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बुधवार, 20 मई 2020

कब मजबूत होगा मजबूर मजदूर?

ज्वलंत मुद्दा/बेहाल श्रमिक



कब मजबूत होगा मजबूर मजदूर?
-राजेश कश्यप 


देश में मजदूरों की हालत अति दुःखद एवं विडम्बनापूर्ण है। मजदूरों पर संकीर्ण सियासत और शर्मनाक संवेदनहीनता अति निन्दनीय एवं असीम पीड़ादायक है। कोरोना की त्रासदी ने करोड़ों मजदूरों के परिवारों को खून के आंसू रोने पर विवश कर दिया है। इन बेबस मजदूरों के घावों पर मरहम लगाने की बजाय राजनीतिक रोटियां सेंकी जा रही हैं। इस संकटकाल में मजदूरों की यह नारकीय स्थिति चीख चीखकर पूछ रही है कि उनका कसूर क्या है और इसका असली कसूरवार कौन है? लोकडाऊन के नियमों का अक्षरशः पालन करने के बावजूद मजदूरों को क्यों सड़क और रेल की पटरियों पर अपनी जान गंवानी पड़ रही है? अपने खून-पसीने से बड़े-बड़े उद्योगपतियों, व्यापारियों और पूंजीपति लोगों की किस्मत चमकाने वाले मजदूरों की किस्मत में सिर्फ भूखमरी, प्रताड़ना और सिसकियां ही क्यों लिखी है? आखिर क्यों शोषण, छलावा और विवशता मजदूरों की नियति बन गई है? क्या मजदूर होना गुनाह है? क्या मेहनतकश लोगों के जीवन में कभी उजाला आ पायेगा? ऐसे ही अनेक सुलगते सवाल हैं जो इस समय सड़कों पर बदहाल और नारकीय दौर से गुजर रहे मजदूरों के बेबस चेहरों को देखकर स्वतः विस्फोटित हो रहे हैं। 
यह कटू सत्य है कि आज मजदूर वर्ग आर्थिक व भावनात्मक रूप से बुरी तरह टूट चुका है। जिनके लिए वे घर छोड़कर काम करने आए, उन्हीं ने बुरे वक्त में दुत्कार दिया और अनेक तरह से प्रताडि़त किया। जिस समय राज्य व केन्द्र सरकारों से सहानुभूति एवं सहयोग की आवश्यकता थी, उन पर पुलिस का कहर टूटा। जिस समय उन्हें रोटी, पानी और आवास की सुविधाओं की आवश्यकता थी, उस समय उन्हें सड़कों पर भूखे-प्यासे अपने मासूम बच्चों के साथ अपनी जिन्दगी दांव पर लगानी पड़ी। जिस समय उनके जीवन की सुरक्षा की जिम्मेदारी सरकारों को लेने की आवश्यकता थी, उस समय सैकड़ों मजदूरों को अकाल मौत के मुंह में समाने के लिए विवश होना पड़ा। कितनी बड़ी विडम्बना का विषय है कि आज मजदूरों को राजनीतिक तौरपर हमदर्दी की आवश्यकता है, लेकिन देशभर में संकीर्ण राजनीति के जरिए मजदूरों के साथ घिनौना मजाक किया जा रहा है।
सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि मजदूरों की समस्याएं कम होने का नाम नहीं ले रही हैं और भविष्य भी भयंकर संकटमय दिखाई दे रहा है। अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की आल में आई एक रिपोर्ट के अनुसार कोरोना वायरस की वजह से देश के लगभग 40 करोड़ असंगिठत मजदूरों की रोजीरोटी प्रभावित हो सकती है और गरीबी के भयंकर दुष्चक्र में फंसा सकती है। ऐसे में केन्द्र व राज्य सरकारों को देश के श्रमिकों की सुध पूरी गम्भीरता के साथ लेने की आवश्यकता है। सिर्फ आंकड़ेबाजी और शाब्दिक हमदर्दी से मजदूरों की हालत सुधरने वाली नहीं है। तत्काल प्रभाव से मजदूरों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया उपलब्ध करवाने की आवश्यकता है। इसके साथ ही उनके अन्दर आत्मविश्वास और भावनात्मक लगाव बनाए रखने की आवश्यकता है। 
इस समय श्रमिक वर्ग के हित में कई प्रभावी कदम उठाने की आवश्यकता है। वर्ष 2019 में जारी आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार देश की कुल श्रम शक्ति में 93 प्रतिशत हिस्सा असंगठित मजदूरों का है। इसका मतलब लगभग 41.85 करोड़ श्रमिक असंगठित क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि जिस असंगठित श्रम शक्ति का देश की इकोनोमी बढ़ाने में सबसे बड़ा हाथ है, उसी की हालत आज पूरे देश में अत्यन्त दयनीय और चिंताजनक है। इसके साथ ही इन श्रमिकों को पंजीकृत न होने और बैंक खाते के न होने से केन्द्र व राज्य सरकार की कल्याणकारी योजनाओं के लाभ से भी वंचित होना पड़ रहा है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 17 प्रतिशत मजदूरों के पास बैंक खाते नहीं हैं और 14 प्रतिशत के पास राशनकार्ड तक उपलब्ध नहीं हैं। इसके साथ ही यह चौंकाने वाला तथ्य भी सामने आया है कि 62 प्रतिशत प्रवासी मजदूरों को सरकार की कल्याणकारी व आपातकालीन योजनाओं की समुचित जानकारी ही नहीं है। इसके साथ ही 37 फीसदी मजदूरों को यह ही मालूम नहीं है कि सरकारी योजनाओं का लाभ कैसे उठाया जाए? क्या यह सरकारी तंत्र की निष्क्रियता नहीं है कि वह मजदूरों को अपने हकों का ज्ञान हीं नहीं है? 
 देश में बड़े पैमाने पर मजदूरों को पंजीकृत नहीं किया गया है। क्योंकि अधिकतर पंजीकृत श्रमिकों को ही कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हासिल हो पाता है। एक अनुमान के अनुसार इस समय पंजीकृत मजदूरों की संख्या मात्र 3.5 करोड़ के आसपास ही है। आधिकारिक तौरपर 30 सितम्बर, 2018 को यह संख्या 3.16 लाख थी। मजदूरों को उनके अधिकारों और कल्याणकारी कदमों से अच्छी तरह अवगत करवाया जाना चाहिए। खासकर, प्रवासी मजदूरों के प्रति अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है। प्रवासी मजदूरों को सबसे अधिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक देश में 45 करोड़ घरेलू प्रवासी हैं। वर्ष 2017 के आर्थिक सर्वे के अनुसार 10 से अधिक लोग दूसरे राज्यों में अपनी रोजीरोटी कमाने जाते हैं। 
बेहद विडम्बना का विषय है कि बड़े पैमाने पर श्रमिकों को न तो न्यूनतम मजदूरी मिल पा रही है और न ही उन्हें वैतनिक अवकाश अथवा सामाजिक सुरक्षा का लाभ मिल पा रहा है। श्रम मंत्रालय द्वारा वर्ष 2015 में तैयार एक रिपोर्ट के अनुसार कृर्षि और गैर-कृषि क्षेत्र में काम करने वाले 82 प्रतिशत मजदूरों के पास कोई लिखित अनुबन्ध नहीं होता। 77.3 प्रतिशत कामगारों को सही समय पर न तो उचित वेतन मिलता है और न ही समुचित अवकाश मिलता है। इसके साथ ही 69 प्रतिशत श्रमिकों को सामाजिक सुरक्षा का भी लाभ नहीं पाता। इन्हीं सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मोदी सरकार ने नया ‘वेजेज कोड बिल’ तैयार किया। इसे ‘न्यूनतम मजदूरी कानून’ की संज्ञा दी गई। 
श्रम और रोजगार मामलों के राज्यमंत्री संतोष गंगवार ने 30 जुलाई, 2019 को संसद में ‘वेजेज कोड बिल’ पेश करते हुए दावा किया था कि इस बिल से 50 करोड़ संगठित और असंगठित क्षेत्र के मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी का अधिकार मिल जाएगा। इसके साथ ही बताया गया कि असंगठित क्षेत्र के सभी मजदूरों को चाहे वे खेतीहर हों या ठेला चलाने वाले अथवा सफाई या पुताई करने वाले हों या फिर सिर पर बोझा ढ़ोने वाले या ढ़ाबों व घरों में काम करने वाले हों, सभी को इस कानून का लाभ मिलेगा। सरकार ने मजदूरी की न्यूनतम दर 178 रूपये प्रतिदिन और 4628 रूपये प्रतिमाह तय किया। लेकिन, बताया जा रहा है कि मोदी सरकार ने मजदूरों की न्यूनतम दर तय करने के लिए एक विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया था। इस कमेटी ने केन्द्र सरकार को मजदूरों के लिए न्यूनतम दर 375 रूपये प्रतिदिन और 18000 रूपये प्रतिमाह तय करने की सिफारिश की थी। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर मोदी सरकार ने मजदूरों के हितों पर बड़ी निर्ममता से कैंची क्यों चलाई? इसके बावजदू भी लगभग 33 प्रतिशत मजदूरों को न्यूनतम मजदूरी नहीं मिल पा रही है।
देश की आर्थिक असमानता भी श्रमिकों की दयनीय दशा के लिए जिम्मेदार है। हाल ही में ऑक्सफैम की ‘टाइम टू केयर’ रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश के 70 प्रतिशत लोगों के कुल धन से चार गुना धन है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश के 63 अरबपति लोगों का कुल धन देश के वार्षिक बजट 2018-19 के बजट से भी अधिक बनता है। दूसरी तरफ देश के गरीबों और मजदूरों की हालत दिन प्रतिदिन अति दयनीय होती चली जा रही है। वर्ष 2011 में किए गए सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार गाँवों में रहने वाले लगभग 67 करोड़ लोग 33 रूपये प्रतिदिन पर जीवन-निर्वाह करते हैं। इसके साथ ही एक किसान परिवार की औसत आय मात्र 60 रूपये प्रतिदिन रह गई है। वर्ष 2013 की राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण रिपोर्ट के अनुसार 9 करोड़ किसान परिवारों में से 75 प्रतिशत के पास डेढ़ एकड़ से भी कम कृषि योग्य भूमि रह गई है। ऐसे में केन्द्र व राज्य सरकारों को अपनी नीतियों पर पुनर्विचार करने की सख्त आवश्यकता है।
(राजेश कश्यप)

वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समाजसेवी
टिटौली (रोहतक)
हरियाणा-124005

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मंगलवार, 12 मई 2020

अप्रत्याशित है आत्मनिर्भर भारत आर्थिक पैकेज

त्वरित टिप्पणी/ 


अप्रत्याशित है आत्मनिर्भर भारत आर्थिक पैकेज 


-राजेश कश्यप 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गरीबों, किसानों और श्रमिकों आदि को कोरोना संकट से उभरने के लिए बीस लाख करोड़ के आत्मनिर्भर भारत आर्थिक पैकेज की घोषणा की है। यह देश की कुल जीडीपी का लगभग दस प्रतिशत है। इसे प्रत्याशित कदम के साथ-साथ अप्रत्याशित भी कहा जायेगा। प्रत्याशित इसलिए, क्योंकि केन्द्र सरकार परे आर्थिक पैकेज की घोषण करने का निरन्तर दबाव बढ़ रहा था। अप्रत्याशित इसलिए, क्योंकि शायद ही किसी ने इतने बड़े पैकेज की घोषण की उम्मीद की हो। कुल मिलाकर, यह आत्मनिर्भर भारत पैकेज देश के हर वर्ग के लिए बहुत बड़ी राहत लेकर आयेगा। इस आर्थिक पैकेज की मुक्तकंठ से प्रशंसा की जानी चाहिए। 
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आत्मनिर्भर भारत आर्थिक पैकेज के जरिए कुटीर, लघु और मंझोले कुटीर उद्योगों को खड़ा करने का विजन प्रस्तुत किया है। इसके साथ ही लोकल प्रोडक्ट को अपना जीवन मंत्र बनाने के लिए जनता से आह्वान भी किया है। गरीबों, मजदूरों और किसानों को आर्थिक संबल देकर कृषि व उद्योग जगत में नई जान फूंकने का प्रयास होगा। इस आर्थिक पैकेज की प्रबल मांग थी। इस आर्थिक पैकेज का खाका जल्द देश के सामने आयेगा। लेकिन, प्रधानमंत्री ने पूरा भरोसा दिलाया है कि यह आर्थिक पैकेज भ्रष्टाचार की भेंट नहीं चढ़ेगा और हर जरूरतमंद को उसका सीधे लाभ मिलेगा। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने लॉकडाउन के चौथे चरण का ऐलान जिस रूप में लागू करने की घोषणा की है, वह समय के अनुरूप ही कहा जायेगा। प्रधानमंत्री ने बिल्कुल सही कहा है कि हमें कोरोना से बचना भी है और आगे बढ़ना भी है। उन्होंने भारत को आत्मनिर्भर बनाने का जो संकल्प व्यक्त किया और जिन जिम्मेदारियों का अहसास करवाया, वह अति सराहनीय है। हालांकि, प्रधानमंत्री ने सभी राज्यों को पन्द्रह मई तक अपने सुझाव देने के लिए कहा है और उसी के आधार पर लॉकडाउन-4 के नियम तय करने का ऐलान किया है। लेकिन, उन्होंने स्पष्ट कहा है कि लंबे समय तक कोरोना का संकट बना रहेगा। इसलिए, सिर्फ हम सब कोरोना के इर्द-गिर्द ही हम बंधकर नहीं रह सकते। इसका स्पष्ट अर्थ है कि हमें कोरोना संकट में भी साहस और समझदारी के साथ आगे बढ़ते रहने की आवश्यकता है।

कोरोना संकट से उबरने के लिए केन्द्र सरकार ने अब तक हर कदम फूंक फूंककर उठाया है और दुनिया में अपनी सूझबूझ का लोहा मनवाया है। कोरोना को विस्फोटक होने से रोका है। इसके लिए देश का हर नागरिक साधुवाद का पात्र है। लॉकडाउन के तीन चरणों में लोगों ने जिन विकट परेशानियों का सामना करना पड़ा और जिस संयम व समझदारी का परिचय दिया, वह अभूतपूर्व है। इसके बावजूद, यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि कोरोना के कारण आर्थिक रूप से निम्न व मध्य वर्ग के लोगों की कमर पूरी तरह से टूट चुकी है। गरीबी, बेरोजगारी और बेकारी चरम पर पहुंच चुकी है। श्रमिक विभिन्न राज्यों में फंसे हुए हैं। प्रवासी मजदूरों की हालत अति दयनीय हो चली है। उन्हें इन हालातों से निकालने के लिए अनेक स्तर पर गम्भीरता के साथ ठोस कदम उठाने की आवश्यकता है।

देश बेहद चुनौतीपूर्ण दौर से गुजर रहा है। इस कटू तथ्य से बिल्कुल इनकार नहीं किया जा सकता कि एक तरफ देश में कोरोना का संकट निरन्तर गहराता जा रहा है और दूसरी तरफ लॉकडाउन के तीन चरणों के दौरान लोग घरों में कैद होकर ऊब गए हैं। इसके साथ ही यह भी बेहद चिंता एवं चुनौती का विषय है कि आज भी बहुत बड़े स्तर पर कोरोना को हल्के में लिया जा रहा है। बड़े पैमाने पर लापरवाहियां देखने को मिल रही हैं। बड़े स्तर पर मुंह पर मास्क, सोशल डिस्टेंसिंग और सेनेटाईजिंग जैसी जरूरी हिदायतों का पालन करने में कोताही बरती जा रही है। यदि कुछ समय ये कोताही व लापरवाहियां जारी रही तो निश्चित तौरपर कोरोना की महामारी देश में विस्फोटक रूप ले सकती है। 

एक तरफ जहां कोरोना संकट से निपटने के लिए जन-जन को अपनी जिम्मेदारी निभानी होगी, वहीं दूसरी तरफ केन्द्र व राज्य सरकारों को भी तीव्र गति से आर्थिक स्तर पर आवश्यक कदम उठाने की आवश्यकता है। आर्थिक पैकेज के एक-एक पैसे को पूरी पारदर्शिता के साथ खर्च करना बेहद जरूरी है। यदि ऐसा होता है तो यह आर्थिक पैकेज कायापलट करने वाला सिद्ध हो सकता है। गरीब लोगों के जनधन खातों में सीधे धनराशी डाली जाये तो भ्रष्टाचार की संभावनाए न के बराबर रहेगी। न जाने क्यों गरीब लोगों को अभी भी यकीन नहीं हो पा रहा है कि उन्हें इस आर्थिक पैकेज का कोई लाभ मिलने वाला है। आम लोगों के मन में संशय है कि इस आर्थिक पैकेज का अधिकतर लाभ उद्योगपतियों को मिलने वाला है। 

प्रधानमंत्री ने देश को जो आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाया है, वह देश के लिए बहुत बड़ा सन्देश और संकेत है। देश को हर स्तर पर आत्मनिर्भर बनाने की आवश्यकता है। मेक न इंडिया का मूल मंत्र भी आत्मनिर्भरता का मूल आधार है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि इस मूल मंत्र का असर अभी तक उम्मीदों के अनुरूप परिणाम लेकर नहीं आया है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने क्षेत्रीय उत्पादों का प्रयोग करने और उनका प्रचार-प्रसार करने का आह्वान किया है। उन्होंने खादी का उदाहरण दिया। इसी तर्ज पर हर लोकल प्रोडक्ट को महत्व देने की अपील की गई है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ग्रामीण संस्कृति का मूल आधार कृषि, पशुपालन और लघु कुटीर उद्योग रहा है। लेकिन, इनकीं निरन्तर घोर उपेक्षा हो रही है। यदि प्रधानमंत्री का आह्वान रंग लाता है तो कहने की आवश्यकता नहीं है कि न केवल देश आर्थिक रूप से सशक्त होगा, अपितु गरीबी, बेरोजगारी और बेकारी से भी काफी हद तक मुक्ति मिल सकती है। 

-राजेश कश्यप
(वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक)
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शुक्रवार, 1 मई 2020

यह है श्रमिकों के खून-पसीने से लिखी गई महागाथा!

1 मई/अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस विशेष

यह है श्रमिकों के खून-पसीने से लिखी गई महागाथा!
- राजेश कश्यप
हर काल में श्रमिकों की हालत दयनीय रही है। लेकिन, कोरोना काल में तो आज श्रमिक अति दयनीय है। हर तरह का शोषण श्रमिकों की नियति बन गई है। कोरोना काल तो श्रमिकों के लिए किसी महाभिशाप से कम नहीं है। आज श्रमिकों के लिए खाने को धक्के और पीने को बेबसी के घूंट हैं। वे आज न घर के हैं और न घाट के। कोरोना के कारण काम छूट गया और थोड़ी-बहुत बचत खर्च हो चुकी है। ठेकेदारों के चंगुल में आज भी श्रमिक बुरी तरह कराह रहा है। दस-बारह-चौदह घण्टे तक काम करने के बावजूद मजदूरी न तो समय पर मिल रही है और न ही पूरी मिल रही है। प्रतिवर्ष 1 मई को मजदूर संगठन अपनी व्यथा धरने-प्रर्दर्शनों के जरिए बयां करके दिल हलका कर लेते थे। लेकिन, इस बार तो राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के चलते ऐसा कर पाना भी संभव नहीं हो पाया। लेकिन, ‘श्रमिक-दिवस’ पर श्रमिकों के खून-पसीने से लिखी महागाथा का अवलोकन करके श्रमिकों को नमन तो कर ही सकते हैं।  
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      एक मई अर्थात अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस। यह दिवस विशेषकर मजदूरों के लिए अपनी एकता प्रदर्शित करने का दिन माना जाता है। मजदूर लोग अपने अधिकारों एवं उनकी रक्षा को लेकर प्रदर्शन करते हैं। अगर आज के परिदृश्य में यदि हम मजदूर दिवस की महत्ता का आकलन करें तो पाएंगे कि इस दिवस की महत्ता पहले से भी कहीं ज्यादा हो गई है। वैश्विक पटल पर एक बार फिर पूंजीवाद का बोलबाला सिर चढक़र बोल रहा है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने सदैव गरीब मजदूरों का शोषण किया है, उनके अधिकारों पर कुठाराघात किया है और उन्हें जिन्दगी के उस पेचीदा मोड़ पर पहुंचाया है, जहां वह या तो आत्महत्या करने के लिए विवश होता है, या फिर उसे अपनी नियति को कोसते हुए भूखा-नंगा रहना पड़ता है। 

     सन् 1750 के आसपास यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई। उसके परिणामस्वरूप मजदूरों की स्थिति अत्यन्त दयनीय होती चली गई। मजदूरों से लगातार 12-12 और 18-18 घण्टों तक काम लिया जाता, न कोई अवकाश की सुविधा और न दुर्घटना का कोई मुआवजा। ऐसे ही अनेक ऐसे मूल कारण रहे, जिन्होंने मजदूरों की सहनशक्ति की सभी हदों को चकनाचूर कर डाला। यूरोप की औद्योगिक क्रांति के अलावा अमेरिका, रूस, आदि विकसित देशों में भी बड़ी-बड़ी क्रांतियां हुईं और उन सबके पीछे मजदूरों का हक मांगने का मूल मकसद रहा।
     अमेरिका में उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में ही मजदूरों ने ‘सूर्योदय से सूर्यास्त’ तक काम करने का विरोध करना शुरू कर दिया था। जब सन् 1806 में फिलाडेल्फिया के मोचियों ने ऐतिहासिक हड़ताल की तो अमेरिका सरकार ने साजिशन हड़तालियों पर मुकदमे चलाए। तब इस तथ्य का खुलासा हुआ कि मजदूरों से 19-20 घण्टे बड़ी बेदर्दी से काम लिया जाता है। उन्नीसवीं सदी के दूसरे व तीसरे दशक में तो मजदूरों में अपने हकों की लड़ाई के लिए खूब जागरूकता आ चुकी थी। इस दौरान एक ‘मैकेनिक्स यूनियन ऑफ फिलाडेल्फिया’ नामक श्रमिक संगठन का गठन भी हो चुका था। यह संगठन सामान्यत: दुनिया की पहली टे्रड यूनियन मानी जाती है। इस यूनियन के तत्वाधान में मजदूरों ने वर्ष 1827 में एक बड़ी हड़ताल की और काम के घण्टे घटाकर दस रखने की मांग की। इसके बाद इस माँग ने एक बहुत बड़े आन्दोलन का रूप ले लिया, जोकि कई वर्ष तक चला। बाद में, वॉन ब्यूरेन की संघीय सरकार को इस मांग पर अपनी मुहर लगाने को विवश होना ही पड़ा। 
     इस सफलता ने मजदूरों में एक नई ऊर्जा का संचार किया। कई नई युनियनें ‘मोल्डर्स यूनियन’, ‘मेकिनिस्ट्स युनियन’ आदि अस्तित्व में आईं और उनका दायरा बढ़ता चला गया। कुछ दशकों बाद आस्टेऊलिया के मजदूरों ने संगठित होकर ‘आठ घण्टे काम’ और ‘आठ घण्टे आराम’ के नारे के साथ संघर्ष शुरू कर दिया। इसी तर्ज पर अमेरिका में भी मजदूरों ने अगस्त, 1866 में स्थापित राष्ट्रीय श्रम संगठन ‘नेशनल लेबर यूनियन’ के बैनर तले ‘काम के घण्टे आठ करो’ आन्दोलन शुरू कर दिया। वर्ष 1868 में इस मांग के ही ठीक अनुरूप एक कानून अमेरिकी कांग्रेस ने पास कर दिया। अपनी मांगों को लेकर कई श्रम संगठनों ‘नाइट्स ऑफ लेबर’, ‘अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर’ आदि ने जमकर हड़तालों का सिलसिला जारी रखा। उन्नीसवीं सदी के आठवें व नौंवे दशक में हड़तालों की बाढ़ सी आ गई थी। 
     ‘मई दिवस’ मनाने की शुरूआत दूसरे इंटरनेशनल द्वारा सन् 1886 में हेमार्केट घटना के बाद हुई। दरअसल, शिकागो के इलिनोइस (संयुक्त राज्य अमेरिका) में तीन दिवसीय हड़ताल का आयोजन किया गया था। इसमें 80,000 से अधिक आम मजदूरों, कारीगरों, व्यापारियों और अप्रवासी लोगों ने बढ़चढक़र भाग लिया। हड़ताल के तीसरे दिन पुलिस ने मेकॉर्मिक हार्वेस्टिंग मशीन कंपनी संयंत्र में घुसकर शांतिपूर्वक हड़ताल कर रहे मजदूरों पर फायरिंग कर दी, जिसमें संयंत्र के छह मजदूर मारे गए और सैंकड़ों मजदूर बुरी तरह घायल हो गए। इस घटना के विरोध में अगले दिन 4 मई को हेमार्केट स्क्वायर में एक रैली का आयोजन किया गया। पुलिस ने भीड़ को तितर-बितर करने के लिए जैसे ही आगे बढ़ी, एक अज्ञात हमलावर ने पुलिस के दल पर बम फेंक दिया। इस विस्फोट में एक सिपाही की मौत हो गई। इसके बाद मजदूरों और पुलिस में सीधा खूनी टकराव हो गया। इस टकराव में सात पुलिसकर्मी और चार मजदूर मारे गए तथा दर्जनों घायल हो गए। 
     इस घटना के बाद कई मजदूर नेताओं पर मुकदमें चलाए गए। अंत में न्यायाधीश श्री गैरी ने 11 नवम्बर, 1887 को कंपकंपाती और लडख़ड़ाती आवाज में चार मजदूर नेताओं स्पाइडर, फिशर, एंजेल तथा पारसन्स को मौत और अन्य कई लोगों को लंबी अवधि की कारावास की सजा सुनाई। इस ऐतिहासिक घटना को चिरस्थायी बनाने के उद्देश्य से वर्ष 1888 में अमेरिकन फेडरेशन ऑफ लेबर ने इसे मजदूरों के बलिदान को स्मरण करने और अपनी एकता को प्रदर्शित करते हुए अपनी आवाज बुलन्द करने के लिए प्रत्येक वर्ष 1 मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया। इसके साथ ही 14 जुलाई, 1888 को फ्रांस की राजधानी पेरिस में विश्व के समाजवादी लोग भारी संख्या में एकत्रित हुए और अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी संगठन (दूसरे इंटरनेशनल) की नींव रखी। इस अवसर पर संयुक्त प्रस्ताव पारित करके विश्वभर के मजदूरों के लिए कार्य की अधिकतम अवधि को आठ घंटे तक सीमित करने की माँग की गई और संपूर्ण विश्व में प्रथम मई को ‘मजदूर दिवस’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। 
     ‘मई दिवस’ पर कई जोशिले नारों ने वैश्विक स्तर पर अपनी उपस्थित दर्ज करवाई। समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी मई दिवस पर विचारोत्तेजक सामग्रियां प्रकाशित हुईं। ‘मई दिवस’ के सन्दर्भ में ‘वर्कर’ नामक साप्ताहिक समाचार पत्र में चाल्र्स ई. रथेनबर्ग ने लिखा, ‘‘’मई-दिवस, वह दिन जो पूंजीपतियों के दिल में डर और मजदूरों के दिलों में आशा पैदा करता है।’ इसी पत्र के एक अन्य ‘मई दिवस विशेषांक’ में यूजीन वी. डेब्स ने लिखा, ‘यह सबसे पहला और एकमात्र अंतर्राष्ट्रीय दिवस है। यह मजदूर के सरोकार रखता है और क्रांति को समर्पित है।’

     ‘मई दिवस’ को इंग्लैण्ड में पहली बार वर्ष 1890 में मनाया गया। इसके बाद धीरे-धीरे सभी देशों में प्रथम मई को ‘मजदूर दिवस’ अर्थात ‘मई दिवस’ के रूप में मनाया जाने लगा। वैसे मई दिवस का प्रथम इश्तिहार रूस की जेल में ब्लाडीमीर इलियच उलियानोव लेनिन ने वर्ष 1886 में ही लिख दिया था। भारत में मई दिवस मनाने की शुरूआत वर्ष 1923 से, चीन में वर्ष 1924 से और स्वतंत्र वियतनाम में वर्ष 1975 से हुई। वर्ष 1917 मजदूर संघर्ष का स्वर्णिम दौर रहा। इस वर्ष रूस में पहली बार सशक्त मजदूर शक्ति ने पंूजीपतियों की सत्ता को उखाड़ फेंका और अपने मसीहा लेनिन के नेतृत्व में ‘बोल्शेविक कम्युनिस्ट पार्टी’ की सर्वहारा राज्यसत्ता की स्थापना की। विश्व इतिहास की यह महान घटना ‘अक्तूबर क्रांति’ के नाम से जानी जाती है।
     वर्ष 1919 में अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (आई.एल.ओ.) के प्रथम अधिवेशन में प्रस्ताव पारित किया गया कि सभी औद्योगिक संगठनों में कार्यावधि अधिक-से-अधिक आठ घंटे निर्धारित हो। इसके साथ ही श्रम संबंधी अन्य अनेक शर्तों को भी कलमबद्ध किया गया। विश्व के अधिकतर देशों ने इन शर्तों को स्वीकार करते हुए उन्हें लागू भी कर दिया। आगे चलकर वर्ष 1935 में इसी संगठन ने आठ घंटे की अवधि को घटाकर सात घंटे की अवधि का प्रस्ताव पारित करते हुए यह भी कहा कि एक सप्ताह में किसी भी मजदूर से 40 घंटे से अधिक काम नहीं लिया जाना चाहिए। इस प्रस्ताव का अनुसरण आज भी विश्व के कई विकसित एवं विकासशील देशों में हो रहा है। 
     इस पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से लडऩे एवं अपने अधिकारों को पाने और उनकी सुरक्षा करने के लिए मजदूरों को जागरूक एवं संगठित करने का बहुत बड़ा श्रेय साम्यवाद के जनक कार्ल माक्र्स को जाता है। कार्ल माक्र्स ने समस्त मजदूर-शक्ति को एक होने एवं अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना सिखाया था। कार्ल माक्र्स ने जो भी सिद्धान्त बनाए, सब पूंजीवादी अर्थव्यस्था का विरोध करने एवं मजदूरों की दशा सुधारने के लिए बनाए थे। 
कार्ल माक्र्स का पहला उद्देश्य श्रमिकों के शोषण, उनके उत्पीडऩ तथा उन पर होने वाले अत्याचारों का कड़ा विरोध करना था। कार्ल माक्र्स का दूसरा मुख्य उद्देश्य श्रमिकों की एकता तथा संगठन का निर्माण करना था। उनका यह उद्देश्य भी बखूबी फलीभूत हुआ और सभी देशों में श्रमिकों एवं किसानों के अपने संगठन निर्मित हुए। ये सब संगठन कार्ल माक्र्स के नारे, ‘‘दुनिया के श्रमिकों एक हो जाओ’’ ने ही बनाए। इस नारे के साथ कार्ल माक्र्स मजदूरों को ललकारते हुए कहते थे कि ‘‘एक होने पर तुम्हारी कोई हानि नहीं होगी, उलटे, तुम दासता की जंजीरों से मुक्त हो जाओगे’’।
     कार्ल माक्र्स चाहते थे कि ऐसी सामाजिक व्यवस्था स्थापित हो, जिसमें लोगों को आर्थिक समानता का अधिकार हो और जिसमें उन्हें सामाजिक न्याय मिले। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को कार्ल माक्र्स समाज व श्रमिक दोनों के लिए अभिशाप मानते थे। वे तो हिंसा का सहारा लेकर पूंजीवाद के विरूद्ध लडऩे का भी समर्थन करते थे। इस संघर्ष के दौरान उनकीं प्रमुख चेतावनी होती थी कि वे पूंजीवाद के विरूद्ध डटकर लड़ें, लेकिन आपस में निजी स्वार्थपूर्ति के लिए कदापि नहीं। 
     कार्ल माक्र्स ने मजदूरों को अपनी हालत सुधारने का जो सूत्र ‘संगठित बनो व अधिकारों के लिए संघर्ष करो’ दिया था, वह आज के दौर में भी उतना ही प्रासंगिक बना हुआ है। लेकिन, बड़ी विडम्बना का विषय है कि यह नारा आज ऐसे कुचक्र में फंसा हुआ है, जिसमें संगठन के नाम पर निजी स्वार्थ की रोटियां सेंकी जाती हैं और अधिकारों के संघर्ष का सौदा किया जाता है। मजदूर लोग अपनी रोजी-रोटी को दांव पर लगाकर एकता का प्रदर्शन करते हैं और हड़ताल करके सडक़ों पर उतर आते हैं, लेकिन, संगठनों के नेता निजी स्वार्थपूर्ति के चलते राजनेताओं व पूंजीपतियों के हाथों अपना दीन-ईमान बेच देते हैं। परिणामस्वरूप आम मजदूरों के अधिकारों का सुरक्षा कवच आसानी से छिन्न-भिन्न हो जाता है। वास्तविक हकीकत तो यह है कि आजकल हालात यहां तक आ पहुंचे हैं कि मजदूर वर्ग मालिक (पूंजीपति वर्ग) व सरकार के रहमोकर्म पर निर्भर हो चुका है। बेहतर तो यही होगा कि पूंजीपति लोग व सरकार स्वयं ही मजदूरों के हितों का ख्याल रखें, वरना कार्ल माक्र्स के एक अन्य सिद्धान्त के अनुसार, ‘‘एक समय ऐसा जरूर आता है, जब मजदूर वर्ग एकाएक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था एवं प्रवृत्ति वालों के लिए विनाशक शक्ति बन जाता है।’’

(राजेश कश्यप स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)
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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2020

सावधान! कोरोना का संकट टला नहीं है!!

मुद्दा/

सावधान! कोरोना का संकट टला नहीं है!!
-राजेश कश्यप

देश में आगामी तीन मई तक लॉकडाउन जारी रहेगा। लेकिन, 20 अप्रैल से हॉटस्पॉट यानी डेंजर जॉन को छोडक़र बाकी जगहों पर अति आवश्यक कार्यों के लिए सशर्त छूट दी जा रही है। अगर जनता ने शर्तों का पालन नहीं किया और स्थिति पेचीदा होने की संभावना नजर आई तो यह छूट तत्काल प्रभाव से सरकार द्वारा वापिस भी ली जा सकती है। लेकिन, विडम्बना का विषय है कि जिसका डर था, वहीं बात हो रही है। लॉकडाउन के बावजूद देश के कोने-कोने से सोशल डिस्टेंस तोडऩे के समाचार मिल रहे हैं। कई जगहों पर लोग बेवजह घरों से बाहर निकल रहे हैं। कानून तोडऩे वालों पर सख्ती भी बरती जा रही है और केस भी दर्ज किए जा रहे हैं। इसके बावजूद, लोगों की लापरवाहियां रूकने का नाम नहीं ले रही हैं। निश्चित तौरपर लोगों की ये सब लापरवाहियां पूरे देश के लिए घातक साबित होने वाली हैं।  

देशवासियों ने अब तक जिस प्रकार प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की हर अपील का पूरी गम्भीरता और निष्ठा के साथ अनुसरण किया, उससे उम्मीदें बंधी थी कि लॉकडाउन के दौरान दी गई सशर्त छूट और तीन मई को लॉकडाउन समाप्ति के उपरांत जनता जागरूकता का परिचय देगी और कोई भी ऐसी लापरवाही नहीं बरतेगी, जिससे कोरोना महामारी अनियंत्रित होकर देश के लिए महाघातक सिद्ध हो। लेकिन, जिस तरह से कुछ असामाजिक तत्वों की घोर अनैतिक, गैर-कानूनी और गैर-जिम्मेदाराना हरकतें सामने आई हैं और आ रही हैं, उससे कई तरह की विकट परिस्थितियों के पैदा होने की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता।

देशभर से मिल रहे समाचारों के मुताबिक लॉकडाउन के बावजूद व्यापक स्तर पर लापरवाहियां और गैर-जिम्मेदारियां देखने को मिल रही हैं, जोकि सबसे बड़ी चिंता और चुनौती का विषय है, क्योंकि यदि सोशल डिस्टेंस का उल्लंघन इतने व्यापक स्तर पर होता रहा और कोरोना के प्रति कोताही बरती जा रही तो सब किए धरे पर पानी फिर सकता है। कोरोना के केस आने बन्द नहीं हुए हैं। यदि जल्द ही लोगों द्वारा बरती जा रही लापरवाहियों पर अंकुश नहीं लगा तो स्थिति एकदम उलटी हो सकती है। हम जहां कोरोना की कमर तोडऩे की तरफ अग्रसर हैं, वहीं हमारी लापरवाहियों की बदौलत कोरोना हमारे देश की कमर बुरी तरह तोड़ सकता है। 

सर्वविद्यित है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के सशक्त कौशल नेतृत्व और दूरदृष्टिता ने भारत में कोरोना को कहर बरपाने का कोई मौका नहीं दिया है। अगर अब कोई चूक, लापरवाही व गैर-जिम्मेदारी सामने आई तो सब प्रयासों और उपलब्धियों पर पानी फिर सकता है। कहने की आवश्यकता नहीं है कि प्रधानमंत्री की कोशिशों को कामयाब बनाने के लिए देशवासियों ने तन-मन-धन से अपना सहयोग दिया है, अनेक विकट समस्याओं व कष्टों को झेला है और कोरोना सेनानियों ने असीम त्याग और बलिदान दिया है। देश को असीम आर्थिक नुकसान उठाना पड़ा है। यदि इन सब पर कोई असामाजिक तत्व पानी फेरने का दु:साहस करे तो क्या यह राष्ट्रद्रोह का अपराध नहीं माना जाना चाहिए? देश बेहद नाजुक दौर से गुजर रहा है। ऐसे समय में देश व देश का कानून (संविधान) सर्वोच्च है। उससे खिलवाड़ करने की किसी को तनिक भी इजाजत नहीं दी जा सकती। 

लॉकडाउन के दौरान छूट व लॉकडाउन समाप्त होने के बाद हर स्तर पर सावधानी की आवश्यकता है। हमें कदापि नहीं भूलना है कि अभी तक कोरोना के कहर का खतरा बरकरार है। इस समय सबसे बड़ी चुनौती का विषय है लॉकडाउन समाप्ति के बाद मुंह पर मास्क के साथ सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंस) का पूर्ण रूप से पालन करना और स्वच्छता (सेनेटाईजेशन) पर जोर देना। यह वो अभेद्य दीवार है, जिसे कोविड-19 बिल्कुल भी भेद नहीं सकता और यही वह अचूक मूल मंत्र है, जो कोरोना के कहर से हमें बचा सकता है। इसलिए, भीड़भाड़ वाली जगह पर जाने से बचना होगा और सरकार व प्रशासन द्वारा दी जाने वाली हिदायतों का पूरी ईमानदारी से पालन करना होगा।

अगर इस नाजूक दौर में किसी भी स्तर पर कोई भी लापरवाही हुई तो कहने की आवश्यकता नहीं है कि देश व देशवासियों को कितना बड़ा खामियाजा भुगतना पड़ सकता है? यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी (यूएनयू) की रिपोर्ट के मुताबिक अगर कोरोना सबसे खराब स्थिति में पहुंचा तो भारत में 10.40 करोड़ नए लोग गरीबी की रेखा से नीचे चले जाएंगे। इस समय विश्व बैंक के आय मानकों के अनुसार भारत में लगभग 81.2 करोड़ लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं, जोकि देश की कुल आबादी का 60 फीसदी है। यदि देश में कोरोना का कहर हद से आगे बढ़ा तो देश में गरीबों की संख्या बढक़र 91.5 करोड़ हो जायेगी, जोकि देश की कुल आबादी का 68 फीसदी होगा।  

कुल मिलाकर, लॉकडाउन में छूट के दौरान और लॉकडाउन समाप्ति के उपरांत अत्यन्त सतर्कता बरतने की आवश्यकता है। लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ मीडिया को अपनी रचनात्मक और सकारात्मक भूमिका का निर्वहन करना होगा। राजनीतिक स्तर पर संकीर्ण सोच का परित्याग करके अपना संवैधानिक दायित्व निभाना बेहद जरूरी है। समाज में साम्प्रदायिक जहर भरने वालों और अफवाह एवं नफरत फैलाने वाले असामाजिक तत्वों पर तत्काल कानूनी नकेल डालनी होगी। कोरोना की जंग में जनता को तन-मन-धन से अपना योगदान देना होगा। सबसे बड़ी बात, कोरोना की कमर तोडऩे के लिए हमें हर स्तर पर लापरवाहियों से बचना ही होगा। 

(राजेश कश्यप)
वरिष्ठ पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक
टिटौली (रोहतक)
हरियाणा-124005
मोबाईल/वाट्सअप नं.: 9416629889
email : rajeshtitoli@gmail.com

बुधवार, 22 अप्रैल 2020

‘पृथ्वी दिवस’ पर ‘पृथ्वी’ से जुड़े रोचक तथ्य

‘पृथ्वी दिवस’ पर ‘पृथ्वी’ से जुड़े रोचक तथ्य
-राजेश कश्यप 


1. प्रतिवर्ष 22 अप्रैल को पूरी दुनिया में ‘पृथ्वी दिवस’ मनाया जाता है।

2. ‘पृथ्वी’ अथवा ‘पृथिवी’ एक संस्कृत शब्द हैं जिसका अर्थ ‘एक विशाल धरा‘ होता है। अन्य भाषाओ इसे जैसे- अंग्रेजी में अर्थ और लातिन भाषा में टेरा कहा जाता है।

3. ‘पृथ्वी दिवस’ शब्द जुलियन कोनिंग 1969 ने दिया था।

4. 22 अप्रैल को जुलियन कोनिंग का जन्मदिन होता था। उसके अनुसार ‘बर्थ डे’ से मिलता जुलता है ‘अर्थ डे’ है। इसीलिए, उन्होंने 22 अप्रैल को ‘अर्थ डे’ मनाने का सुझाव दिया था।

5. 22 अप्रैल को पृथ्वी दिवस मनाने की शुरूआत एक अमेरिकी सीनेटर गेलॉर्ड नेल्सन ने की थी।

6. वर्ष 1969 में सांता बारबरा, कैलिफोर्निया में तेल रिसाव की भारी बर्बादी देखकर गेलार्ड नेल्सन इतने आहत हुए कि उन्होंने पर्यावरण संरक्षण को लेकर इसकी शुरुआत करने का निर्णय लिया।

7. पृथ्वी दिवस वर्ष 1990 से इसे अंतरराष्ट्रीय दिवस के रुप में मनाया जाने लगा।

8. पृथ्वी के 40 प्रतिशत हिस्से पर सिर्फ छह देश हैं।

9. पृथ्वी पर सोना इतनी मात्रा में है कि यह डेढ़ फीट की गहराई तक इसे ढ़क सकता है।

10. पृथ्वी को 97 प्रतिशत पानी खारा है और मात्र 3 प्रतिशत पानी ही पीने योग्य है।

11. पृथ्वी पर 99 फीसदी प्राणी महासागरों में से हैं।

12. पृथ्वी की आकृति अंडाकार है। घुमाव के कारण, पृथ्वी भौगोलिक अक्ष में चिपटा हुआ और भूमध्य रेखा के आसपास उभार लिया हुआ प्रतीत होता है।

13. भूमध्य रेखा पर पृथ्वी का व्यास, अक्ष-से-अक्ष के व्यास से 43 किलोमीटर (27 मील) ज्यादा बड़ा है। 

14. पृथ्वी का औसत व्यास 12,742 किलोमीटर (7, 918 मील) है। 

15. पृथ्वी की रचना में निम्नलिखित तत्वों का योगदान है। 

16. 34.6 प्रतिशत आयरन, 29.5 प्रतिशत आक्सीजन, 15.2 प्रतिशत सिलिकन, 12.7 प्रतिशत मैग्नेशियम, 2.4 प्रतिशत निकेल,  1.9 प्रतिशत सल्फर, 0.05 प्रतिशत टाइटेनियम, शेष अन्य।

17. पृथ्वी के वातावरण मे 77 प्रतिशत नायट्रोजन, 21 प्रतिशत आक्सीजन, और कुछ मात्रा मे आर्गन, कार्बन डाय आक्साईड और जल वाष्प है।

18. पृथ्वी के वायुमंडल की कोई निश्चित सीमा नहीं है, यह आकाश की ओर धीरे-धीरे पतला होता जाता है और बाह्य अंतरिक्ष में लुप्त हो जाता है।

19. सूर्य के सापेक्ष पृथ्वी की परिक्रमण अवधि (सौर दिन) 86,400 सेकेंड (86,400.0025 एसआई सेकंड) का होता है।

20. पृथ्वी का एकमात्र प्राकृतिक उपग्रह चन्द्रमा है। 

21. पृथ्वी के 11 प्रतिशत हिस्से का उपयोग भोजन उत्पादन करने में होता है।

22. पृथ्वी अपनी धुरी पर 1600 किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से घूम रही है और सूर्य के इर्द-गिर्द 29 किलोमीटर प्रति सेकिण्ड की रफ्तार से चक्कर लगा रही है।

23. पृथ्वी पर हर स्थान पर गुरूत्वाकर्षण एक जैसा नहीं है।

24. समुद्र के जरिये पृथ्वी का चक्कर लगाने में पुर्तगाल के नाविक फर्डिलेंड मैगलन ने वर्ष 1519 से 1521 के बीच अपनी अपने दल के साथ कामयाबी हासिल की थी। 

25. सौरमण्डल में पृथ्वी ही एक ऐसी जगह है, जहां तीनों अवस्थाएं ठोस, तरल और गैस मौजूद है।

गुरुवार, 16 अप्रैल 2020

एनसीआरटी की पाठ्य पुस्तकें केवल एक क्लिक पर!

एनसीआरटी की पाठ्य पुस्तकें केवल एक क्लिक पर!

केन्द्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (सीबीएसई) के लिए राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की पाठ्य पुस्तकें नीचे दिए गए लिंक को क्लिक करके डाऊनलोड करें। इस लिंक पर एक पीडीएफ फाईल मिलेगी, जिसमें कक्षा के विषय के अनुसार पुस्तकों के लिंक दिए गए हैं। इन लिंक्स पर क्लिक करके आसानी से कोई भी पुस्तक डाऊनलोड की जा सकती है।




मैं सभी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।

-राजेश कश्यप
टिटौली (रोहतक)
मोबाईल/वाट्सअप नं.: 9416629889

हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड की पाँचवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकें डाऊनलोड करें

हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड की पाँचवीं कक्षा की पाठ्य पुस्तकें डाऊनलोड करें

इस समय कोरोना वायरस के कारण देशभर में लॉकडाउन चल रहा है। आगामी 15 मई, 2020 तक सभी शैक्षणिक संस्थानों को बंद किया गया है। इस दौरान हरियाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड ने पहली से आठवीं कक्षा तक के बच्चों को परीक्षा के बिना ही अगली कक्षा में शामिल कर लिया है। इस समय नई कक्षा में बच्चों को घर पर ही पढ़ाई करने के लिए विवश होना पड़ रहा है। इसके साथ ही उन्हें नई पाठ्य पुस्तकों का अभाव भी झेलना पड़ रहा है। मेरी बिटिया स्वाति कश्यप पाँचवीं कक्षा में पहुंच गई है। इसलिए उसकीं सुविधा के लिए मैंने काफी कोशिशों के बाद कक्षा पाँच की पाठ्यपुस्तकों की पीडीएफ फाईल ढ़ूंढ़ निकाली हैं। पाँचवीं कक्षा के अन्य बच्चों को भी घर बैठे इन पाठ्य पुस्तकों का लाभ मिल सके। इसी नेक उद्देश्य के लिए इन पाठ्य पुस्तकों की पीडीएफ फाईल सांझा कर रहा हूँ। पाँचवीं कक्षा के सभी बच्चे इन पुस्तकों के फोटो अथवा पुस्तक के नामों पर क्लिक करके डाऊनलोड कर लें और नियमित रूप से अपनी पढ़ाई करें। 

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मैं सभी बच्चों के उज्ज्वल भविष्य की कामना करता हूँ।

-राजेश कश्यप
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