पाया था। इसके बीस दिन बाद 23 मार्च, 1931 को जालिम अंग्रेजी सरकार ने इन क्रांतिकारियों को निर्धारित समय से पूर्व ही फांसी के फन्दे पर लटका दिया और देश में कहीं क्रांति न भड़क जाए, इसी भय के चलते उन शहीद देशभक्तों का दाह संस्कार भी फिरोजपुर में चुपके-चुपके कर दिया। इस तरह सरदार भगत सिंह ‘शहीदे आज़म’ के रूप में भारतीय इतिहास में सदा सदा के लिए अमर हो गये। कल भी सरदार भगत सिंह सबके आदर्श थे, आज भी हैं और आने वाले कल में भी रहंेगे, क्योंकि उन जैसा क्रांतिवीर न कभी पैदा हुआ है और न कभी होगा। उनके सिद्धान्तों और आदर्शों पर चलकर ही कृतज्ञ राष्ट्र उन्हें सच्ची श्रद्धान्जलि दे सकता है।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

देहात-रत्न : चौधरी मातूराम

 देहात-रत्न : चौधरी मातूराम
-राजेश कश्यप
चौधरी मातूराम
         हरियाणा के रोहतक जिले में बसा साँघी गाँव एक ऐतिहासिक गाँव है। साँघी गाँव में कई महान शख्सियतों ने जन्म लिया है। जैलदार चौधरी बख्तावर सिंह का कुल इसी गाँव से जुड़ा हुआ है। जैलदार बख्तावर सिंह के घर श्रीमती मामकौर की कोख से देहात-रत्न चौधरी मातूराम का जन्म हुआ। चौधरी मातूराम बेहद संघर्षशील व्यक्तित्व के धनी थे। पिता चौधरी बख्तावर सिंह का अकस्मात्  स्वर्गवास हो जाने के पश्चात् अल्पायु में ही चौधरी मातूराम ने पारिवारिक एवं सामाजिक दायित्वों को कुशलतापूर्वक निभाया। वे अपनी काबिलयत के बल पर अपने पिता स्व. चौधरी बख्तावर सिंह की भांति नंबरदार से जैलदार जैसे प्रतिष्ठित पद तक पहुँचे । उन्हें पहले 1.12.1991 को  नम्बरदार, फिर 16.06.1892 को आला नम्बरदार और इसके बाद 6.11.1894 को सांघी जैल का जैलदार बनाया गया।
          राष्ट्रीय स्वतंत्रता की अमिट कसक रखने वाले चौधरी मातूराम ने 23 वर्ष की युवावस्था से ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कार्यक्रमों, जलसों, सभाओं एवं आन्दोलनों में सक्रिय भागीदारी करने लगे थे। वे तत्कालीन पंजाब के ऐसे अग्रणीय देहाती नेता थे, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम की ज्वाला को गाँव के हर चूल्हे तक पहुँचाने का अद्भूत पराक्रम कर दिखाया था।
          लाला लाजपतराय, लाला मुरलीधर, सरदार अजीत सिंह (शहीदे-आज़म भगत सिंह के चाचा), खान अब्दूल गफ्फार खाँ, चौधरी छोटूराम, पंडित मोती लाल नेहरू, ठाकूर भार्गवदास, स्वामी श्रद्धानंद जैसे अनेक जुझारू स्वतंत्रता सेनानियों के साथ चौधरी मातूराम के मैत्री एवं पारिवारिक घनिष्ठ संबंध स्थापित हो गये थे। उनके राष्ट्रीय नेताओं के साथ बने प्रगाढ़ संबंधों का सहज अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि जब भी कोई नेता रोहतक आता तो वह साँघी गाँव में आपके साथ जरूर ठहरता। सन् 1905-07 की समयावधि में जुझारू किसान आन्दोलन चलाकर 'काले पानी' की सजा पाने वाले महान् क्रांतिकारी लाला लाजपत राय एवं सरदार अजीत सिंह रोहतक आए तो वे भी आपके साथ गाँव साँघी में ही ठहरे।
          स्वतंत्रता संग्राम की सभी गतिविधियों में चौधरी मातूराम की सशक्त एवं सक्रिय भागीदारी ने अंग्रेजी सरकार को अत्यन्त भयभीत करके रख दिया। परिणामस्वरूप सरकार ने उन्हें 4.05.1907  को (लगभग 11 साल बाद) जैलदारी के पाद से हटाकर अपनी ख़ीज निकाली। केवल इतना ही नहीं उनकी सक्रिय क्रांतिकारी गतिविधियों से घबराकर सन् 1914 में तत्कालीन ले.गर्वनर इबटसन ने उन्हें 'काला-पानी' (अण्डेमान जेल) भेजने की संस्तुति की। लेकिन, इससे जनता में उठने वाले संभावित आक्रोश को भांपकर अंग्रेजी सरकार को अपने इस कदम को वापिस हटाने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसका उनपर तनिक भी असर नहीं पड़ा, उलटे आप स्वतंत्रता आन्दोलन में और भी उग्र होते चले गये।
          चौधरी मातूराम ने जब आर्य समाज के मूल प्रकाश-पुुुंज 'सत्यार्थ-प्रकाश' का गहन अध्ययन किया तो उसी के ज्ञान-सागर में स्वयं को स्थापित कर लिया और उन्होंने समाज में व्याप्त कुटिल रूढिय़ों एवं अंधविष्वासों को ध्वस्त करते हुये 'जनेऊ' (यज्ञोपवित) धारण किया। रूढि़वादी एवं अंधविश्वासी असामाजिक तत्वों ने अपने ओछेपन का प्रदर्शन करते हुए काशी के पुरोहित को बुलाया और पंचायत बैठाई। जब पंचायत में काशी के पुरोहित ने जाटों को शुद्र बताते हुए व चौधरी साहब के 'जनेऊ' ग्रहण करने को अधर्म की संज्ञा देते हुए उसे उतारने का फरमान सुनाया तो नौजवान मातूराम का खून खौल उठा और दो टूक जवाब दिया, 'जनेऊ किसी कीकर के डाहले पर नहीं टंगा है, जिसे कोई भी उतार ले। मेरी गर्दन पर है, भाईयों के सामने गर्दन हाजिर है, इसे काट दो, जनेऊ अपने आप उतर जायेगा।' इस जवाब से चकराये पुरोहित ने पैंतरा बदलते हुये कहा, 'इनको जाति से बाहर करके हुक्का-पानी बंद कर दो।' इसके जवाब में  चौधरी मातूराम ने कहा, 'मैं तो किसी के घर बिना बुलाये जाता ही नहीं हूँ, उन्हीं के घर जाता हूँ जो घोड़ी की लगाम पकडक़र घोड़ी से उतरने के लिये कहते हैं और स्वागत करते हैं।' इसपर खिडवाली की पंचायत बिखर गई। चौधरी मातूराम जी के आर्य समाजी हाने के अटल व दृढ़ निश्चय ने न केवल ढ़ोंगी व पोगा-पंथियों को सबक सिखाया, अपितु समाज-सुधार आन्दोलन को एक नई दिशा प्रदान की।
          आर्य समाज को ग्रहण करने के बाद चौधरी मातूराम ने समाज में व्याप्त जाति-पाति, ऊंच-नीच, छुआछूत आदि बुराईयों को दूर करने व शिक्षा का अलौकिक प्रकाश फैलाने का ऐसा जोरदार अभियान चलाया कि लोगों ने उन्हें सहज भाव से ही 'देहात-रत्न' के नाम से अलंकृत कर दिया। चौधरी मातूराम ने आर्य समाज के अछूतोद्धार का प्रारंभ गाँव धामड़, जिला रोहतक में जुलाहों के घरों में उन्हीं के हाथों बनाया हुआ खाना खाकर किया। इसके बाद तो आप सबके लिए आदर्श आर्यसमाजी बनते चले गये। 
         7 मार्च, 1911 को बरोणा, जिला रोहतक में समाज-सुधार के लिए महापंचायत हुई, जिसमें विभिन्न खापों के 50,000 प्रतिनिधि शामिल हुये। महापंचायत ने समाज सुधार के लिये 28 प्रस्ताव पास किए। इस महापंचायत के आयोजन में चौधरी मातूराम ने सक्रिय भूमिका के साथ-साथ प्रबंधन में हाथ बंटाया।
          चौधरी मातूराम एक व्यक्ति नहीं, बल्कि बहुत बड़ी संस्था थे। उन्होंने शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए अपना अनूठा योगदान दिया। उन्होंने 'जाट-एंग्लो हाई स्कूल, रोहतक' की स्थापना में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, जिसके फलस्वरूप आपको संस्थापक प्रधान बनाया गया। इसके अलावा उनके गुरूकुल भैंसवालकलां के निर्माण और आर्य कन्या पाठशाला, साँघी, खरखौदा व खरैन्टी आदि के खुलवाने में दिये गये योगदान को भी कभी नहीं भुलाया जा सकता।
          चौधरी मातूराम देहाती समाज के लिये आदर्श-महापुरूष थे। उनके एक इशारे पर देहाती समाज टूट पड़ता था। स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान 16 फरवरी, 1921 को महात्मा गाँधी रोहतक पधारे तो चौधरी मातू राम की अध्यक्षता में आयोजित जनसभा में 25000 से अधिक लोगों ने भाग लिया। आपकी प्रतिष्ठित छवि को गाँधी जी ने भी सराहा।
          चौधरी मातूराम का राजनीतिक जीवन भी बड़ी उच्चकोटि का रहा। वे सिद्धान्तों एवं मूल्यों की निष्पक्ष, निर्लेप व स्वच्छ राजनीति करते थे। आप रोहतक जिले में कांग्रेस पार्टी के संस्थापकों में रहे और रोहतक जिले के प्रधान पद पर भी सुशोभित हुये। वे जिला बोर्ड के सदस्य भी बने। उन्होंने 1923 में विधान परिषद का चुनाव लड़ा, लेकिन चुनावी-धांधली के चलते हार गये। धांधली के खिलाफ  उन्होंने चुनाव-याचिका फाईल की। न्यायालय में धांधली साबित हुई। अदालत ने न केवल चुनाव रद्द किया, अपितु, जुर्माना भी किया। उन्होंने ईमानदारी एवं न्यायिक भावना का परिचय देते हुये वह जुर्माना राशि न लेने का निश्चय किया। 
         महान् स्वतंत्रता सेनानी, परम् देशभक्त, सच्चे आर्य समाजी, राष्ट्रीयता के अग्रदूत, देहात-रत्न चौधरी मातूराम आर्य ने आजीवन राजनीतिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक आदि हर क्षेत्र में अपना अनूठा एवं अनुकरणीय योगदान दिया। 14 जुलाई, 1942 को लंबी बीमारी के बाद उनका निधन हो गया।
 
-राजेश कश्यप
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक।
मोबाईल नं. 9416629889

मंगलवार, 17 मार्च 2015

संकीर्ण सियासतदारों को सुप्रीम कोर्ट का करारा तमाचा!

जाट आरक्षण / 
सुप्रीम कोर्ट
 संकीर्ण सियासतदारों को सुप्रीम कोर्ट का करारा तमाचा! 
-राजेश कश्यप

          देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आज मंगलवार, 17 मार्च, 2015 को अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में नौ राज्यों गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश के जाटों को पिछली कांगे्रस सरकार द्वारा दिया गया ओबीसी आरक्षण रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जाट जैसी राजनीतिक रूप से संगठित जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सही नहीं है। न्यायालय ने पाया कि केन्द्र ने ओबीसी के पैनल के उस निष्कर्ष का उपेक्षित किया है, जिसमेें कहा गया है कि जाट पिछड़ी जाति नहीं हैं। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अतीत में ओबीसी सूची में किसी जाति को संभावित तौरपर गलत रूप से शामिल किया जाना, गलत रूप से दूसरी जातियों को शामिल करने का आधार नहीं हो सकता है। हालांकि जाति एक प्रमख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र विकल्प नहीं हो सकती है। यह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से होना चाहिए। 
          सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जहां देश के गरीब पिछड़े लोगों के लिए अति हितकारी है, वहीं उन संकीर्ण सियासतदारों के लिए कड़ा सबक हैं, जो अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए गरीबों के हकों पर डाका डालने से भी गुरेज नहीं करते। गत घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार की दलदल में फंसी यूपीए सरकार अपनी नैया पार लगाने के लिए अनैतिक एवं असंवैधानिक रूप से 'कास्टिज्म कार्डÓ खेलने से भी बाज नहीं आई और सभी कायदे-कानूनों को धत्ता बताते हुए 4 मार्च, 2014 को  देश के नौ राज्यों के अलावा केन्द्रीय सूची में जाटों को ओबीसी में शामिल करने के लिए हरी झण्डी दे दी। कमाल की बात यह रही कि सरकार ने यह अध्यादेश राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग के सर्वेक्षण के आंकड़े आने से पहले ही इतना बड़ा निर्णय ले लिया। यही नहीं, सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की असहमति की भी कोई परवाह नहीं की और उसके सर्वसम्मत फैसले को ठुकराकर जाटों को आरक्षण दिया गया। 
          एनसीबीसी ने केन्द्र सरकार को 125 पेज की रिपोर्ट सौंपकर जाटों को आरक्षण देने पर ऐतराज जताया था। एनसीबीसी ने 4-0 से जाट आरक्षण के खिलाफ फैसला देते हुए तर्क दिया था कि जाट न तो सामाजिक या आर्थिक या अन्य किसी लिहाज से पिछड़े हुए हैं। हालांकि कुछ राज्यों ने जाटों को आरक्षण दिया है, लेकिन केन्द्र सरकार के स्तर पर उन्हें यह सुविधा देना गलत होगा। आयोग के चेयरमैन न्यायमूर्ति वी. ईश्वरैय्या और तीन अन्य सदस्यों एस.के. खरवेतन, ए.के.सीकरी और अशोक मंगोत्रा को जाट आरक्षण का कोई भी औचित्य नजर नहीं आया। एनसीबीसी ने विभिन्न अध्ययनों के बाद ही जाट आरक्षण के खिलाफ 4-0 से फैसला दिया था। इसके बावजूद केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने आयोग की रिपोर्ट को खारिज करते हुए आरक्षण दे डाला। वर्ष 1993 में गठित एनसीबीसी के विधान के मुताबिक केन्द्र सरकार की किसी भी सिफारिश को आयोग मानने के लिए बाध्य नहीं होगा और आयोग की सिफारिश को केन्द्र सरकार नकार नहीं सकेगी। लेकिन, जाट आरक्षण के मामले में विधान के ठीक उलट हुआ। 
          हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा सरकार ने बड़ी चालाकी से अपना पैंतरे खेला और आनन-फानन में गठित राज्य पिछड़ा वर्ग की रिपोर्ट आने से पहले ही तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के समक्ष जाटों को ओबीसी में शामिल करने की पैरवी करने जा पहुंचे। बाद में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के सेवानिवृत प्रो. खजान सिंह सांगवान की औपचारिक शोध रिपोर्ट और आम लोगों व संगठनों से आपत्तियां एवं सुझावों की औपचारिकताओं के आधार पर मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के इशारे पर रिपोर्ट पेश कर दी। हुड्डा सरकार ने बड़ी चालाकी से जाटों को 'विशेष पिछड़ा वर्ग' के रूप में शामिल कर दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ देने की घोषणा कर दी। चूंकि, केन्द्र की ओबीसी सूची में शामिल की जाने वाली प्रस्तावित जाति को राज्य की ओबीसी सूची में नामित होना अनिवार्य बनाया गया है। इसीलिए, केन्द्र में जाटों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करवाने के लिए ही यह सब छल किया गया। ओबीसी वर्ग को भरोसा दिलाया गया कि उनके 27 फीसदी आरक्षण को बिल्कुल नहीं छेड़ा जाएगा। हुड्डा सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े अन्य सभी जातियों को भी दस प्रतिशत विशेष आरक्षण का प्रावधान बना दिया, ताकि उनकी नीति और नीयत पर कोई किसी तरह का शक न करे और जाटों के प्रति उनके छिपे एजेण्डे को कोई समझ न सके। हुड्डा ने तमिलनाडू में विशेष परिस्थितियों में दिए गए 70 फीसदी आरक्षण को सन्दर्भ बनाकर अपनी चाल चली और अंधेरे में तीर चलाते हुए प्रदेश में 69.5 प्रतिशत आरक्षण तय कर दिया। उन्हें भलीभांति पता था कि यदि जाटों को केन्द्र में ओबीसी का दर्जा मिल जाएगा तो हरियाणा में भी उन्हें स्वत: ओबीसी में स्थान मिल जायेगा।
          दूसरी तरफ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के एकेमेव नेता दिवंगत प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह को अपने वोट बैंक सेंध लगती देख जाट आरक्षण के मुद्दे को अपनी राजनीतिक ढ़ाल बनाने को विवश होना पड़ा। वर्ष 1999-2000 में उत्तर प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्ता ने जाटों को ओबीसी कोटे में शामिल करने की कोशिश की। लेकिन, उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग ने दो टूक कह दिया था कि जाट आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न हैं। इसलिए उन्हें आरक्षण देने की जरूरत नहीं है। इसी तरह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग भी मौजूदा आंकड़ों के आधार पर जाटों को वर्ष 1997 में हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के जाटों को ओबीसी में शामिल करने की मांग खारिज कर दी थी। इससे पहले भी वर्ष 1953 में काका कालेरकर और वर्ष 1978 में गठित मण्डल कमीशन आयोग ने भी जाटों को ओबीसी में शामिल करने योग्य नहीं समझा था।
          दरअसल, राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग किसी भी जाति को ओबीसी में तभी शामिल करने की सिफारिश करता है, जब यह सिद्ध हो जाये कि वह जाति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बुरी तरह पिछड़ गई है और उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उसे आरक्षण देने की आवश्कता है। शिक्षा के मामले में भी जाट जाति सर्वोच्च है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। सरकारी स्कूलों में जाटों के बच्चों की संख्या और प्राईवेट एवं हाईफाई स्कूलों में दलित व पिछड़े बच्चों की संख्या न के बराबर मिलेगी। डॉक्टरी पेशे से लेकर इंजीनियरिंग तक और एक कॉलेज से लेकर आईटी इंस्टीच्यूशंस तक जाटों के बच्चे बहुलता में मिलेंगे। इसलिए, जाट जाति न केवल सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में सुदृढ़ हैं, बल्कि राजनैतिक, आर्थिक, खेल, कृषि आदि हर क्षेत्र में अग्रणीय है। गाँव हो या शहर, टै्रक्टर, शानदार गाडिय़ां, आलीशान कोठियां-बंगले और हवेलियां, ए.सी., ऐशोआराम के सब साधन, बड़े-बड़े खेत व फार्म आदि सब जाटों के पास मिलेंगे। आधे से अधिक कृषि भूमि जाट लोगों के पास है। अन्य जातियां उनके सहारे ही गुजर-बसर करती हैं और उनके खेतों एवं फार्मों में मजदूरी करती हैं। दो से दस एकड़ तक जाट व्यक्ति के पास मौजूद है। इसी कारण हरित क्रांति एवं श्वेत क्रांति जैसी योजनाओं का सीधा लाभ भी जाट जाति को ही मिलता आया है। सरकार द्वारा अधिग्रहण मामलों में भी करोड़ों रूपया जाटों की ही झोली में जा चुका है और जा भी रहा है। 
          पुलिस से लेकर सेना तक और खेल से लेकर सिनेमा तक, शिक्षक से लेकर प्रशासक तक जाटों का प्रभुत्व स्थापित है। ऐसे में भला किस आधार पर कहा जा सकता है कि जाट ओबीसी में शामिल होने के मूल मानकों पर खरा उतरते हैं? कई उदारवादी जाट विद्वान एवं विदुषियां भी पर्दे के पीछे ईमानदारी से सहज स्वीकार करते हैं कि जाट पिछडऩे नहीं हैं, यह सब तो घटिया लोगों की घटिया राजनीति है। यदि जाट भी पिछड़े हो गये हैं तो फिर तो भला कौन सी जाति अगड़ी हो सकती है? ओबीसी में जाटों को शामिल करना, एक तरह से ओबीसी में शामिल जातियों के साथ सरासर अन्याय और उनके हितों पर गहरा कुठाराघात है। आखिर कैसे कहा जा सकता है कि जाट लोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए हैं? यक्ष प्रश्न यह है कि जो जाति सदियों से दलितों और पिछड़ों को अशोभनीय संज्ञाओं से नवाजती आई है। भला वह एकाएक उसी कतार में क्यों आ खड़ी हो गई? स्पष्ट है कि पिछड़ों की राज्यों और केन्द्र में लाखों पद बैकलॉग के हैं और लाखों पद रिक्त हैं, जिन्हें जल्द भरने के लिए सरकारों पर भारी दबाव है। संभवत: जाट लोग ओबीसी में शामिल होकर इन सभी पदों को हथियाने की मंशा रखते हैं। वे नहीं चाहते कि पिछड़े लोग इस बैकलॉग के माध्यम से सशक्तिकरण की तरफ बढ़ें।

सोमवार, 16 मार्च 2015

पहले भी हो चुका है श्रीमती स्मृति ईरानी के चरित्र हमला!


श्रीमती स्मृति ईरानी
Mrs. Smriti Irani's character has already been attacked repeatedly!
16 मार्च, 2015 का दिन देश के इतिहास में बेहद शर्मनाक दिनों की सूची में दर्ज हो गया। मानव संसाधन विकास मंत्री श्रीमती स्मृति ईरानी के चरित्र पर जिस तरह से जनता दल यू के नेता शरद पवार ने देश की सर्वोच्च संसद में चरित्र पर उंगली उठाई है, वह बेहद निंदनीय और शर्मनाक है। जब स्मृति ईरानी ने भारत की सांवली महिलाओं के संदर्भ में की गई टिप्पणी को शरद यादव से वापस लेने की मांग की तो वे एकाएक भड़क गए और नारी जाति के सम्मान को भूला बैठे। उन्होंने आपा खोते हुये कहा कि ‘मैं जानता हूँ कि आप क्या हैं?
                ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी श्रीमती ईरानी पर चारित्रिक हनन के रूप में हमला हो चुका है। इससे पहले कांग्रेस सांसद संजय निरूपम देश के प्रमुख हिन्दी समाचार चैनल एबीपी न्यूज की एक बहस के दौरान श्रीमती ईरानी पर चारित्रिक  टिप्पणी कर चुके हैं। जब श्रीमती ईरानी 20 दिसम्बर, 2012 को गुजरात और हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों के परिणामों पर आधारित चर्चा में भाग ले रहीं थीं तो बहस के दौरान संजय निरूपम ने आपा खोते हुए बेहद शर्मनाक टिप्पणी करते हुए कहा था कि ‘‘कल तक तो टेलीविजन पर ठुमके लगा रही थीं, आज राजनीतिज्ञ बनकर घूम रही हैं...सटअप! क्या करैक्टर है आपका?’’’
            निःसंदेह! श्रीमती स्मृति ईरानी के निजी जीवन एवं चारित्रक हनन वाले हमले बेहद शर्मनाक, निन्दनीय एवं अक्षम्य हैं। 
-राजेश कश्यप 

सोमवार, 9 मार्च 2015

काला पानी वाले क्रांतिकारी : जरा याद उन्हें भी कर लो!

10 मार्च/अण्डमान दिवस विशेष
काला पानी वाले क्रांतिकारी : जरा याद उन्हें भी कर लो!
-राजेश कश्यप
सेल्युलर जेल का बाहर खड़े लेखक राजेश कश्यप और इनसेट में शहीद क्रांतिकारियों  छायाचित्र
प्रतिवर्ष 10 मार्च को अण्डमान दिवस आता है। लेकिन, विडंबना का विषय है कि 26 जनवरी, 15 अगस्त आदि राष्ट्रीय पर्वों की भांति 10 मार्च की महत्ता को शायद ही कोई जानता हो। यह दिवस देश की आजादी के लिए अपना सर्वस्व कुर्बान करने और अंग्रेजों की कू्ररता की हर हदों को पार करने वाले उन महान क्रांतिकारियों के स्मरण का है, जिन्हें समुन्द्र पार 'काला पानी' (अण्डेमान-निकोबार) की सेल्यूलर जेल में डाल दिया गया था। स्वतंत्रता की वेदी पर अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले असंख्य काला पानी वाले अमर क्रांतिकारियों की पुण्यभूमि अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह की यात्रा करने का परम सौभाग्य मिला।  इस द्वीप समूह का कण-कण देश के असंख्य वीर बलिदानियेां के असीम त्याग, कष्ट और कुर्बानियों से जगमगा राहा है। यहां की फिज़ाओं में राष्ट्र-बलिदानियों के शौर्य, स्वाभिमान और जज़्बे की सुर-लहरियां सुनाई देती हैं। अण्डमान की राजधानी पोर्ट-ब्लेयर की हृदय-स्थली पर स्थित राष्ट्रीय स्मारक 'सेल्यूलर जेल' आजादी के जंग-ऐ-सिपाहियों पर ब्रिटिश सरकार द्वारा ढ़ाए गए जुल्मो-सितम की दास्तां चीख-चीखकर बयां कर रही है। यहां की अनूठी, अनुपम और मनोहारी प्राकृतिक छठाओं, अथाह समुद्र की संगीतमयी तान और चहुंओर छाई स्वर्गमयी आभा को देखकर यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कभी यहां पर 'नरक' से भी बदतर आलम रहा होगा।
सेल्युलर जेल का विहंगम दृश्य
अण्डमान को 'काला पानी' कहा जाता है। संभवत: यह नाम समुद्र के अनंत नीले गहरे पानी के झलके कालेपन के कारण पड़ा हो। जब भी किसी क्रांतिकारी ने अंग्रेजी सरकार के खिलाफ खुली बगावत की और अंग्रेजी राज को चुनौती दी तो उन्हें 'काला पानी' भेज दिया गया। बेशक, आज भी अण्डमान को सहज रूप् में 'काला पानी' कहकर संबोधित किया जाता हो। लेकिन, सेल्यूलर जेल के महानायकों में शामिल रहे गणेश दोमादर सावरकर ने लिखा :
यह तीर्थ महातीर्थों का है,
मत कहो इसे काला पानी।
तुम सुनो यहां की धरती के,
कण-कण से गाथा बलिदानी।।
यह महातीर्थं असंख्य जाने-अनजाने देशभक्त क्रांतिकारियों के खून-पसीने और प्राणों से संचित है। देश की आजादी के जंगबाजों की आत्माएं, आज भी मुख्य भूमि से आने वाले अपने वतन के लोगों के दर्शनों की बाट जोहती रहती हैं। सन 1857 के स्वाधीनता संग्राम में पकड़े गए 200 राज बन्दियों को पहली बार डॉ. वाकर की अगुवाई में 10 मार्च, 1858 को यहां के चाथम द्वीप पर उतारा गया। तभी यहां पर सभ्य मानव समाज की सभ्यता का आगाज हुआ। इसी ऐतिहासिक एवं क्रांतिकारी तिथि को प्रतिवर्ष पूरे गर्व एवं स्वाभिमान के साथ 'अण्डमान दिवस' मनाया जाता है।
इतिहास के पन्ने खंगालने पर पता चलता है कि रामायण काल में श्रीराम ने लंका पर धावा बोलने के लिए अण्डमान के इन्हीं अनजान द्वीपों को चुना था। यहां की परिस्थितियों का पता लगाने के लिए इस द्वीप पर हनुमान को भेजा गया था। उन्हीं के नाम पर इस द्वीप का नाम 'हंडूमान' पड़ा। कालान्तर में यह 'हंदूमान' से होता हुआ, 'अण्डमान' हो गया। इन द्वीपों को रोमन के भूगोलशास्त्री टॉल्मी ने सर्वप्रथम दुनिया के नक्शे पर अंकित किया और इसे नाम दिया, 'अगमाते'। इसका मतलब होता है, 'सौभाग्य के टापू'।
सेल्युलर जेल का दृश्य
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की चिंगारी 10 मई, 1857 को फूट पड़ी थी। इस संग्राम के 200 क्रांतिकारियों को राजबन्दी के रूप में 'काले पानी' यानी अण्डमान भेजने की सजा सुनाई गई। इन 200 क्रांतिकारियों को जलवाष्प् अंग्रेजी फ्रिगेट 'एस.एस. सेमीरामी' द्वारा 10 मार्च, 1858 को पिनल सेटलमैंट के तहत यहां लाया गया। इन क्रांतिकारियों को अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में गिरफ्तार करके अंग्रेज अफसर डॉ. जे.पी. वाकर की निगरानी में यहां भेजा गया था। इसके बाद अण्डमान में जे.पी. वाकर और स्वतंत्रता सेनानियों की एक ऐसी दुनिया का आगाज हुआ, जिसने पूरी मानवता को हिलाकर रख दिया।
अंग्रेज सरकार ने 20 नवम्बर, 1857 को अण्डमान कमेटी का निर्माण किया था, जिसमें डा. फ्रे डरिक जॉन मोट सर्जन बंगाल आर्मी की अध्यक्षता में समिति ने कार्य करना शुरू किया। कमेटी ने 1 जनवरी, 1858 को गवर्नर जनरल को अपनी रिपोर्ट दे दी। इसके 15 दिन बाद अण्डमान में पिनल सेटलमेंट शुरू करने का निर्णय लिया गया। कैप्टर हैनरी मान को आदेश दिया गया कि वे वहां ब्रिटिश ध्वज युनियन जैक लेकर वहां फहराएं और अण्डमान द्वीप समूहों को अपने अधीन कर लें। कैप्टन मान द्वारा अण्डमान में 22 जनवरी, 1858 को यूनियन जैक ध्वज फहराते ही ये द्वीप अंग्रेजी शासन के अधीन हो गये।
जेम्स पेटरसन वाकर की निगरानी में 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के 200 क्रांतिकारियों में शामिल राजबंदी संख्या 46 निरगुण सिंह यहां आने के महज चार दिन के बाद ही स्वयं ही फांसी के फंदे पर झूल गए। निरगुण सिंह अंग्रेजी पलटन का बागी सिपाही और बंगाल प्रांत के नादिया जिले का निवासी था। पलटन के विरूद्ध बगावत करने के जुर्म में उन्हें 31 जुलाई, 1857 को काले पानी की सजा सुनाई गई थी। इनके अलावा मुख्य भूमि के दानापुर सैनिक छावनी के फौजी जवान नारायण को भी यहां विद्रोह के अपराध में लाया गया था। वह किसी तरह चाथम द्वीप से समुद्र में छलांग लगाकर भाग निकला। लेकिन, बाद उसे मोटरबोट द्वारा पकड़ लिया गया। वह समुद्र पार करके बर्मा जाना चाहता था। पकड़े जाने और उसकी मंशा जानने के बाद ब्रिटिश सरकार ने उन्हें फांसी के फन्दे पर लटका दिया। इसके बाद तो फाँसियों का सिलसिला ही चल निकला। धीरे-धीरे अण्डमान द्वीप क्रांतिकारियों की चीख-पुकार और कराहटों से भर गया और उनकीं कब्रगाह बनता चला गया।
18 मार्च, 1858 को 21 बंदियों ने भी समुद्र पार करके साऊथ प्वाईंट इलाके में जाने की भरसक कोशिश इस गलतफहमी में की कि यहां दूसरी ओर बर्मा है। वे अपनी कोशिश में कामयाब नहीं हो पाए और दो दिन बाद ही 23 मार्च, 1858 को सभी पकड़ लिए गये। इसी तरह बंदियों द्वारा फरार होने का सिलसिला गाहे-बगाहे जारी रहा।
16 जून, 1858 तक कुल 773 बंदियों को अण्डमान में चाथम द्वीप पर लाया गया। 60 बंदियों की नाजुक हालत होने पर अस्पताल में दाखिल किया गया। 66 बंदियों की मलेरिया व अन्य रोगों के कारण अकाल दर्दनाक मौत हो गई। 228 कैदी भी फरार हो गए। इससे डा. जे.पी. वाकर बुरी तरह बौखला उठा और वह अपने शैतानी पर उतर आया। फ रार कैदियों में से 87 को पकडऩे में वह कामयाब हो गया। शेष बन्दियों में दहशत पैरा करने और भागने से पहले सौ बार सोचने के उद्देश्य से वाकर ने इन 87 बंदियों को ऐसी दर्दनाक और रूह कंपाने वाली मौत दी की अण्डमान का जर्रा-जर्रा भी दहशत से भर उठा।
कालापानी का एक क्रांतिवीर शहीद बाबा भान सिंह
10 मार्च, 1858 के अंत तक यहां कैदियों की संख्या बढक़र 1949 हो चुकी थी और इस संख्या में निरन्तर इजाफा होता चला जा रहा था। डा. वाकर द्वारा बंदियों को भयानक मौत देने का सिलसिला जारी था। अब तक कुल 91 लोग डा. वाकर की हैवानियत का शिकार होकर मौत के मुंह में समा चुके थे। इसके दूसरी तरफ डा. वाकर ने 89 बंदियों को उनके चाल-चलन के कारण उनकीं सजा को कम करके मुक्त कर दिया और वहीं द्वीप पर बसने के लिए प्रेरित किया। इसके साथ ही जीवन-यापन की सभी आवश्यक सुविधाएं भी उन्हें मुहैया करवाईं। इस तरह वाकर ने देश के राजबंदियों की एक नई दुनिया अण्डमान में आबाद करने की मजबूत नींव डाली। इसके बाद अण्डमान एक नई दुनिया के रूप में विकसित होता चला गया।
इसी बीच डा. वाकर की हत्या का षडय़ंत्र 200 पंजाबी मूल के बंदियों ने रच डाला। जैसे ही 1 अप्रैल, 1859 की सुबह एक बंदी सरदार सवर शाह ने चोरी की गई बन्दूक से डा. वाकर पर निशाना साधा, मौके पर तैनात कर्मचारी मथुरादास ने उनकीं बन्दूक पर झपटा मार डाला। यह देखकर दूसरे बन्दी मोहम्मद ने मथुरादास पर हमला बोल दिया। इसी बीच गार्डों ने तेजी से दोनों बंदियों को दबोच लिया और बाद में उन्हें मौत की सजा दे दी।
'अबर्डीन युद्ध' के शहीदी स्मारक पर शीश नवाते हुए लेखक राजेश कश्यप
वर्ष 1859 में 'अबर्डीन युद्ध' एक नया इतिहास रचते-रचते रह गया। 17 मई, 1859 को बड़े सवेरे आदिवासियों के एक बड़े दल ने समुद्र किनारे अबर्डीन जेटी के पास बनी अंग्रेजी चौकी पर भारी हमला बोल दिया। लेकिन, इससे पूर्व ही उनके द्वारा जीवन-दान पाए दूधनाथ तिवारी नामक बंदी ने डा. वाकर को सारी गुप्त जानकारियों दे दी थीं। सूचना पाकर अंग्रेजी सरकार ने हमले का मुंहतोड़ जवाब देने की सारी तैयारियां कर ली थी। इसी वजह से आदिवासियों के तीर-कमान अंग्रेजी तोपों और बन्दूकों के सामने बौने सिद्ध हो गए और नया इतिहास रचते-रचते रह गया। दूधनाथ तिवारी की इस वफादारी से खुश होकर वाकर ने उसे रिहा कर दिया।
डा. वाकर के बाद 3 अक्तूबर, 1859 को कैप्टन हैगटन को नया अधीक्षक बनाया गया। वर्ष 1864 में कर्नल फोर्ड को इस द्वीप समूह के उपनिवेष का प्रभारी बनया गया। उस समय यहां कैदियों की संख्या 6965 तक जा पहुंची थी। इनमें से एक बंदी शेरअली पठान था। काले पानी की सजा से पूर्व वह अंग्रेजी फौज का सिपाही था। जमीन के मामले में खून करने पर उसे काले पानी की सजा हो गई। लेकिन, सजा पूरी होने के बावजूद उसे रिहा नहीं किया गया। इससे वह अंग्रेजों के प्रति बुरी तरह कुंठित रहने लगा और इसका बदला लेने का मौका ढूंढने लगा। जब शेरअली को 7 फरवरी, 1872 को एक अंग्रेज अफसर के यहां आने का समाचार मिला तो उसने उसकी हत्या की योजना बना डाली। शेरअली ने योजना के मुताबिक द्वीप की सैर करके लौट रहे अंग्रेज अफसर लार्ड मेयो पर 8 फरवरी, 1872 को तेजधार से जानलेवा हमला बोल दिया। कुछ देर पश्चात ही लार्ड मेया की मौत हो गई। शेरअली पठान को पकड़ लिया गया और उसे फांसी पर लटका दिया गया।
आगे चलकर वर्ष 1896 से वर्ष 1906 के दौरान 'सेल्यूलर जेल' (इंडियन बैस्टिल) का निर्माण किया गया। इस जेल में हजारों देशभक्त स्वतंत्रता सेनानियों ने क्रूरतम यातनाओं को सहा और अपना अमिट बलिदान दिया। सेल्यूलर जेल के प्रवेश द्वार पर इस जेल की महत्ता के बारे में संक्षिप्त विवरण अंकित करते हुए बताया गया है कि सेल्यूलर जेल ब्रिटिशराज की बर्बरतापूर्ण अनकही यातनाओं की स्मृति व उसके विरोध में निर्भिक क्रांतिकारियों की साहसिक अवज्ञा का मूक साक्षी कारागार है। इसे यह नाम 'सेल्यूलर जेल' इसकी विशिष्ट माप की 698 काल कोठरियों के अनुरूप दिया गया है। इसका निर्माण अक्तूबर, 1896 से आरम्भ होकर वर्ष 1906 तक 5,17,352 रूपये की अनुमानित लागत से पूर्ण हुआ। स्वतंत्रता संग्राम के सेनानियों के सम्मानार्थ सेल्यूलर जेल को भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के कर कमलों द्वारा 11 फरवरी, 1979 को राष्ट्र को समर्पित किया गया। यह राष्ट्रीय स्मारक भारत के गौरवशाली इतिहास का ज्वलंत प्रतीक है।
सेल्युलर जेल का मॉडल
इस जेल के निर्माण में 3 लाख ईंटों का प्रयोग हुआ है। हर कोठरी 13.5 फुट लंबी व 7 फुट चौड़ी और 10 फुट ऊंची है। कोठरी का लौह दरवाजा गेट दीवार से 3 फुट की रॉड के साथ बंद होता है। कोई भी कैदी इसे खोल नहीं सकता था और न ही अपने विचार दूसरे तक पहुंचा सकता था। इन कोठरियों में कैदियों को नारकीय जीवन और सन्नाटेदार कौड़ों के बीच बिताने को विवश होना पड़ता था। 12 घण्टे के रात्रिकाल में कैदियों को पेशाब के लिए केवल एक छोटा-सा मिट्टी का बर्तन दिया जाता था, जोकि एक बार में ही भर जाता था। शौच पर तो काबू पाना पड़ता था, उन्हें शौच जाने की कतई इजाजत नहीं दी जाती थी।
सेल्युलर जेल की वह विशेष कल कोठारी जिसमें दस साल तक वीर सावरकर को कैद करके रखा गया था
वीर सावरकर ने जेल के नारकीय जीवन के बारे में लिखा है कि ''जेल की कठोर यातनाएं जेल में बंदी क्रांतिकारियों के मन और शरीर पर बुरा प्रभाव डालती थी। इस जेल का कारावास बहुत कठिन और कठोरता से भरा था। जेल के राजनीतिक कैदियों को नारियल के छिलके को कूट-कूटकर स्वच्छ करना, सरसों और नारियल का तेल निकालना, बैल की तरह कोल्हू को खींचना, चाहे आप बीमार ही क्यों न हों। खाना इतना दूषित विषैला था कि एक अच्छे हृष्ट पुष्ट इन्सान को भी बीमार कर दे। जली-कच्ची रोटियां, दाल और सब्जी में कीड़े-मकौड़ों की भरमार और घासफूस होना आम बात थी। आप डिसेन्ट्री या बीमार हालत में टट्टी नहीं कर सकते थे। इस हालत में कोठरी का बूरा हाल हो जाता था। दुर्गन्ध के सिवाय कुछ नहीं था। इन हालातों का सामना पढ़े-लिखे पत्रकार, लेखक, विद्वान क्रांतिकारियों को आये दिन करना पड़ता था।"
जेल के प्रवेश द्वार सामने वीर सावरकर पार्क का निर्माण किया गया है, जिनमें उन 6 वीर क्रांतिकारियों की आदमकद प्रतिमाएं लगाई गई हैं, जिन्होंने जेल की अमानुषिक यातनाएं सहते हुए अपनी शहादतें दे दीं। इन वीर शहीद क्रांतिकारियों के नाम हैं : इंदु भूषण रे, बाबा भान सिंह, मोहित मोइत्रा, रामरक्शा, महावीर सिंह और मोहन किशोर नामदास।
कालापानी का एक क्रांतिवीर शहीद  रॉय 
वर्ष 1910 में सेल्यूलर जेल में राजनैतिक बंदियों के रूप में बारिन्द्र कुमार घोष, उपेन्द्रनाथ बनर्जी, हेमचन्द्र दास, उल्हासकर दत्त, इंदू भूषण रे, विभूति भूषण सरकार, ऋषिकेश कांजीवाल, सुधीर कुमार सरकार, अविनाश चन्द्र्र भट्टाचार्य, बीरेन्द्र चन्द्रसेन आदि शामिल थे। वीर विनायक दामोदर सावरकर और उनके बड़े भाई पहले ही इस जेल में कैद थे। सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि दोनों भाईयों को एक साल तक एक-दूसरे का पता तक नहीं चल सका था।
वर्ष 1937 और वर्ष 1939 में सेल्यूलर जेल के क्रांतिकारियों ने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लंबी भूख हड़ताल की। अंतत: विवश होकर अंग्रेजी सरकार ने वर्ष 1938 में सभी राजनीतिक बंदियों को सेल्यूलर जेल से मुख्य देश की जेलों में भेज दिया।
महायुद्ध के दौरान अण्डमान के द्वीप 22 मार्च, 1942 से 7 अक्तूबर, 1945 तक जापानी प्रशासन के अधीन आ गए। जापानियों ने स्पाई केस में काफी स्थानीय लोगों को दोषी करार दिया और उन पर भयंकर जुल्म ढ़ाए। अनेक लोगों को काल कोठरियों में बंद कर दिया गया। खुले मैदान में लोगों को बुरी मौत मारा गया। लोगों को समुद्र में कूदकर अपनी जान देने को विवश कर दिया गया। समुद्र में जीवन की जंग लडऩे वाले लोगों के सिर पर बोट घुमा दी गईं। इन सब तमाम अत्याचारों का समाचार पाकर आजाद हिन्द फौज के नायक नेताजी सुभाषचन्द बोस वास्तविकता देखने के लिए यहां 29, 30, 31 दिसम्बर, 1943 को तीन दिवसीय दौरे पर पहुंचे। 30 दिसम्बर को उन्होंने जिमखाना मैदान में भारत का तत्कालीन ध्वज फहराया और अण्डमान को 'शहीद' व निकोबार को 'स्वराज' दीप का नाम दिया। इस प्रकार नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने प्रोविजनल गर्वमेंट ऑफ आजाद हिन्द के नेता के रूप में 29 दिसम्बर, 1943 को द्वीपों पर पहुंचकर यहां की धरती पर पहली बार भारत की आजादी का तिरंगा फहराया। दूसरे विश्वयुद्ध में जापानियों की हार के बाद इन द्वीपों पर पुन: अक्तूबर, 1945 में अंग्रेजों का आधिपत्य स्थापित हो गया।
सेल्युलर जेल बना हुआ शहीद स्मारक
बेहद विडम्बना का विषय है कि अण्डमान में अपना सर्वस्व नौछावर करने वाले शहीदों व क्रांतिकारियों के बारे में नई पीढ़ी को न के बराबर ज्ञान है। प्रतिवर्ष 10 मार्च को 'अण्डमान दिवस' पर इन जाने-अनजाने शहीद क्रांतिकारियों की कुर्बानियों को याद करना और उन्हें नमन करना प्रत्येक देशवासी का नैतिक फर्ज बनता है। शहीद राम प्रसाद बिस्मिल के शब्दों में:
''नौजवानों! जो तबीयत में तुम्हारी खटके!
याद कर लेना कभी, हमको भी भूले-भटके!!"


लेख व छाया : राजेश कश्यप