विशेष
दो नए 'भारत-रत्न' : संक्षिप्त परिचय
-राजेश कश्यप
देश के राष्ट्रपति महामहिम प्रणव मुखर्जी ने श्री अटल बिहारी वाजपेयी और महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी को देश के सर्वोच्च सम्मान 'भारत-रत्न' से अंलंकृत किया है। 'भारत-रत्न' के नाम पर सरकार और विपक्ष के बीच खींचतान जबरदस्त राजनीति देखने को मिलती रहती है। लेकिन, पहली बार इन दोनों महान शख्यितों को 'भारत-रत्न' दिये जाने पर सर्वत्र स्वागत किया गया है। स्वर सामाज्ञी लता मंगेशकर ने तो श्री अटल बिहारी वाजपेयी के सन्दर्भ में अपनी भावनाएं प्रकट करते हुए कहा कि यह सम्मान तो उन्हें बहुत पहले मिल जाना चाहिए था। ऐसा हो भी सकता था। जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे, तब भी उन्हें 'भारत-रत्न' देने की मांग ने जोर पकड़ा था। लेकिन, तब वाजपेयी जी ने इन सब मांगों को यह कहकर दरकिनार कर दिया था कि मैं स्वयं को ही 'भारत-रत्न' कैसे दे दूं? अपनी सरकार में स्वयं ही को 'भारत-रत्न' देना अटल बिहारी वाजपेयी को बिलकुल नागवारा था। यदि मैं इसके लायक लगा तो कोई दूसरी सरकार 'भारत-रत्न' दे देगी। दोनों महान शख्सियतों को उनके जन्मदिवस 25 दिसम्बर को 'भारत-रत्न' दिए जाने की घोषणा होते ही देशभर में खुशी की लहर दौड़ गई। आईये] इन दोनों महान हस्तियों के अनूठे एवं आदर्श जीवन से रूबरू होते हैं।
'स्टेट्समैन' श्री अटल बिहारी वाजपेयी
उच्चकोटि के राजनेता, कवि, विचारक, पत्रकार, वक्ता श्री अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म 25 दिसम्बर, 1924 को ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी के घर श्रीमती कृष्णा देवी की कोख से हुआ। उनके तीन भाई अवध बिहारी, सदा बिहारी एवं पे्रम बिहारी और तीन बहनें विमला, कमला एवं उर्मिला हुईं। उस समय शायद ही किसी ने कल्पना की होगी कि बालक अटल बिहारी आगे चलकर 'भारत-रत्न' की उपाधि से अलंकृत किया जायेगा। उनके पिता श्री कृष्ण बिहारी वाजपेयी संस्कृत के बड़े विद्वान और पेशे से शिक्षक थे। वे हिन्दी एवं ब्रज भाषा के एक अच्छे कवि भी थे और उनकी एक रचना प्रार्थना के रूप में ग्वालियर के स्कूलों में पढ़ाई जाती थी। पिता के कवि गुण नन्हे बालक अटल में भी देखने को मिले।
अटल बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। उनकीं प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर में हुई। उन्होंने ग्वालियर के विक्टोरिया कॉलेज (आज लक्ष्मीबाई कॉलेज) से स्नातक (बी.ए.) की शिक्षा उत्तीर्ण की। वे कॉलेज में छात्र संघ के मंत्री एवं उपाध्यक्ष भी बने। अटल छात्रजीवन में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के साथ जुड़ गए। उन्होंने एक स्वयंसेवक के रूप में अथक एवं असीम सेवा की और आजीवन अविवाहित रहने का संकल्प लिया। अटल राष्ट्रीय स्तर की वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में बढ़चढक़र भाग लेते थे। अटल बिहारी वाजपेयी ने महात्मा गाँधी द्वारा चलाये गए 'अंग्रेजो भारत छोड़ोÓ अभियान में भी भाग लिया था और इसके लिए उन्हें जेल में भी जाना पड़ा था। वे उस समय नाबालिग थे। इसी वजह से उन्हें आगरा जेल की बच्चा-बैरक में रखा गया था और चौबीस दिन के बाद उन्हें रिहा किया गया था।
अटल ने कानपुर के डी.ए.वी. कॉलेज से राजनीति शास्त्र में स्नातकोत्तर (एम.ए.) की डिग्री प्रथम श्रेणी में हासिल की। इसके बाद उन्होंने कानपुर में रहते हुए ही एल.एल.बी. की शिक्षा प्रारम्भ की। लेकिन, कुछ समय के बाद वे एल.एल.बी. की शिक्षा बीच में ही छोडक़र राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की सेवा में पूर्णत: समर्पित हो गए। इसके साथ ही उन्होंने पंडित दीनदयाल के निर्देशन में राजनीति का पाठ भी पढऩा शुरू किया। उन्होंने एक उत्कृट पत्रकार के रूप में 'राष्ट्रधर्म', 'पाँचजन्य', 'वीर-अर्जुन' आदि समाचार पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादक के रूप में भी अपनी सेवाएं दीं। वे वर्ष 1951 में भारतीय जनसंघ के संस्थापक सदस्य बने। संगठन में उनकीं बहुमुखी प्रतिभा का हर कोई कायल हो गया। उन्हें चुनावों में उतारा गया। भारतीय जनसंघ ने उन्हें वर्ष 1957 के चुनावों में तीन सीटों पर अपना उम्मीदवार बनाया, जिनमें से बलरामपुर सीट को अटल बिहारी वाजपेयी जीतने में कामयाब हो गए। इसके बाद तो उनका संसदीय सफरनामा ऐसा चला कि सब देखते रह गए।
अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने राजनीतिक जीवन में कई बुलन्दियों को छुआ। वे दस बार लोकसभा सांसद और दो बार राज्यसभा सांसद चुने गए। वे लोकसभा के लिए वर्ष 1957 व वर्ष 1961 में बलरामपुर से, वर्ष 1971 में ग्वालियर से, वर्ष 1977 व वर्ष 1980 में नई दिल्ली से, वर्ष 1991 में विदिशा से, वर्ष 1996 में गाँधीनगर से और वर्ष 1998, वर्ष 1999 व वर्ष 2004 में लखनऊ से चुने गए। उन्होंने लोकसभा में कुल मिलाकर चार राज्यों उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, गुजरात और दिल्ली का प्रतिनिधित्व किया। वे दो बार वर्ष 1962 एवं वर्ष 1986 में राज्यसभा के लिए भी चुने गए। इसी दौरान वे वर्ष 1968 से वर्ष 1973 तक भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी बने।
अटल बिहारी वाजपेयी देश के तीन बार प्रधानमंत्री बने। पहली बार वे 16 मई, 1996 को प्रधानमंत्री बने, लेकिन लोकसभा में बहुमत न होने के कारण उन्हें मात्र 13 दिन बाद ही 31 मई, 1996 को त्यागपत्र देना पड़ा। इसके बाद वे विपक्ष के नेता चुने गए। अटल बिहारी वाजपेयी 19 मार्च, 1998 को दूसरी बार देश के प्रधानमंत्री बने और 13 माह बाद गठबन्धन दल सहयोगी एआईएडीएमके द्वारा समर्थन वापिस लेने के कारण 12 अक्तूबर, 1999 को सरकार गिर गई। इसके बाद फिर आम चुनाव हुए और एनडीए पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में लौटा। तीसरी बार फिर से एनडीए ने अटल बिहारी वाजपेयी के प्रति अपना विश्वास जताया और उन्हें प्रधानमंत्री चुन लिया गया। इस बार वे पूरे पाँच वर्ष 13 मई, 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे।
अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्रीत्व काल के दौरान देश ने कई ऐतिहासिक उपलब्धियाँ हासिल कीं। उनके नेतृत्व में 11 एवं 13 मई, 1998 के पोखरण में पाँच भूमिगत परमाण परीक्षण करने के बाद भारत विश्व की परमाणु शक्ति सम्पन्न देशों की श्रेणी में शामिल हुआ। 19 फरवरी, 1999 को प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने 'सदा-ए-सरहद' नामक बस सेवा दिल्ली-लाहौर के बीच शुरू की और वे स्वयं इस बस में सवार होकर पाकिस्तान पहुँचे। वर्ष 1999 की 'कारगिल विजय' भी प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की प्रमुख उपलब्धियों में से एक रही। अटल बिहारी वाजपेयी देश के पहले गैर-कांग्रेसी प्रधानमंत्री के रूप में दर्ज हुए। वे पहले ऐसे विदेश मंत्री के रूप में दर्ज हुए, जिन्होंने वर्ष 1977 में यूएनओ में पहली बार हिन्दी में अपना भाषण दिया। उन्हें पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद देश का दूसरा 'पोलिटिकल स्टेट्समैन' माना गया। उनकीं साहित्यिक रचनाओं ने राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की। अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी अनूठी नेतृत्व कौशलता का परिचय देते हुए 24 राजनीतिक दलों को संगठित करके 81 मंत्रियों के साथ सरकार चलाकर देश की राजनीति में एक अनूठा अध्याय जोड़ा।
वर्ष 1999 में कारगिल युद्ध के बाद जब अटल बिहारी वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने तो पार्टी के कई नेताओं ने उन्हें 'भारत-रत्न' से नवाजे जाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन, प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस प्रस्ताव को सिरे से ही नकार दिया। उन्होंने कहा कि ये उचित नहीं लगता कि अपनी सरकार में खुद को ही सम्मानित किया जाए। इसके बाद कुछ मंत्रियों ने योजना बनाई कि जब वाजपेयी जी विदेशी दौरे पर हों, तब उन्हें 'भारत-रत्न' देने की घोषणा कर दी जाये। लेकिन, इस योजना की भनक अटल जी को लग गई और इस पर वे बेहद सख्ती से पेश आए। उनके तेवरों को देखते हुए फिर किसी ने इस तरह की कोशिश करने का साहस नहीं किया। हालांकि, इससे पहले अटल बिहारी वाजपेयी को कई विशिष्ट सम्मानों से नवाजा जा चुका था। वर्ष 1992 में उन्हें 'पदम विभूषण' से नवाजा गया था। वर्ष 1993 में कानपुर विश्वविद्यालय ने उन्हें 'डी-लिट्' की उपाधि से विभूषित किया था। वर्ष 1994 में उन्हें 'श्रेष्ठ सांसद' एवं 'लोकमान्य तिलक पुरस्कार' से अलंकृत किया गया था। इसके साथ ही उन्हें 'भारत-रत्न गोविन्द बल्लभपन्त पुरस्कार' से भी सम्मानित किया गया था।
'महामना' पंडित मदन मोहन मालवीय
'महामना', 'हिन्दी के भगीरथ', 'युगपुरूष' आदि अनेक उपनामों से विख्यात पंडित मदन मोहन मालवीय का जन्म 25 दिसम्बर, 1801 को इलाहाबाद में बैजनाथ मालवीय के घर श्रीमती भूना देवी की कोख से हुआ। उनके पिता संस्कृत के उच्चकोटि के विद्वान थे और भागवत-कथा के विशिष्ट वाचक थे। वे अपने पिता की सात संतानों में से पाँचवीं संतान थे। उनका बचपन बेहद गरीबी में बीता। वे बचपन से महामेधा के धनी थे। उन्होंने कलकत्ता यूनिवर्सिटी से स्ननातक (बी.ए.) की शिक्षा उत्तीर्ण की। इसके बाद उन्होंने इलाहाबाद के एक स्कूल में अध्यापक के रूप में अपने कैरियर की शुरूआत की। मात्र 16 वर्ष की आयु में उनका विवाह मिर्जापुर की सुशील कन्या कुन्दन देवी के साथ हो गया। उन्होंने वर्ष 1991 में एलएलबी की डिग्री हासिल की और उच्च न्यायालय में वकालत करने लगे। उन्होंने राष्ट्रसेवा के लिए वर्ष 1913 में ही वकालत छोड़ दी। हालांकि पंडित मदन मोहन मालवीय वर्ष 1886 से ही कांगे्रस से जुड़ गए थे।
इस वर्ष के वार्षिक अधिवेशन में उनका सम्बोधन बेहद प्रभावशाली रहा। कलकता में ए.ओ. ह्यूम की अध्यक्षता में हुए अधिवेशन के बाद ए.ओ. ह्यूम ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि 'युवा मदनमोहन मालवीय ने अधिवेशन में अपनी प्रखरता की छाप छोड़ी।' इससे प्रभावित होकर कालाकांकर नरेश राजा रामपाल सिंह ने उन्हें अपने नव प्रकाशित समाचार पत्र साप्तिाहिक हिन्दुस्तान का सम्पादक बना दिया। मालवीय जी ने अढ़ाई वर्ष तक बतौर सम्पादक अपनी सेवाएं दीं। इसके अलावा उन्होंने इलाहाबाद से अंग्रेजी समाचार पत्र 'दि लीडर' का प्रकाशन शुरू किया। आगे चलकर वर्ष 1909 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के अध्यक्ष चुन लिये गए। इस पद पर वे 1918 तक रहे। इसके बाद वे वर्ष 1930 और वर्ष 1932 में भी भारतीय राष्ट्रीय कांगे्रस के अध्यक्ष चुने गए। इस अवधि के दौरान उन्होंने राष्ट्रहित में असीम एवं उल्लेखनीय सेवाएं दीं। उनकीं जीवनशैली और गुणों से प्रभावित होकर महात्मा गाँधी ने उन्हें 'महामना' की उपाधि से सम्बोधित किया।
पंडित मदन मोहन मालवीय वर्ष 1903 से वर्ष 1918 तक प्रांतीय विधायी परिषद के सदस्य रहे। वे वर्ष 1910 से वर्ष वर्ष 1920 के दौरान केन्द्रीय परिषद के सदस्य भी रहे। मालवीय जी ने वर्ष 1924 से वर्ष 1930 तक लोकसभा के सदस्य के रूप में भी काम किया। उन्होंने वर्ष 1931 में दूसरे राऊण्ड टेबल कांफे्रस में भाग लिया। उन्होंने वर्ष 1937 में सक्रिय राजनीति से सन्यास ले लिया।
जब 'चौरीचौरा' केस में 177 स्वतंत्रता सेनानियों को मृत्युदण्ड की सजा सुनाई गई तो पंडित मदन मोहन मालवीय का खून खौल उठा। उन्होंने इसके विरूद्ध अदालत में अपनी वकालत का अचूक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया और 156 स्वतंत्रता सेनानियों को बरी करवाकर दम लिया। उन्होंने वर्ष 1911 में एनी बेसेंट के साथ मिलकर वाराणासी में 'बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय' की स्थापना का अटूट संकल्प लिया। जब तक यह विश्वविद्यालय बनकर तैयार नहीं हो गया, तब तक पंडित मदन मोहन मालवीय ने चैन की सांस नहीं ली। उन्होंने इसके लिए भारी मात्रा में चन्दा जुटाया और विश्वविद्यालय के निर्माण में महत्ती भूमिका निभाई। इससे पूर्व उन्होंने वर्ष 1909 में 'स्काऊट आन्दोलन' की नींव भी रखी। देशभर में 'सत्यमेव जयते' के नारे का उद्घोष सर्वप्रथम मालवीय जी ने ही किया था। इसके साथ ही हरिद्वार में 'हर की पौड़ी' में गंगा जी की सांध्य आरती का आगाज करने का श्रेय भी पंडित मदन मोहन मालवीय जी को ही जाता है। जब अंगे्रजों ने गंगा स्नान पर प्रतिबंध लगाया तो इसके विरूद्ध मालवीय ने डटकर संघर्ष लिया और जब तक यह प्रतिबंध नहीं हटाया गया, उन्होंने अपने कदम पीछे नहीं हटाए।
पंडित मदन मोहन मालवीय जी वर्ष 1912 से वर्ष 1926 तक सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के सदस्य रहे। उन्होंने असहयोग आन्दोलन और खिलाफत आन्दोलन में अग्रणीय भूमिका निभाई। उन्होंने वर्ष 1928 में लाला लाजपत राय और पंडित जवाहर लाल नेहरू के साथ साईमन कमीशन के विरूद्ध देशव्यापी प्रदर्शनों का बखूबी नेतृत्व किया। वे राष्ट्रीय एकता की प्रतिमूर्ति बनकर उभरे। एक बार एनी बेसेन्ट ने मालवीय जी की उत्कृष्ट शैली से प्रभावित होकर कहा था कि ''मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि विभिन्न मतों के बीच केवल मालवीय जी ही भारतीय एकता की मूर्ति बने खड़े हैं।'' इसी तरह राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी ने उनके बारे में कहा था कि ''मैं तो मालवीय जी महाराज का पुजारी हूँ। यौवनकाल से प्रारंभ होकर आज तक उनकी देशभक्ति का प्रवाह अविछिन्न चलता आया है। मैं उनको सर्वश्रेष्ठ हिन्दू मानता हूँ। यद्यपि आचार में बड़े ही नियमित हैं, किन्तु विचार में बड़े उदार हैं। वे किसी से द्वेष कर ही नहीं सकते, उनके विशाल हृदय में शत्रु भी समा सकते हैं।'' इस राष्ट्र संत एवं युगपुरूष का देहावसान काशी में 12 नवम्बर, 1946 को हो गया।
ये हैं हमारे 'भारत-रत्न'
1. सी.राजगोपालाचारी (वर्ष 1954)
2. सी.वी. रमन (वर्ष 1954)
3. एस. राधाकृष्णनन (वर्ष 1954)
4. भगवान दास (वर्ष 1955)
5. एम. विश्वेश्वरैया (वर्ष 1955)
6. पंडित जवाहर लाल नेहरू (वर्ष 1955)
7. गोविन्द वल्लभ पन्त (वर्ष 1957)
8. डी.के. कर्वे (वर्ष 1958)
9. बी.सी. रॉय (वर्ष 1961)
10. पुरूषोत्तम दास टंडन (वर्ष 1961)
11. राजेन्द्र प्रसाद (वर्ष 1962)
12. जाकिर हुसैन (वर्ष 1963)
13. पी.डी. कणे (वर्ष 1963)
14. लाल बहादुर शास्त्री (वर्ष 1966)
15. इंदिरा गांधी (वर्ष 1971)
16. वी.वी. गिरी (वर्ष 1975)
17. के. कामराज (वर्ष 1976)
18. मदर टेरेसा (वर्ष 1980)
19. विनोबा भावे (वर्ष 1983)
20. खान अब्दूल खफ्फार खान (वर्ष 1987)
21. एम.जी. रामचन्द्रन (वर्ष 1988)
22. बी.आर. अम्बेडकर (वर्ष 1990)
23. नेल्सन मण्डेला (वर्ष 1990)
24. राजीव गाँधी (वर्ष 1991)
25. वल्लभ भाई पटेल (वर्ष 1991)
26. मोरारजी देसाई (वर्ष 1991)
27. अबुल कलाम आजाद (वर्ष 1992)
28. जे.आर.डी. टाटा (वर्ष 1992)
29. सत्यजीत रे (वर्ष 1992)
30. गुलजारी लाल नंदा (वर्ष 1997)
31. अरूणा आसफ अली (वर्ष 1997)
32. ए.पी.जे. अब्दुल कलाम (वर्ष 1997)
33. एम.एस. सुब्बलक्ष्मी (वर्ष 1998)
34. चिदम्बरम सुब्रमण्यम (वर्ष 1998)
35. जय प्रकाश नारायण (वर्ष 1999)
36. पंडित रवि शंकर (वर्ष 1999)
37. अमृत्य सेन (वर्ष 1999)
38. गोपीनाथ बारदोलोई (वर्ष 1999)
39. लता मंगेशकर (वर्ष 2001)
40. बिस्मिल्ला खान (वर्ष 2001)
41. भीमसेन जोशी (वर्ष 2009)
42. सचिन तेन्दुलकर (वर्ष 2013)
43. प्रो. सी.एन.आर. राव (वर्ष 2013)
44. अटल बिहारी वाजपेयी (वर्ष 2014)
45. पंडित मदन मोहन मालवीय (वर्ष 2014)
'भारत-रत्न' : प्रमुख तथ्य
-भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान
-वर्ष 1954 से प्रारंभ।
-एक पीपल के पत्ते के आकार में।
- अब तक 12 को मरणोपरान्त प्रदान।
-सबसे कम उम्र 40 वर्ष में सचिन तेन्दुलकर को प्रदान। वे भारत-रत्न पाने पहले खिलाड़ी बने।
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