जाट आरक्षण /
सुप्रीम कोर्ट |
संकीर्ण सियासतदारों को सुप्रीम कोर्ट का करारा तमाचा!
-राजेश कश्यप
देश के सर्वोच्च न्यायालय ने आज मंगलवार, 17 मार्च, 2015 को अपने एक महत्वपूर्ण फैसले में नौ राज्यों गुजरात, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली, उत्तराखण्ड, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार और मध्य प्रदेश के जाटों को पिछली कांगे्रस सरकार द्वारा दिया गया ओबीसी आरक्षण रद्द कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि जाट जैसी राजनीतिक रूप से संगठित जातियों को ओबीसी की सूची में शामिल करना अन्य पिछड़े वर्गों के लिए सही नहीं है। न्यायालय ने पाया कि केन्द्र ने ओबीसी के पैनल के उस निष्कर्ष का उपेक्षित किया है, जिसमेें कहा गया है कि जाट पिछड़ी जाति नहीं हैं। इसके साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि अतीत में ओबीसी सूची में किसी जाति को संभावित तौरपर गलत रूप से शामिल किया जाना, गलत रूप से दूसरी जातियों को शामिल करने का आधार नहीं हो सकता है। हालांकि जाति एक प्रमख कारक है, लेकिन पिछड़ेपन के निर्धारण के लिए यह एकमात्र विकल्प नहीं हो सकती है। यह सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक रूप से होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला जहां देश के गरीब पिछड़े लोगों के लिए अति हितकारी है, वहीं उन संकीर्ण सियासतदारों के लिए कड़ा सबक हैं, जो अपने निजी स्वार्थों की पूर्ति के लिए गरीबों के हकों पर डाका डालने से भी गुरेज नहीं करते। गत घपलों, घोटालों और भ्रष्टाचार की दलदल में फंसी यूपीए सरकार अपनी नैया पार लगाने के लिए अनैतिक एवं असंवैधानिक रूप से 'कास्टिज्म कार्डÓ खेलने से भी बाज नहीं आई और सभी कायदे-कानूनों को धत्ता बताते हुए 4 मार्च, 2014 को देश के नौ राज्यों के अलावा केन्द्रीय सूची में जाटों को ओबीसी में शामिल करने के लिए हरी झण्डी दे दी। कमाल की बात यह रही कि सरकार ने यह अध्यादेश राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग के सर्वेक्षण के आंकड़े आने से पहले ही इतना बड़ा निर्णय ले लिया। यही नहीं, सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) की असहमति की भी कोई परवाह नहीं की और उसके सर्वसम्मत फैसले को ठुकराकर जाटों को आरक्षण दिया गया।
एनसीबीसी ने केन्द्र सरकार को 125 पेज की रिपोर्ट सौंपकर जाटों को आरक्षण देने पर ऐतराज जताया था। एनसीबीसी ने 4-0 से जाट आरक्षण के खिलाफ फैसला देते हुए तर्क दिया था कि जाट न तो सामाजिक या आर्थिक या अन्य किसी लिहाज से पिछड़े हुए हैं। हालांकि कुछ राज्यों ने जाटों को आरक्षण दिया है, लेकिन केन्द्र सरकार के स्तर पर उन्हें यह सुविधा देना गलत होगा। आयोग के चेयरमैन न्यायमूर्ति वी. ईश्वरैय्या और तीन अन्य सदस्यों एस.के. खरवेतन, ए.के.सीकरी और अशोक मंगोत्रा को जाट आरक्षण का कोई भी औचित्य नजर नहीं आया। एनसीबीसी ने विभिन्न अध्ययनों के बाद ही जाट आरक्षण के खिलाफ 4-0 से फैसला दिया था। इसके बावजूद केन्द्रीय मंत्रीमण्डल ने आयोग की रिपोर्ट को खारिज करते हुए आरक्षण दे डाला। वर्ष 1993 में गठित एनसीबीसी के विधान के मुताबिक केन्द्र सरकार की किसी भी सिफारिश को आयोग मानने के लिए बाध्य नहीं होगा और आयोग की सिफारिश को केन्द्र सरकार नकार नहीं सकेगी। लेकिन, जाट आरक्षण के मामले में विधान के ठीक उलट हुआ।
हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेन्द्र हुड्डा सरकार ने बड़ी चालाकी से अपना पैंतरे खेला और आनन-फानन में गठित राज्य पिछड़ा वर्ग की रिपोर्ट आने से पहले ही तत्कालीन गृहमंत्री पी. चिदम्बरम के समक्ष जाटों को ओबीसी में शामिल करने की पैरवी करने जा पहुंचे। बाद में राज्य पिछड़ा वर्ग आयोग महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक के सेवानिवृत प्रो. खजान सिंह सांगवान की औपचारिक शोध रिपोर्ट और आम लोगों व संगठनों से आपत्तियां एवं सुझावों की औपचारिकताओं के आधार पर मुख्यमंत्री भूपेन्द्र सिंह हुड्डा के इशारे पर रिपोर्ट पेश कर दी। हुड्डा सरकार ने बड़ी चालाकी से जाटों को 'विशेष पिछड़ा वर्ग' के रूप में शामिल कर दस प्रतिशत आरक्षण का लाभ देने की घोषणा कर दी। चूंकि, केन्द्र की ओबीसी सूची में शामिल की जाने वाली प्रस्तावित जाति को राज्य की ओबीसी सूची में नामित होना अनिवार्य बनाया गया है। इसीलिए, केन्द्र में जाटों के लिए आरक्षण सुनिश्चित करवाने के लिए ही यह सब छल किया गया। ओबीसी वर्ग को भरोसा दिलाया गया कि उनके 27 फीसदी आरक्षण को बिल्कुल नहीं छेड़ा जाएगा। हुड्डा सरकार ने आर्थिक रूप से पिछड़े अन्य सभी जातियों को भी दस प्रतिशत विशेष आरक्षण का प्रावधान बना दिया, ताकि उनकी नीति और नीयत पर कोई किसी तरह का शक न करे और जाटों के प्रति उनके छिपे एजेण्डे को कोई समझ न सके। हुड्डा ने तमिलनाडू में विशेष परिस्थितियों में दिए गए 70 फीसदी आरक्षण को सन्दर्भ बनाकर अपनी चाल चली और अंधेरे में तीर चलाते हुए प्रदेश में 69.5 प्रतिशत आरक्षण तय कर दिया। उन्हें भलीभांति पता था कि यदि जाटों को केन्द्र में ओबीसी का दर्जा मिल जाएगा तो हरियाणा में भी उन्हें स्वत: ओबीसी में स्थान मिल जायेगा।
दूसरी तरफ, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाटों के एकेमेव नेता दिवंगत प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के बेटे चौधरी अजीत सिंह को अपने वोट बैंक सेंध लगती देख जाट आरक्षण के मुद्दे को अपनी राजनीतिक ढ़ाल बनाने को विवश होना पड़ा। वर्ष 1999-2000 में उत्तर प्रदेश के दिवंगत मुख्यमंत्री राम प्रकाश गुप्ता ने जाटों को ओबीसी कोटे में शामिल करने की कोशिश की। लेकिन, उत्तर प्रदेश पिछड़ा वर्ग आयोग ने दो टूक कह दिया था कि जाट आर्थिक और सामाजिक रूप से सम्पन्न हैं। इसलिए उन्हें आरक्षण देने की जरूरत नहीं है। इसी तरह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग भी मौजूदा आंकड़ों के आधार पर जाटों को वर्ष 1997 में हरियाणा, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश और राजस्थान के जाटों को ओबीसी में शामिल करने की मांग खारिज कर दी थी। इससे पहले भी वर्ष 1953 में काका कालेरकर और वर्ष 1978 में गठित मण्डल कमीशन आयोग ने भी जाटों को ओबीसी में शामिल करने योग्य नहीं समझा था।
दरअसल, राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग किसी भी जाति को ओबीसी में तभी शामिल करने की सिफारिश करता है, जब यह सिद्ध हो जाये कि वह जाति सामाजिक और शैक्षणिक रूप से बुरी तरह पिछड़ गई है और उसके अस्तित्व को बनाये रखने के लिए उसे आरक्षण देने की आवश्कता है। शिक्षा के मामले में भी जाट जाति सर्वोच्च है। प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। सरकारी स्कूलों में जाटों के बच्चों की संख्या और प्राईवेट एवं हाईफाई स्कूलों में दलित व पिछड़े बच्चों की संख्या न के बराबर मिलेगी। डॉक्टरी पेशे से लेकर इंजीनियरिंग तक और एक कॉलेज से लेकर आईटी इंस्टीच्यूशंस तक जाटों के बच्चे बहुलता में मिलेंगे। इसलिए, जाट जाति न केवल सामाजिक और शैक्षणिक क्षेत्र में सुदृढ़ हैं, बल्कि राजनैतिक, आर्थिक, खेल, कृषि आदि हर क्षेत्र में अग्रणीय है। गाँव हो या शहर, टै्रक्टर, शानदार गाडिय़ां, आलीशान कोठियां-बंगले और हवेलियां, ए.सी., ऐशोआराम के सब साधन, बड़े-बड़े खेत व फार्म आदि सब जाटों के पास मिलेंगे। आधे से अधिक कृषि भूमि जाट लोगों के पास है। अन्य जातियां उनके सहारे ही गुजर-बसर करती हैं और उनके खेतों एवं फार्मों में मजदूरी करती हैं। दो से दस एकड़ तक जाट व्यक्ति के पास मौजूद है। इसी कारण हरित क्रांति एवं श्वेत क्रांति जैसी योजनाओं का सीधा लाभ भी जाट जाति को ही मिलता आया है। सरकार द्वारा अधिग्रहण मामलों में भी करोड़ों रूपया जाटों की ही झोली में जा चुका है और जा भी रहा है।
पुलिस से लेकर सेना तक और खेल से लेकर सिनेमा तक, शिक्षक से लेकर प्रशासक तक जाटों का प्रभुत्व स्थापित है। ऐसे में भला किस आधार पर कहा जा सकता है कि जाट ओबीसी में शामिल होने के मूल मानकों पर खरा उतरते हैं? कई उदारवादी जाट विद्वान एवं विदुषियां भी पर्दे के पीछे ईमानदारी से सहज स्वीकार करते हैं कि जाट पिछडऩे नहीं हैं, यह सब तो घटिया लोगों की घटिया राजनीति है। यदि जाट भी पिछड़े हो गये हैं तो फिर तो भला कौन सी जाति अगड़ी हो सकती है? ओबीसी में जाटों को शामिल करना, एक तरह से ओबीसी में शामिल जातियों के साथ सरासर अन्याय और उनके हितों पर गहरा कुठाराघात है। आखिर कैसे कहा जा सकता है कि जाट लोग सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ गए हैं? यक्ष प्रश्न यह है कि जो जाति सदियों से दलितों और पिछड़ों को अशोभनीय संज्ञाओं से नवाजती आई है। भला वह एकाएक उसी कतार में क्यों आ खड़ी हो गई? स्पष्ट है कि पिछड़ों की राज्यों और केन्द्र में लाखों पद बैकलॉग के हैं और लाखों पद रिक्त हैं, जिन्हें जल्द भरने के लिए सरकारों पर भारी दबाव है। संभवत: जाट लोग ओबीसी में शामिल होकर इन सभी पदों को हथियाने की मंशा रखते हैं। वे नहीं चाहते कि पिछड़े लोग इस बैकलॉग के माध्यम से सशक्तिकरण की तरफ बढ़ें।
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