चुनावी हार और जीत के मूल सबक
-राजेश कश्यप
पाँच राज्यों के चुनावी परिणामों ने यह साबित कर दिया है कि जो भी नेता अथवा पार्टी आम आदमी की भावनाओं की कद्र नहीं करती, उसकी ऐसी ही परिणति होती है। ये चुनाव परिणाम खासकर कांग्रेस पार्टी के लिए गहन आत्म-मंथन करने और सबक लेने वाले हैं। चार राज्यों में कांग्रेस की करारी शिकस्त इस तथ्य को सिद्ध करती हैं कि वह आम आदमी की अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरी है और इसी के चलते उसे यह खामियाजा भुगतना पड़ा है।
देश की निगाहें उत्तर प्रदेश के चुनावों पर केन्द्रित थीं। पहली बार यू.पी. सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए कुरूक्षेत्र का मैदान बना। किसी भी पार्टी ने इस राजनीतिक जंग में जीत हासिल करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कोई भी कुटनीति आजमाने से परहेज नहीं किया। कांग्रेस पार्टी ने तो अपनी कूटनीतियों के चलते अन्य सभी पार्टियों को बौना ही साबित कर दिया था। कांग्रेस के महासचिव व पार्टी के स्टार प्रचारक राहुल गांधी द्वारा ‘एंग्री यंगमैन’ बनकर मंचों पर तूफान खड़ा करना, आस्तीनें चढ़ाना, समाजवादी पार्टी के सांकेतिक घोषणा-पत्र को एक झटके के साथ खारिज करते हुए टुकड़े-टुकड़े करना और अपने साथ बहन प्रियंका गांधी को भी मैदान में उतारना आदि सब धरा का धरा रह गया। इन सबके बावजूद कांग्रेस की ऐसी हालत होगी, यह सिर्फ बाबा रामदेव को छोड़कर किसी भी राजनीतिक विश्लेषक अथवा सर्वेकर्ता एजेंसी ने नहीं सोचा था। निश्चित तौरपर चुनावी परिणाम बड़े चौंकाने वाले हैं।
इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी की दुर्गति क्यों हुई? यह सवाल सबसे अहम् है। यदि इस सवाल पर गहन समीक्षा की जाए तो कांग्रेस की हार का मुख्य आधार भ्रष्टाचार बना है। इसके बाद अन्य समसामयिक कारक कांग्रेस की हार के सहायक बने। कांग्रेस सरकार में हुए एक के बाद एक बड़े घोटाले ने आम आदमी को आक्रोश से भरकर रख दिया। कोई माने या न माने, अन्ना और बाबा रामदेव के आन्दोलनों ने आम आदमी के विवेक को जगाने का काम किया। अन्ना द्वारा भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए सशक्त ‘जन लोकपाल बिल’ के लिए चलाए गए ऐतिहासिक आन्दोलन ने कांग्रेस को आम आदमी की नजरों में खलनायक बनाकर रख दिया। इसके साथ ही कालाधन मुद्दे पर आन्दोलन चलाने वाले बाबा रामदेव को सीधा निशाना बनाने और आधीरात को रामलीला मैदान में निर्दोष लोगों पर पुलिस के कहर ढ़ाने जैसे निंदनीय कृत्यों ने भी कांग्रेस की बुरी हार की पटकथा लिखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इसकी शुरूआत पिछले वर्ष हरियाणा के हिसार उपचुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता की हार से हुई। लेकिन, कांग्रेस ने इससे सबक नहीं लिया और जनता की भावनाओं को दरकिनार कर दिया। इसकी अगली कड़ी के रूप में हालिया पांच राज्यों के चुनावों के परिणाम देखे जा सकते हैं।
कांग्रेस की हार के लिए कांग्रेसी नेताओं की बदजुबानी और अति उत्साह भी जिम्मेदार है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने अति उत्साह और पार्टी की नजरों में हीरो बनने के लिए संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग को भी नहीं बख्शा और असहाय होकर चुनाव आयोग को इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति को चुनाव आचार संहिता की खुलेआम धज्जियां उड़ाने के लिए पत्र लिखने को विवश होना पड़ा। इसके साथ ही मुस्लिमों को कोटे में से कोटे के अन्तर्गत आरक्षण देने जैसे बयान देकर साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलने से भी वे नहीं चूके। राहुल गांधी की रैलियों में काले झण्डे दिखाने वाले लोगों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ नेताओं ने भी चुन-चुनकर पीटा। मंचों पर राहुल गांधी द्वारा लोगों को भड़काऊ भाषण देने और सपा के घोषणा पत्र को सांकेतिक रूप में फाड़ने जैसे फिल्मी अंदाजों ने भी जनता-जनार्दन को काफी कुछ सोचने के लिए बाध्य किया। दलितों के घरों में खाना खाने और सोने जैसे लोक-लुभावने काम भी फीके हो गए।
उत्तर प्रदेश में दलितों की मसीहा सुश्री मायावती का बुरा हश्र भी भ्रष्टाचार ही मुख्य आधार बना और उनकीं तानाशाही प्रवृति उसकी सहायक बनी। अपने कार्यकाल के दौरान मायावती भ्रष्टाचारी मंत्रियों को संरक्षण देती रही और चुनाव सिर पर आते ही उन्हें एक झटके से एक के बाद एक दो दर्जन भर भ्रष्ट मंत्रियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यदि यह कदम कुछ समय पहले उठा लिया गया होता तो संभवतः इसका लाभ उन्हें मिल सकता था। एनआरएचएम जैसा बड़ा घोटाला मायावती के लिए घातक सिद्ध हुआ। एक तरफ गरीब आदमी भूख से मर रहा थे और किसान लोग आत्महत्या करने के लिए विवश हो रहे थे और दूसरी तरफ मायावती अपने जन्मदिन पर तोहफों के नाम पर अकूत धन लूट रही थी और राज्य का पैसा पार्कों व मुर्तियों पर पानी की तरह बहा रहीं थीं। यह सब जनता को एकदम नागवार गुजरा। दलितों की मसीहा कहलाने वाली मायावती की नाक के नीचे ही राहुल गांधी लगातार दलितों की राजनीति करते नजर आए। मायावती ने दलितों की स्थिति की सुध लेने की बजाय राजनीतिक आक्षेप लगाकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। मायावती ने दलितों, पिछड़ों को अपनी जागीर समझ लिया था। इस सोच ने उनकीं नैया को डुबोकर रख दिया। मायावती की तानाशाही प्रवृति ने भी उनकीं हार की पटकथा लिखने में अहम् भूमिका निभाई है।
भाजपा को भी इन चुनावों ने काफी सोचने के लिए बाध्य किया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उसके ढूलमूल रवैये और अन्ना व बाबा रामदेव के कंधो पर बंदूक रखकर चलाने की मंशा ने उन्हें कहीं न कहीं वास्तविक आईना दिखाया है। सशक्त जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर भी उसकी चालें बड़ी उलझीं हुईं रही। आम आदमी की नजरों में चढ़ने के मौकों पर भाजपा चूकतीं रहीं और देश में चले भ्रष्टाचार के आन्दोलनों को भूनाने के लिए कूटनीतिक चालें चलतीं रहीं और बहती गंगा में हाथ धोकर ही चुनावों में विजय पताका फहराने के दिवास्वप्न देखती रही। हालांकि भ्रष्टाचार आन्दोलनों में कांग्रेस के खिलाफ चली बयार का लाभ भाजपा को गोवा व पंजाब में मिला है। लेकिन यू.पी. में उसकी बुरी तरह किरकिरी भी हुई है। यह सब भाजपा की दोगली नीतियों, दूसरों के कंधों पर बन्दूक चलाने व बहती गंगा में हाथ धोने जैसी प्रवृतियों के कारण ही हुआ है।
इन पाँच राज्यों के चुनावों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक दल कितनी ही कुटनीतियां अपना लें, आम आदमी को ठगा नहीं जा सकता है। इस बार चुनावों का सबसे सकारात्मक रूख मतदान प्रतिशत में भारी बढ़ौतरी दर्ज होना है। मतदाताओं ने अपने वोट के अधिकार को समझा है और समय निकालकर अपने इस हक का समुचित प्रयोग करने का संकल्प भी लिया है। साम्प्रदायिकता व जातिवाद की राजनीति को किनारे करके मतदाताओं ने अपने विवके की परिपक्वता का बखूबी परिचय दिया है। यू.पी. में पहली बार अपेक्षा से बढ़कर भारी चुनाव हुआ। इन चुनावों ने कहीं न कहीं इस तथ्य पर भी अपनी मोहर लगवाई है कि जब बड़ी संख्या में मतदान होता है तो वह सत्ता विरोधी परिणाम की पटकथा लिखता है।
चूंकि एक लंबे अरसे तक इन पाँच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणीपुर के चुनावी परिणाम सभी राजनीतिक दलों व विश्लेषकों के लिए गहन मन्थन का विषय बने रहेंगे। ऐसे में किसी को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जो भी पार्टी आम आदमी के दर्द को नहीं समझेगी, उनकीं उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगी, भय-भूख-भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को निपटाने के लिए कारगर भूमिका नहीं निभाएगी और आम आदमी की भावनाओं के अनुरूप अपने राजनीतिक एजेण्डे का निर्माण नहीं करेगी, तब तक उन्हें आम आदमी का साथ मिलने वाला नहीं है। जनता अब जाग चुकी है और यह भलीभांति समझने लगी है कि कौन नेता अथवा राजनीतिक दल संकीर्ण राजनीतिक पैंतरेबाजी चला रहा है और कौन उनकीं उम्मीदों के अनुरूप काम कर रहा है। यही सब चुनावी हार और जीत के मूल सबक हैं।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं.)
देश की निगाहें उत्तर प्रदेश के चुनावों पर केन्द्रित थीं। पहली बार यू.पी. सभी राजनीतिक पार्टियों के लिए कुरूक्षेत्र का मैदान बना। किसी भी पार्टी ने इस राजनीतिक जंग में जीत हासिल करने के लिए साम-दाम-दण्ड-भेद आदि कोई भी कुटनीति आजमाने से परहेज नहीं किया। कांग्रेस पार्टी ने तो अपनी कूटनीतियों के चलते अन्य सभी पार्टियों को बौना ही साबित कर दिया था। कांग्रेस के महासचिव व पार्टी के स्टार प्रचारक राहुल गांधी द्वारा ‘एंग्री यंगमैन’ बनकर मंचों पर तूफान खड़ा करना, आस्तीनें चढ़ाना, समाजवादी पार्टी के सांकेतिक घोषणा-पत्र को एक झटके के साथ खारिज करते हुए टुकड़े-टुकड़े करना और अपने साथ बहन प्रियंका गांधी को भी मैदान में उतारना आदि सब धरा का धरा रह गया। इन सबके बावजूद कांग्रेस की ऐसी हालत होगी, यह सिर्फ बाबा रामदेव को छोड़कर किसी भी राजनीतिक विश्लेषक अथवा सर्वेकर्ता एजेंसी ने नहीं सोचा था। निश्चित तौरपर चुनावी परिणाम बड़े चौंकाने वाले हैं।
इन चुनावों में कांग्रेस पार्टी की दुर्गति क्यों हुई? यह सवाल सबसे अहम् है। यदि इस सवाल पर गहन समीक्षा की जाए तो कांग्रेस की हार का मुख्य आधार भ्रष्टाचार बना है। इसके बाद अन्य समसामयिक कारक कांग्रेस की हार के सहायक बने। कांग्रेस सरकार में हुए एक के बाद एक बड़े घोटाले ने आम आदमी को आक्रोश से भरकर रख दिया। कोई माने या न माने, अन्ना और बाबा रामदेव के आन्दोलनों ने आम आदमी के विवेक को जगाने का काम किया। अन्ना द्वारा भ्रष्टाचार पर नकेल कसने के लिए सशक्त ‘जन लोकपाल बिल’ के लिए चलाए गए ऐतिहासिक आन्दोलन ने कांग्रेस को आम आदमी की नजरों में खलनायक बनाकर रख दिया। इसके साथ ही कालाधन मुद्दे पर आन्दोलन चलाने वाले बाबा रामदेव को सीधा निशाना बनाने और आधीरात को रामलीला मैदान में निर्दोष लोगों पर पुलिस के कहर ढ़ाने जैसे निंदनीय कृत्यों ने भी कांग्रेस की बुरी हार की पटकथा लिखने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। इसकी शुरूआत पिछले वर्ष हरियाणा के हिसार उपचुनाव में कांग्रेस के दिग्गज नेता की हार से हुई। लेकिन, कांग्रेस ने इससे सबक नहीं लिया और जनता की भावनाओं को दरकिनार कर दिया। इसकी अगली कड़ी के रूप में हालिया पांच राज्यों के चुनावों के परिणाम देखे जा सकते हैं।
कांग्रेस की हार के लिए कांग्रेसी नेताओं की बदजुबानी और अति उत्साह भी जिम्मेदार है। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं ने अति उत्साह और पार्टी की नजरों में हीरो बनने के लिए संवैधानिक संस्था चुनाव आयोग को भी नहीं बख्शा और असहाय होकर चुनाव आयोग को इतिहास में पहली बार राष्ट्रपति को चुनाव आचार संहिता की खुलेआम धज्जियां उड़ाने के लिए पत्र लिखने को विवश होना पड़ा। इसके साथ ही मुस्लिमों को कोटे में से कोटे के अन्तर्गत आरक्षण देने जैसे बयान देकर साम्प्रदायिकता का कार्ड खेलने से भी वे नहीं चूके। राहुल गांधी की रैलियों में काले झण्डे दिखाने वाले लोगों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं के साथ-साथ नेताओं ने भी चुन-चुनकर पीटा। मंचों पर राहुल गांधी द्वारा लोगों को भड़काऊ भाषण देने और सपा के घोषणा पत्र को सांकेतिक रूप में फाड़ने जैसे फिल्मी अंदाजों ने भी जनता-जनार्दन को काफी कुछ सोचने के लिए बाध्य किया। दलितों के घरों में खाना खाने और सोने जैसे लोक-लुभावने काम भी फीके हो गए।
उत्तर प्रदेश में दलितों की मसीहा सुश्री मायावती का बुरा हश्र भी भ्रष्टाचार ही मुख्य आधार बना और उनकीं तानाशाही प्रवृति उसकी सहायक बनी। अपने कार्यकाल के दौरान मायावती भ्रष्टाचारी मंत्रियों को संरक्षण देती रही और चुनाव सिर पर आते ही उन्हें एक झटके से एक के बाद एक दो दर्जन भर भ्रष्ट मंत्रियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया। यदि यह कदम कुछ समय पहले उठा लिया गया होता तो संभवतः इसका लाभ उन्हें मिल सकता था। एनआरएचएम जैसा बड़ा घोटाला मायावती के लिए घातक सिद्ध हुआ। एक तरफ गरीब आदमी भूख से मर रहा थे और किसान लोग आत्महत्या करने के लिए विवश हो रहे थे और दूसरी तरफ मायावती अपने जन्मदिन पर तोहफों के नाम पर अकूत धन लूट रही थी और राज्य का पैसा पार्कों व मुर्तियों पर पानी की तरह बहा रहीं थीं। यह सब जनता को एकदम नागवार गुजरा। दलितों की मसीहा कहलाने वाली मायावती की नाक के नीचे ही राहुल गांधी लगातार दलितों की राजनीति करते नजर आए। मायावती ने दलितों की स्थिति की सुध लेने की बजाय राजनीतिक आक्षेप लगाकर ही अपने कर्त्तव्य की इतिश्री कर ली। मायावती ने दलितों, पिछड़ों को अपनी जागीर समझ लिया था। इस सोच ने उनकीं नैया को डुबोकर रख दिया। मायावती की तानाशाही प्रवृति ने भी उनकीं हार की पटकथा लिखने में अहम् भूमिका निभाई है।
भाजपा को भी इन चुनावों ने काफी सोचने के लिए बाध्य किया है। भ्रष्टाचार के मुद्दे पर उसके ढूलमूल रवैये और अन्ना व बाबा रामदेव के कंधो पर बंदूक रखकर चलाने की मंशा ने उन्हें कहीं न कहीं वास्तविक आईना दिखाया है। सशक्त जन लोकपाल बिल के मुद्दे पर भी उसकी चालें बड़ी उलझीं हुईं रही। आम आदमी की नजरों में चढ़ने के मौकों पर भाजपा चूकतीं रहीं और देश में चले भ्रष्टाचार के आन्दोलनों को भूनाने के लिए कूटनीतिक चालें चलतीं रहीं और बहती गंगा में हाथ धोकर ही चुनावों में विजय पताका फहराने के दिवास्वप्न देखती रही। हालांकि भ्रष्टाचार आन्दोलनों में कांग्रेस के खिलाफ चली बयार का लाभ भाजपा को गोवा व पंजाब में मिला है। लेकिन यू.पी. में उसकी बुरी तरह किरकिरी भी हुई है। यह सब भाजपा की दोगली नीतियों, दूसरों के कंधों पर बन्दूक चलाने व बहती गंगा में हाथ धोने जैसी प्रवृतियों के कारण ही हुआ है।
इन पाँच राज्यों के चुनावों ने एक बार फिर सिद्ध कर दिया है कि राजनीतिक दल कितनी ही कुटनीतियां अपना लें, आम आदमी को ठगा नहीं जा सकता है। इस बार चुनावों का सबसे सकारात्मक रूख मतदान प्रतिशत में भारी बढ़ौतरी दर्ज होना है। मतदाताओं ने अपने वोट के अधिकार को समझा है और समय निकालकर अपने इस हक का समुचित प्रयोग करने का संकल्प भी लिया है। साम्प्रदायिकता व जातिवाद की राजनीति को किनारे करके मतदाताओं ने अपने विवके की परिपक्वता का बखूबी परिचय दिया है। यू.पी. में पहली बार अपेक्षा से बढ़कर भारी चुनाव हुआ। इन चुनावों ने कहीं न कहीं इस तथ्य पर भी अपनी मोहर लगवाई है कि जब बड़ी संख्या में मतदान होता है तो वह सत्ता विरोधी परिणाम की पटकथा लिखता है।
चूंकि एक लंबे अरसे तक इन पाँच राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणीपुर के चुनावी परिणाम सभी राजनीतिक दलों व विश्लेषकों के लिए गहन मन्थन का विषय बने रहेंगे। ऐसे में किसी को यह कदापि नहीं भूलना चाहिए कि जो भी पार्टी आम आदमी के दर्द को नहीं समझेगी, उनकीं उम्मीदों पर खरा नहीं उतरेगी, भय-भूख-भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं को निपटाने के लिए कारगर भूमिका नहीं निभाएगी और आम आदमी की भावनाओं के अनुरूप अपने राजनीतिक एजेण्डे का निर्माण नहीं करेगी, तब तक उन्हें आम आदमी का साथ मिलने वाला नहीं है। जनता अब जाग चुकी है और यह भलीभांति समझने लगी है कि कौन नेता अथवा राजनीतिक दल संकीर्ण राजनीतिक पैंतरेबाजी चला रहा है और कौन उनकीं उम्मीदों के अनुरूप काम कर रहा है। यही सब चुनावी हार और जीत के मूल सबक हैं।
(लेखक स्वतन्त्र पत्रकार हैं.)
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