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सोमवार, 24 दिसंबर 2012

खतरे में पड़ती नारी अस्मिता !!

विडम्बना 
 खतरे में पड़ती नारी अस्मिता !! 
-राजेश कश्यप 
भाजपा की शीर्ष नेत्री स्मृति-ईरानी और कांग्रेस सांसद संजय निरूपम के बीच हुए विवाद की जितनी भी निन्दा की जाए, कम है। इस विवाद ने कई गंभीर सवालों को न केवल जन्म दिया है, बल्कि एक नारी के प्रति असंवेदनशील होती राजनीति के काले चेहरे को भी बेनकाब कर दिया है। इस विषय पर गहराई में जाने से पहले, ताजा मामले पर प्रकाश डालना सर्वथा उचित होगा। दरअसल, मामला 20 दिसम्बर की शाम का है। हाल ही में हुए गुजरात और हिमाचल विधानसभा चुनावांे के परिणामों पर टेलीविजन चैनलों पर राजनीतिकों के बीच विश्लेषणात्मक बहस हो रही थी। इनमें से एक टेलीविजन चैनल एबीपी न्यूज पर भी इसी विषय पर लाईव बहस जारी थी, जिसमें भाजपा की तरफ से स्मृति ईरानी, कांग्रेस की तरफ से संजय निरूपम, स्वतंत्रत विश्लेषक के तौरपर सपा के पूर्व महासचिव और पत्रकार शाहिद सिद्दकी चर्चा में भाग ले रहे थे। इसी बीच कांग्रेस के प्रवक्ता और सांसद संजय निरूपम आपा खो बैठे और उन्होंने स्मृति ईरानी पर अशोभनीय व्यक्तिगत कटाक्ष करने शुरू कर दिए। बहस के संचालक ने बार-बार संजय से इस तरह के व्यक्तिगत व अशोभनीय आक्षेप न लगाने की गुजारिश की। इसके बावजूद, संजय निरूपम नहीं संभले और उन्होंने एक नारी के प्रति बरती जाने वाली मर्यादा को भी तार-तार करते हुए उनके निजी चरित्र पर ही बेहद गंभीर सवालिया निशान लगा दिये। स्मृति ईरानी ने इस पर सख्त ऐतराज जताया। मामले की गंभीरता को देखते हुए एबीपी न्यूज के संचालक ने तत्काल इस बहस को विराम देने की आड़ में समाप्त कर दिया और संजय निरूपम की टिप्पणियों पर चैनल के इत्तफाक न रखने का स्पष्ट ऐलान भी कर दिया।
इस नवीनतम विवाद ने सभ्य समाज को सकते में डालकर रख दिया है और कई गंभीर और सुलगते सवालों को जन्म दे दिया है। क्या संजय निरूपम ने इस तरह के अमर्यादित, अनैतिक, गैरकानूनी और अशोभनीय आक्षेप पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर लगाए हैं या फिर गुजरात में नरेन्द्र मोदी द्वारा हैट्रिक जमाने और कांग्रेस की करारी हार के कारण बौखलाहट का परिणाम थीं? कारण चाहे जो भी हांे, क्या यह प्रकरण एक जनप्रतिनिधि के लिए बेहद शर्मनाक नहीं है? क्या इससे स्पष्ट नहीं झलकता कि संजय निरूपम की नारी के प्रति क्या इज्जत, मर्यादा और मानसिकता हो सकती है? वे आखिर यह क्यों भूल गए कि वे जिस नारी को अपने आवेश और आक्रोश का शिकार बनाते हुए मर्यादा की हर हद पार कर रहे हैं और उनके इस आचरण से एक सभ्य समाज को शर्मिन्दा भी होना पड़ सकता है? क्या संजय के इस असभ्य आचरण ने कांग्रेस पार्टी के लिए भी गंभीर नैतिक संकट नहीं खड़ा कर दिया है। इससे पहले संजय निरूपम में बिग बॉस प्रतिभागी संभावना सेठ पर भी टेलीविजन पर बातचीत के दौरान उनके कैरियर के संदर्भ में आक्षेप लगाए थे। इसका मतलब, क्या यह नहीं निकलता कि कहीं न कहीं संजय निरूपम की मानसिकता नारी विरोधी है? यदि ऐसा है तो क्या उन्हें एक जन-प्रतिनिधि के दायरे में रखना चाहिए?
इन सवालों के साथ-साथ इस प्रकरण के बाद बहस में शामिल सपा के पूर्व महासचिव और पत्रकार शाहिद सिद्दी की दो टूक और बेलाग टिप्पणियां भी विषय की गंभीरता का सहज अहसास कराती हैं। शाहिद सिद्दकी ने बहस के दौरान भी संजय निरूपम की भाषा पर ऐतराज जताया था। बाद में उन्होंने स्पष्ट तौरपर कहा कि संजय निरूपम की टिप्पणी अनुचित थी। उन्हें माफी मांगनी चाहिए। अगर संसद सदस्य इस तरह का व्यवहार करेंगे तो हम दूसरों से क्या उम्मीद करेंगे? अगर संसद सदस्य महिलाओं का सम्मान नहीं करेगा तो जिस तरह के रेप केस होते रहे हैं, वे आगे भी होते रहेंगे। शाहिद सिद्दकी की यह प्रतिक्रिया निश्चित तौरपर जन-प्रतिनिधियों को बहुत बड़ा संदेश देती है।
इस प्रकरण के अगले ही दिन भाजपा ने प्रेस कांफ्रेंस करके संजय निरूपम के इस आचरण पर सख्त रूख अपनाने की घोषणा कर दी। इसके साथ ही श्रीमती सोनिया गांधी को आवश्यक कार्यवाही करने और माफी मांगने के लिए कहा गया। प्रेस कांफ्रेंस में भाजपा के वरिष्ठ नेता रवि शंकर प्रसाद द्वारा ऐसा न होने पर संजय का हर स्तर पर विरोध करने के साथ-साथ सोनिया गांधी के खिलाफ भी अभियान चलाने और उसका बहिष्कार करने की घोषणा की गई। यह सब स्वभाविक तो था ही, साथ ही बहुत जरूरी भी था। इस प्रकरण में केवल स्मृति ईरानी से माफी मांगने से काम नहीं चलना चाहिए। यह मसला पूरी नारी जाति की गरिमा से जुड़ा हुआ है। इसलिए पूरी नारी जाति से माफी मांगी जानी चाहिए और कांग्रेस पार्टी के शीर्ष नेतृत्व को देश को यह विश्वास भी दिलाना चाहिए कि भविष्य में उसके किसी सदस्य द्वारा इस तरह का असभ्य आचरण बिल्कूल नहीं होगा। यह विश्वास कांग्रेस को संजय निरूपम पर सख्त अनुशासनात्मक कार्यवाही करके दिलाना चाहिए।
बेहद विडम्बना का विषय है कि देश में नारी सशक्तिकरण के नाम पर निरन्तर छलावा हो रहा है। संसद में महिलाओं को 33 प्रतिशत आरक्षण देने के नाम पर संकीर्ण सियासत चलाई जा रही है। महिलाओं के नेतृत्व में ही महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चत नहीं हो पा रही है। एक तरफ तो देश में लड़कियों की संख्या कन्या-भू्रण हत्या के अभिशाप के चलते तेजी से कम होती जा रही है और दूसरी तरफ उनकें साथ छेड़छाड़ और बलात्कारों के मामलों में भारी वृद्धि होती चली जा रही है। सबसे दुर्भाग्य की बात तो यह है कि एक महिला ही महिला के दर्द को नहीं समझ पा रही है। जब वर्ष 2011 मंे उत्तर प्रदेश में सुश्री मायावती की सरकार थी तो प्रतिदिन दलित महिलाओं व लड़कियों के साथ बलात्कार के मामले प्रकाश में आ रहे थे। यू.पी. में होने वाले बलात्कारों की संख्या ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया था। जब इस मसले पर मायावती से प्रतिक्रिया ली गई तो उन्होंने तपाक से कहा कि उन्हें जानबूझकर निशाना बनाया जा रहा है। उनसे बढ़कर तो दिल्ली में बलात्कार हो रहे हैं। क्या यह प्रतिक्रिया एक नारी के प्रति दूसरी नारी की संवेदनहीनता को नहीं दर्शाता? पिछले दिनों हरियाणा में एक बाद एक होने वाले बलात्कारों ने पूरे देश का ध्यान आकृष्ट किया। हरियाणा में प्रतिदिन औसतन दो से तीन बलात्कारों की घटनाओं ने स्थिति को बेहद गंभीर बना दिया और लॉ एण्ड ऑर्डर पर भी सवालिया निशान लगा दिया। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए यूपीए अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी हरियाणा के जीन्द जिले के सच्चा खेड़ा में बलात्कार का शिकार एक दलित लड़की का हालचाल जानने पहुँची। पीड़ित परिवार से मिलने के बाद श्रीमती सोनिया गाँधी ने प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि यह कोई गंभीर बात नहीं है, इस तरह के मामले तो देशभर में हो रहे हैं। श्रीमती सोनिया गाँधी की इस टिप्पणी से न केवल पीड़ित परिवार के प्रति जताई गई सहानुभूति संदेह के दायरे में आ गई, बल्कि बलात्कार जैसे जघन्य अपराध के प्रति उनकीं संवेदनहीनता भी स्पष्ट हो गई। जब उनकीं इस प्रतिक्रिया के संदर्भ में योगगुरू बाबा रामदेव ने पूछा कि यदि पीड़िता की तरह ही उसकी बेटी के साथ ऐसा व्यवहार (बलात्कार) हुआ होता तो क्या तब भी वे यही बयान देती? कमाल की बात यह रही कि इसके प्रत्युत्तर में भी कांग्रेस की एक महिला सांसद ने अशोभनीय टिप्पणी करते हुए कहा कि बाबा से पूछना चाहिए कि उसकी कौन सी बेटी है? उसकी कौन सी बेटी से बलात्कार हुआ है? क्या यह नारी के प्रति नारी की उपेक्षा का सबसे दुर्भाग्यपूर्ण उदाहरण नहीं है?
देश के महानगरों में महिलाओं की सुरक्षा पर भी कई बार गंभीर सवाल खड़े हो चुके हैं। हाल ही में दिल्ली में पैरा-मैडीकल छात्रा के साथ चलती बस में हुए सामूहिक बलात्कार ने एक सभ्य समाज को न्याय माँगने और राजनीतिकों को जगाने के लिए सड़कों पर उतरने के लिए विवश होना पड़ा है। विडम्बना देखिए, दिल्ली में भी श्रीमती शीला दीक्षित के रूप में एक महिला मुख्यमंत्री हैं, इसके बावजूद दिल्ली में लड़कियों और महिलाओं की सुरक्षा निरन्तर तार-तार हो रही है। उससे बढ़कर दुर्भाग्य का विषय है कि सत्तारूढ़ केन्द्रीय सरकार यूपीए-दो का नेतृत्व भी एक महिला, श्रीमती सोनिया गाँधी ही कर रही हैं। इसके बावजूद देश में महिलाओं के अपहरण, छेड़छाड़, यौनाचार, बलात्कार, ब्लैक-मेलिंग के मामले निरन्तर बढ़ते ही चले जा रहे हैं।
यदि आंकड़ों के आईने में देखा जाए तो एक बेहद भयानक और डरावनी तस्वीर उभरकर सामने आती है। इस समय देश में हर बीस मिनट में एक दुष्कर्म और हर 25 मिनट में छेड़छाड़ हो रही है और हर 76 मिनट में एक नाबालिग से बलात्कार हो रहा है। दुर्भाग्यवश देश की राजधानी में हर 18 मिनट में एक बलात्कार की घटना घट रही है। सबसे बड़ी विडम्बना की बात यह है कि मात्र 26 प्रतिशत दुष्कर्म दोषियों को ही सजा मिल पा रही है। वर्ष 2011 में देशभर में कुल 7112 मामले दर्ज हुए, जबकि वर्ष 2010 में 5484 मामले दर्ज हुए थे। इस तरह से बलात्कारों में 29.7 वार्षिक बढ़ौतरी हुई। यह तो वे मामले हैं जो पुलिस थानों में दर्ज हुए हैं। इससे अधिक तो भारी सामाजिक, राजनीतिक और पारिवारिक दबाओं और शर्म व इज्जत के चलते दर्ज ही नहीं हो पाते। ऐसे में स्थिति की गंभीरता को सहज समझा जा सकता है। 
सबसे बड़ी गंभीर बात तो यह है कि जिन जन-प्रतिनिधियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे ऐसी अभेद, अचूक व कड़ी कानूनी व्यवस्था बनाएं कि नारी की गरिमा और उसकी इज्जत पर हाथ डालने वाले वहशी दरिन्दे सौ बार नहीं, हजार बार सोचें। उन्हीं जन-प्रतिनिधियांे में भी ऐसे वहशी दरिन्दे शामिल हैं, जिन पर बलात्कार और यौन शोषण जैसे गंभीर आरोप लगे हुए हैं। नैशनल इलेक्शन वॉच के आंकड़ों के अनुसार इस समय देश में छह विधायक ऐसे भी हैं, जिनपर बलात्कार जैसे संगीन आरोप हैं। इसके साथ ही 35 विधायकों और दो सांसदों पर भी महिलाओं से छेड़छाड़ करने और मारपीट करने के आरोप हैं। ऐसे में क्या जन-प्रतिनिधियों की निष्ठा पर गंभीर सवाल खड़े होना स्वभाविक नहीं है? क्या बलात्कारों के मसले पर नेताओं के गैर-जिम्मेदाराना बयान किसी अमानवीय बलात्कार से कम कहे जा सकते हैं? ऐसे ही असंख्य ज्वलंत सवाल हैं, जिनके जवाब पूरा देश जानना चाहता है। 

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक हैं।)

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