26 फरवरी/पुण्यतिथि विशेष
सशस्त्र क्रांति के अग्रदूत वीर सावरकर
-राजेश कश्यप
विनायक दामोदर सावरकर |
देश की आजादी के लिए असंख्य वीरों ने असीम त्याग एवं बलिदान किए। उन्होंने अंग्रेजी सरकार के जुल्म एवं अत्याचार सहे। भूखे-प्यासे रहकर स्वतंत्रता के लिए निरन्तर अथक संघर्ष किया। देश की आजादी का दृढ़ संकल्प लेने वाले देशभक्तों ने अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। ऐसे ही महान देशभक्तों में से एक सशस्त्र क्रांति के अग्रदूत वीर सावरकर थे, जिनका पूरा नाम विनायक दामोदर सावरकर था। इनका जन्म 28 मई, 1883 को महाराष्ट्र के नासिक जिले में भगूर नामक गाँव में दामोदर पंत के घर राधाबाई की कोख से हुआ था। उनका मन बचपन से ही पढ़ाई मंे रम गया था। उन्हंे त्यांत्या राव के उपनाम से भी पुकारा जाता था। वीर सावरकर ने वर्ष 1901 में शिवाजी हाईस्कूल नासिक से मैट्रिक की परीक्षा पास की। फर्गयूसन कॉलेज मंे पढ़ते हुए वे राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत भाषण देते थे। वीर सावरकर ने बचपन में ही प्रतिज्ञा कर ली थी कि अपने देश को पुनः स्वतंत्रता दिलवाने के लिए सशस्त्र क्रांति की पताका फहराएंगे।
सावरकर छोटी उम्र से ही देशभक्ति से भरे लेख एवं कविताएं लिखते थे। 6 जून, 1906 को सावरकर कानून में बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए वे लन्दन के लिए रवाना हुए। यहां पर आते ही उन्होंने हिन्दुस्तानी छात्रों से सम्पर्क साधना शुरू कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने जर्मनी के तानाशाह मैजिनी की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद करना शुरू कर दिया। लन्दन में रहते हुए वे लाला हरदयाल और मदन लाल ढ़ींगरा के अलावा वी.वी.एस. अय्यर, डब्लू.बी.फड़के, सुखसागर दत्त, पाण्डुरंग बापट, निरंजन पाल, आशिफ अली, एम.पी.टी. आचार्य, नहुक चतुर्भुज, सिकन्दर हयात, ज्ञानचन्द वर्मा, विरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, हेमचन्द दास आदि युवा हिन्दुस्तानियों के सम्पर्क में आए। इन युवा हिन्दुस्तानियों को अपने जोशिले भाषणों के जरिए क्रांतिकारी पथ पर अग्रसर करने के प्रयास में सावरकर कामयाब रहे। उन्होनंे मैजिनी की आत्मकथा के मराठी अनुवाद के निष्कर्ष रूप में एक प्रस्तावना तैयार की, जिसका मूलभाव था, ‘‘...राष्ट्र कभी नहीं मरता। परमात्मा ने मानव को स्वतंत्र रहने के लिए ही पैदा किया है, गुलाम बनकर रहने के लिए नहीं। ये तथ्य सुनिश्चित है कि जब दृढ़ संकल्प लोगे तभी तुम्हारा देश स्वतंत्र हो जाएगा।’’ इस प्रेरणादायक प्रस्तावना को पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाकर देश के क्रांतिकारियों के बीच बांटा गया। भारी संख्या में युवाओं ने इसे कंठस्थ कर लिया। अंग्रेज सरकार को जब इस घटना की भनक लगी तो आनन-फानन में उसने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया
इसी बीच सावरकर ने अपने एक साथी बापट को रूसी क्रांतिकारी साथी से बम बनाने की विधि सीखने के लिए प्रेरित किया। काफी प्रयासों के बाद बापट अपने जानकार रूसी क्रांतिकारी से बम बनाने का मैनुअल हासिल करने में कामयाब हो गए। सावरकर ने इस मैनुअल को पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाकर भारत के क्रांतिकारियों तक पहुंचावाई, ताकि देशभर में एक साथ बम विस्फोट करके अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट किया जा सके।
इसी बीच सावरकर ने जर्मनी के स्टुअर्ट में दुनिया के सोशलिस्टों की एक बड़ी कांफ्रेंस हुई, जिसमें सभी देशों के झण्डे फहराए गए। भारत की तरफ से मैडम कामा ने सावरकर द्वारा तैयार भारतीय झण्डा फहराया। इस झण्डे में सभी आठ प्रान्तों के प्रतीक कमल पुष्प, सूर्य, चांद और बीच में ‘वन्देमातरम’ अंकित था। इसी दौरान उन्होंने सन् 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तक ‘1857 का सम्पूर्ण सत्य’ लिखी। जब अंग्रेजों को इसकी भनक लगी तो उन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबन्धित कर दिया।
जब सावरकर लन्दन में थे तो भारत में उनके परिवार पर जुल्मों का दौर जारी हो चुका था। उनके पुत्र प्रभाकर की मौत हो गई थी। देशभक्ति की कविताएं प्रकाशित करवाने और अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध जन-विद्रोह भड़काने के आरोप में उनके भाई को गिरफ्तार करके अण्डेमान जेल में भेज दिया गया था। नासिक जैक्सन हत्या केस में सावरकर के साथियों को पकड़ लिया गया था और उन्हें फांसी पर लटकाने के लिए तैयारी की जा रही थी। सावरकर की भाभी व पत्नी को अंग्रेजी सरकार ने बेघर कर दिया था। अंग्रेजी सरकार ने लन्दन और हिन्दुस्तान में दोनों जगह सावरकर की गिरफ्तारी के वारन्ट भी जारी कर दिए। इसके बावजूद सावरकर ने स्वदेश लौटने का संकल्प लिया।
इसी बीच 1 जुलाई, 1909 को युवा क्रांतिकारी मदन लाल धींगड़ा ने आजादी के रास्ते में कर्जन वाइली को रोड़ा समझा और उन्हें रास्ते से हटाने के लिए गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। आनन फानन में मदन लाल को गिरफ्तार करके फांसी की सजा सुना दी। उधर कुछ भारतीय नेताओं ने एक बैठक कैकस्टन हॉल में बैठक बुलाकर धींगड़ा के खिलाफ सर्वसम्मति से निन्दा प्रस्ताव पास करने की घोषणा की गई। इस बैठक में पहुंचकर वीर सावरकर ने धींगड़ा के पक्ष की जबरदस्त पैरवी की और उनके खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पास नहीं होने दिया।
जब वीर सावरकर 13 मई, 1910 की रात्रि को पैरिस से लन्दन पहुंचे तो रेलवे स्टेशन उतरते ही पुलिस ने उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर लिया। अदालत ने उनके मुकदमे को भारत में शिफ्ट कर दिया। जब सावरकर को 8 जुलाई, 1910 को एस.एस. मोरिया नामक समुद्री जहाज से भारत लाया जा रहा था तो वे रास्ते में जहाज के सीवर के रास्ते से समुद्र में कूद पड़े और तैरते हुए फ्रांस के दक्षिणी तट तक जा पहुंचे। लेकिन, बाद में अंग्रेज पुलिस ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया और उन्हें बम्बई लाया गया। यहां पर तीन जजों की विशेष अदालत गठित की गई। इसमें अपराधी की पक्ष जानने का कोई प्रावधान नहीं था। इस अदालत मंे सावरकर को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र बनाने की विधि की पुस्तक प्रकाशित करवाने का दोषी ठहराकर 24 दिसम्बर, सन् 1910 को 25 साल कठोर काले पानी की सजा सुनाई। इसके साथ ही दूसरे मुकदमें में नासिक के कलक्टर मिस्टर जैक्शन की हत्या के लिए साथियों को भड़काने का आरोपी ठहराकर अलग से 25 साल के काला पानी की सजा सुनाई गई। इस तरह सावरकर को दो अलग-अलग मुकदमों में दोषी ठहराकर दो-दो आजन्मों के कारावासों की सजा के रूप में कुल 50 साल काले पानी की सजा सुनाई गई। ऐसा अनूठा मामला विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ, जब किसी को इस तरह की सजा दी गई।
7 अपै्रल, 1911 को उन्हें काले पानी भेज दिया गया। वीर सावरकर ने 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक अंडमान की सेल्युलर जेल में बिताए। इस दौरान उन्होंने जेलर डेविड के कहर का सामना करना पड़ा। कैदियांे को दुषित पानी, सड़ा-गला खाना और भयंकर अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। इन सबके विरूद्ध कैदियों के साथ मिलकर सावरकर ने भूख हड़ताल की और सावरकर ने किसी तरह पत्र के जरिए कमिश्नर को अण्डेमान जेल में कैदियों पर हो रहे अत्याचार से अवगत करवाया। परिणामस्वरूप कार्यवाही हुई और जेलर डेविड को वहां से हटा दिया गया। इसके साथ ही कैदियांे की सभी शर्तों को भी मान लिया गया। अण्डेमान जेल में रहते हुए सावरकर कोयले से जेल की दीवारों पर देशभक्ति से परिपूर्ण कविताएं लिखते रहते थे। देशभर में सावरकर की रिहाई के लिए भारी आन्दोलन चला और उनकी रिहाई के मांग पत्र पर 75000 लोगों ने हस्ताक्षर किए। वर्ष 1921 में देशभर में भारी जन-आक्रोश के चलते उन्हें अंडेमान से वापिस भारत भेजा गया और उन्हें रत्नागिरी सैन्ट्रल जेल में रखा गया। इस जेल में वे तीन वर्ष तक रहे। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘हिन्दुत्व’ पर शोध ग्रन्थ तैयार किया। इसी दौरान 7 जनवरी 1925 को उनके घर पुत्री प्रभात और 17 मार्च, 1928 को पुत्र प्रभात का जन्म हुआ।
देशभर में सावरकर की रिहाई को लेकर चले आन्दोलनांे के बाद अंग्रेजी सरकार ने उन्हें इन शर्तों के साथ सावरकर को रिहा कर दिया कि वे न तो रत्नागिरी से बाहर जाएंगे और न ही किसी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेंगे। जेल से रिहा होने के बाद देश के बड़े-बड़े नेता और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक उनसे मिलने आए। मार्च, 1925 में उनके मिलने के लिए संघ के मुखिया डा. हैडगवार और 22 जून, 1941 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनसे मिलन के लिए आए। मुहम्मद अली जिन्हा सरीखे मुस्लिम नेता सावरकर को कट्टर हिन्दु नेता समझते थे और सावरकर इस पर गर्व करते थे। 10 मई, 1937 को अंग्रेजी सरकार ने सावरकर पर लगे सभी तरह के प्रतिबन्धों को हटा लिया। अब सावरकर को रत्नागिरी से बाहर जाने और हर तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की पूर्ण आजादी थी। सावरकर ने एक बार फिर देश की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष के लिए युवा क्रांतिकारियों को तैयार करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने भारतीय नौजवानांे को अंग्रेजी सेना में अधिक से अधिक भर्ती होने के लिए प्रेरित किया ताकि समय आने पर विद्रोह करके अंग्रेजी सरकार का तख्ता पलटा जा सके।
वीर सावरकर ने पूना में वर्ष 1940 में ‘अभिनव भारत’ नाम के क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य समय पड़ने पर सशस्त्र क्रांति के जरिए स्वतंत्रता हासिल करना था। इसी के साथ उन्होंने ‘मित्र मेला’ नाम की एक गुप्त संस्था भी बनाई। फरवरी, 1931 में वीर सावरकर के प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई। यह मन्दिर हर जाति, धर्म व वर्ग के लोगों के लिए खुला रहता था। सावरकर ने देश से जातिपाति, धर्म-मजहब के भेदभाव मिटाने के लिए राष्ट्रव्यापी जागरूकता आन्दोलन चलाए। देशभक्तों के अटूट स्वतंत्रता संघर्ष की बदौलत 15 अगस्त, 1947 को देश को आजादी नसीब हुई। लेकिन, देश का विभाजन हो गया। सावरकर इस विभाजन के बिल्कुल विरूद्ध थे। वे लाख प्रयास करने के बावजूद इस विभाजन की त्रासदी को रोक नहीं पाए।
वीर सावरकर कई मामलों में अन्य क्रांतिकारियों से अलग मिसाल बने। वे पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरूद्ध आंदोलन किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम वर्ष 1906 में बंगाल विभाजन के विरूद्ध ‘स्वदेशी’ का नारा लगाया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनके विचारों से खफा होकर अंग्रेजी सरकार ने उनकीं बैरिस्टर की डिग्री छीन ली थी। वे पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वाले पहले भारतीय क्रांतिकारी नेता बने। वे ऐसे पहले लेखक बने जिन्होंने 1857 की क्रांति को ‘स्वाधीनता संग्राम’ सिद्ध करते हुए एक हजार पृष्ठों की पुस्तक लिखी और जिसे अंग्रेजी साम्राज्य ने उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सावरकर दुनिया के पहले ऐसे राजनीतिक कैदी बने, जिस पर हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में केस चलाया गया। उन्होंने ही सर्वप्रथम वर्ष 1907 में भारतीय झण्डा तैयार करवाया, जिसे अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था। वे दुनिया के ऐसे पहले कलमकार भी बने जिनकी पुस्तक को प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया गया। वे ऐसे पहले क्रांतिकारी भी बने जिन्हें एक ही समय मंे दो अलग-अलग मामलों में 25-25 वर्ष की कठोर काले पानी की सजा सुनाई गई। इस तरह की अनेक विशिष्ट मिसालें वीर सावरकर के नाम दर्ज हुईं।
वीर सावरकर एक महान क्रांतिकारी के साथ-साथ प्रखर वक्ता, दूरदृष्टा, भाषाविद, कवि, लेखक, कूटनीतिक, राजनेता, इतिहासकार और समाज सुधारक भी थे। वीर सावरकर ने अपने जीवनकाल में ‘भारतीय स्वातांत्रय युद्ध’, ‘मेरा आजीवन कारावास’, ‘अण्डमान की प्रतिध्वनियां’, ‘हिन्दुत्व’, ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेस-1857’ जैसी कालजयी पुस्तकों की रचनाएं कीं। वीर सावरकर हिन्दू संगठनों के कई महत्वपूर्ण पदांे पर रहे और कई राष्ट्रीय कार्यक्रमों में मुख्य वक्ता भी बने। 8 अक्तूबर, 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि से नवाजा। 8 नवम्बर, 1963 को इनकीं पत्नी यमुनाबाईं चल बसीं। सितम्बर, 1966 में वे स्वयं भी भयंकर ज्वर का शिकार हो गए। इसके बाद दिनोंदिन उनके स्वास्थ्य में तेजी से गिरावट आती चली गई। 1 फरवरी, 1966 को सशस्त्र क्रांति के इस अग्रदूत ने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय ले लिया। अंत में यह हुतात्मा 26 फरवरी, 1966 के दिन मुम्बई में प्रातः दस बजे इस नश्वर संसार को हमेशा के लिए अलविदा हो गई। उन पर कई हिन्दी व मलयालम भाषा में फिल्में व वृतचित्र बनाए गए। उन्हीं की स्मृति में पोर्ट ब्लेयर विमान क्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया। कुल मिलाकर वीर सावरकर ने जीवन भर देश की आजादी और उसके उत्थान के लिए अटूट संघर्ष किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। देश के इस वीर अमर क्रांतिकारी का देश हमेशा ऋणी रहेगा। इस महान आत्मा को दिल की गहराईयों से कोटि-कोटि नमन।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
सावरकर छोटी उम्र से ही देशभक्ति से भरे लेख एवं कविताएं लिखते थे। 6 जून, 1906 को सावरकर कानून में बैरिस्टर की पढ़ाई के लिए वे लन्दन के लिए रवाना हुए। यहां पर आते ही उन्होंने हिन्दुस्तानी छात्रों से सम्पर्क साधना शुरू कर दिया। इसके साथ ही उन्होंने जर्मनी के तानाशाह मैजिनी की आत्मकथा का मराठी में अनुवाद करना शुरू कर दिया। लन्दन में रहते हुए वे लाला हरदयाल और मदन लाल ढ़ींगरा के अलावा वी.वी.एस. अय्यर, डब्लू.बी.फड़के, सुखसागर दत्त, पाण्डुरंग बापट, निरंजन पाल, आशिफ अली, एम.पी.टी. आचार्य, नहुक चतुर्भुज, सिकन्दर हयात, ज्ञानचन्द वर्मा, विरेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय, हेमचन्द दास आदि युवा हिन्दुस्तानियों के सम्पर्क में आए। इन युवा हिन्दुस्तानियों को अपने जोशिले भाषणों के जरिए क्रांतिकारी पथ पर अग्रसर करने के प्रयास में सावरकर कामयाब रहे। उन्होनंे मैजिनी की आत्मकथा के मराठी अनुवाद के निष्कर्ष रूप में एक प्रस्तावना तैयार की, जिसका मूलभाव था, ‘‘...राष्ट्र कभी नहीं मरता। परमात्मा ने मानव को स्वतंत्र रहने के लिए ही पैदा किया है, गुलाम बनकर रहने के लिए नहीं। ये तथ्य सुनिश्चित है कि जब दृढ़ संकल्प लोगे तभी तुम्हारा देश स्वतंत्र हो जाएगा।’’ इस प्रेरणादायक प्रस्तावना को पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाकर देश के क्रांतिकारियों के बीच बांटा गया। भारी संख्या में युवाओं ने इसे कंठस्थ कर लिया। अंग्रेज सरकार को जब इस घटना की भनक लगी तो आनन-फानन में उसने इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया
इसी बीच सावरकर ने अपने एक साथी बापट को रूसी क्रांतिकारी साथी से बम बनाने की विधि सीखने के लिए प्रेरित किया। काफी प्रयासों के बाद बापट अपने जानकार रूसी क्रांतिकारी से बम बनाने का मैनुअल हासिल करने में कामयाब हो गए। सावरकर ने इस मैनुअल को पुस्तक रूप में प्रकाशित करवाकर भारत के क्रांतिकारियों तक पहुंचावाई, ताकि देशभर में एक साथ बम विस्फोट करके अंग्रेजी शासन का तख्ता पलट किया जा सके।
इसी बीच सावरकर ने जर्मनी के स्टुअर्ट में दुनिया के सोशलिस्टों की एक बड़ी कांफ्रेंस हुई, जिसमें सभी देशों के झण्डे फहराए गए। भारत की तरफ से मैडम कामा ने सावरकर द्वारा तैयार भारतीय झण्डा फहराया। इस झण्डे में सभी आठ प्रान्तों के प्रतीक कमल पुष्प, सूर्य, चांद और बीच में ‘वन्देमातरम’ अंकित था। इसी दौरान उन्होंने सन् 1857 की क्रांति पर आधारित पुस्तक ‘1857 का सम्पूर्ण सत्य’ लिखी। जब अंग्रेजों को इसकी भनक लगी तो उन्होंने इस पुस्तक को प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबन्धित कर दिया।
जब सावरकर लन्दन में थे तो भारत में उनके परिवार पर जुल्मों का दौर जारी हो चुका था। उनके पुत्र प्रभाकर की मौत हो गई थी। देशभक्ति की कविताएं प्रकाशित करवाने और अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध जन-विद्रोह भड़काने के आरोप में उनके भाई को गिरफ्तार करके अण्डेमान जेल में भेज दिया गया था। नासिक जैक्सन हत्या केस में सावरकर के साथियों को पकड़ लिया गया था और उन्हें फांसी पर लटकाने के लिए तैयारी की जा रही थी। सावरकर की भाभी व पत्नी को अंग्रेजी सरकार ने बेघर कर दिया था। अंग्रेजी सरकार ने लन्दन और हिन्दुस्तान में दोनों जगह सावरकर की गिरफ्तारी के वारन्ट भी जारी कर दिए। इसके बावजूद सावरकर ने स्वदेश लौटने का संकल्प लिया।
इसी बीच 1 जुलाई, 1909 को युवा क्रांतिकारी मदन लाल धींगड़ा ने आजादी के रास्ते में कर्जन वाइली को रोड़ा समझा और उन्हें रास्ते से हटाने के लिए गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। अंग्रेजी सरकार बौखला उठी। आनन फानन में मदन लाल को गिरफ्तार करके फांसी की सजा सुना दी। उधर कुछ भारतीय नेताओं ने एक बैठक कैकस्टन हॉल में बैठक बुलाकर धींगड़ा के खिलाफ सर्वसम्मति से निन्दा प्रस्ताव पास करने की घोषणा की गई। इस बैठक में पहुंचकर वीर सावरकर ने धींगड़ा के पक्ष की जबरदस्त पैरवी की और उनके खिलाफ निन्दा प्रस्ताव पास नहीं होने दिया।
जब वीर सावरकर 13 मई, 1910 की रात्रि को पैरिस से लन्दन पहुंचे तो रेलवे स्टेशन उतरते ही पुलिस ने उन्हें तुरन्त गिरफ्तार कर लिया। अदालत ने उनके मुकदमे को भारत में शिफ्ट कर दिया। जब सावरकर को 8 जुलाई, 1910 को एस.एस. मोरिया नामक समुद्री जहाज से भारत लाया जा रहा था तो वे रास्ते में जहाज के सीवर के रास्ते से समुद्र में कूद पड़े और तैरते हुए फ्रांस के दक्षिणी तट तक जा पहुंचे। लेकिन, बाद में अंग्रेज पुलिस ने उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया और उन्हें बम्बई लाया गया। यहां पर तीन जजों की विशेष अदालत गठित की गई। इसमें अपराधी की पक्ष जानने का कोई प्रावधान नहीं था। इस अदालत मंे सावरकर को ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध शस्त्र बनाने की विधि की पुस्तक प्रकाशित करवाने का दोषी ठहराकर 24 दिसम्बर, सन् 1910 को 25 साल कठोर काले पानी की सजा सुनाई। इसके साथ ही दूसरे मुकदमें में नासिक के कलक्टर मिस्टर जैक्शन की हत्या के लिए साथियों को भड़काने का आरोपी ठहराकर अलग से 25 साल के काला पानी की सजा सुनाई गई। इस तरह सावरकर को दो अलग-अलग मुकदमों में दोषी ठहराकर दो-दो आजन्मों के कारावासों की सजा के रूप में कुल 50 साल काले पानी की सजा सुनाई गई। ऐसा अनूठा मामला विश्व के इतिहास में पहली बार हुआ, जब किसी को इस तरह की सजा दी गई।
7 अपै्रल, 1911 को उन्हें काले पानी भेज दिया गया। वीर सावरकर ने 4 जुलाई, 1911 से 21 मई, 1921 तक अंडमान की सेल्युलर जेल में बिताए। इस दौरान उन्होंने जेलर डेविड के कहर का सामना करना पड़ा। कैदियांे को दुषित पानी, सड़ा-गला खाना और भयंकर अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं। इन सबके विरूद्ध कैदियों के साथ मिलकर सावरकर ने भूख हड़ताल की और सावरकर ने किसी तरह पत्र के जरिए कमिश्नर को अण्डेमान जेल में कैदियों पर हो रहे अत्याचार से अवगत करवाया। परिणामस्वरूप कार्यवाही हुई और जेलर डेविड को वहां से हटा दिया गया। इसके साथ ही कैदियांे की सभी शर्तों को भी मान लिया गया। अण्डेमान जेल में रहते हुए सावरकर कोयले से जेल की दीवारों पर देशभक्ति से परिपूर्ण कविताएं लिखते रहते थे। देशभर में सावरकर की रिहाई के लिए भारी आन्दोलन चला और उनकी रिहाई के मांग पत्र पर 75000 लोगों ने हस्ताक्षर किए। वर्ष 1921 में देशभर में भारी जन-आक्रोश के चलते उन्हें अंडेमान से वापिस भारत भेजा गया और उन्हें रत्नागिरी सैन्ट्रल जेल में रखा गया। इस जेल में वे तीन वर्ष तक रहे। जेल में रहते हुए उन्होंने ‘हिन्दुत्व’ पर शोध ग्रन्थ तैयार किया। इसी दौरान 7 जनवरी 1925 को उनके घर पुत्री प्रभात और 17 मार्च, 1928 को पुत्र प्रभात का जन्म हुआ।
देशभर में सावरकर की रिहाई को लेकर चले आन्दोलनांे के बाद अंग्रेजी सरकार ने उन्हें इन शर्तों के साथ सावरकर को रिहा कर दिया कि वे न तो रत्नागिरी से बाहर जाएंगे और न ही किसी तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेंगे। जेल से रिहा होने के बाद देश के बड़े-बड़े नेता और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तक उनसे मिलने आए। मार्च, 1925 में उनके मिलने के लिए संघ के मुखिया डा. हैडगवार और 22 जून, 1941 को नेताजी सुभाषचन्द्र बोस उनसे मिलन के लिए आए। मुहम्मद अली जिन्हा सरीखे मुस्लिम नेता सावरकर को कट्टर हिन्दु नेता समझते थे और सावरकर इस पर गर्व करते थे। 10 मई, 1937 को अंग्रेजी सरकार ने सावरकर पर लगे सभी तरह के प्रतिबन्धों को हटा लिया। अब सावरकर को रत्नागिरी से बाहर जाने और हर तरह की राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की पूर्ण आजादी थी। सावरकर ने एक बार फिर देश की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष के लिए युवा क्रांतिकारियों को तैयार करना शुरू कर दिया। इसके साथ ही द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान उन्होंने भारतीय नौजवानांे को अंग्रेजी सेना में अधिक से अधिक भर्ती होने के लिए प्रेरित किया ताकि समय आने पर विद्रोह करके अंग्रेजी सरकार का तख्ता पलटा जा सके।
वीर सावरकर ने पूना में वर्ष 1940 में ‘अभिनव भारत’ नाम के क्रांतिकारी संगठन की स्थापना की। इस संगठन का उद्देश्य समय पड़ने पर सशस्त्र क्रांति के जरिए स्वतंत्रता हासिल करना था। इसी के साथ उन्होंने ‘मित्र मेला’ नाम की एक गुप्त संस्था भी बनाई। फरवरी, 1931 में वीर सावरकर के प्रयासों से बम्बई में पतित पावन मन्दिर की स्थापना हुई। यह मन्दिर हर जाति, धर्म व वर्ग के लोगों के लिए खुला रहता था। सावरकर ने देश से जातिपाति, धर्म-मजहब के भेदभाव मिटाने के लिए राष्ट्रव्यापी जागरूकता आन्दोलन चलाए। देशभक्तों के अटूट स्वतंत्रता संघर्ष की बदौलत 15 अगस्त, 1947 को देश को आजादी नसीब हुई। लेकिन, देश का विभाजन हो गया। सावरकर इस विभाजन के बिल्कुल विरूद्ध थे। वे लाख प्रयास करने के बावजूद इस विभाजन की त्रासदी को रोक नहीं पाए।
वीर सावरकर कई मामलों में अन्य क्रांतिकारियों से अलग मिसाल बने। वे पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने ब्रिटिश राज्य के केन्द्र लंदन में उसके विरूद्ध आंदोलन किया। उन्होंने ही सर्वप्रथम वर्ष 1906 में बंगाल विभाजन के विरूद्ध ‘स्वदेशी’ का नारा लगाया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई। वे पहले ऐसे व्यक्ति थे, जिनके विचारों से खफा होकर अंग्रेजी सरकार ने उनकीं बैरिस्टर की डिग्री छीन ली थी। वे पूर्ण स्वराज्य की मांग करने वाले पहले भारतीय क्रांतिकारी नेता बने। वे ऐसे पहले लेखक बने जिन्होंने 1857 की क्रांति को ‘स्वाधीनता संग्राम’ सिद्ध करते हुए एक हजार पृष्ठों की पुस्तक लिखी और जिसे अंग्रेजी साम्राज्य ने उस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। सावरकर दुनिया के पहले ऐसे राजनीतिक कैदी बने, जिस पर हेग के अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय में केस चलाया गया। उन्होंने ही सर्वप्रथम वर्ष 1907 में भारतीय झण्डा तैयार करवाया, जिसे अंतर्राष्ट्रीय सोशलिस्ट कांग्रेस में मैडम कामा ने फहराया था। वे दुनिया के ऐसे पहले कलमकार भी बने जिनकी पुस्तक को प्रकाशित होने से पूर्व ही प्रतिबंधित कर दिया गया। वे ऐसे पहले क्रांतिकारी भी बने जिन्हें एक ही समय मंे दो अलग-अलग मामलों में 25-25 वर्ष की कठोर काले पानी की सजा सुनाई गई। इस तरह की अनेक विशिष्ट मिसालें वीर सावरकर के नाम दर्ज हुईं।
वीर सावरकर एक महान क्रांतिकारी के साथ-साथ प्रखर वक्ता, दूरदृष्टा, भाषाविद, कवि, लेखक, कूटनीतिक, राजनेता, इतिहासकार और समाज सुधारक भी थे। वीर सावरकर ने अपने जीवनकाल में ‘भारतीय स्वातांत्रय युद्ध’, ‘मेरा आजीवन कारावास’, ‘अण्डमान की प्रतिध्वनियां’, ‘हिन्दुत्व’, ‘द इंडियन वॉर ऑफ इंडिपेंडेस-1857’ जैसी कालजयी पुस्तकों की रचनाएं कीं। वीर सावरकर हिन्दू संगठनों के कई महत्वपूर्ण पदांे पर रहे और कई राष्ट्रीय कार्यक्रमों में मुख्य वक्ता भी बने। 8 अक्तूबर, 1959 को उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डी.लिट. की उपाधि से नवाजा। 8 नवम्बर, 1963 को इनकीं पत्नी यमुनाबाईं चल बसीं। सितम्बर, 1966 में वे स्वयं भी भयंकर ज्वर का शिकार हो गए। इसके बाद दिनोंदिन उनके स्वास्थ्य में तेजी से गिरावट आती चली गई। 1 फरवरी, 1966 को सशस्त्र क्रांति के इस अग्रदूत ने मृत्युपर्यन्त उपवास करने का निर्णय ले लिया। अंत में यह हुतात्मा 26 फरवरी, 1966 के दिन मुम्बई में प्रातः दस बजे इस नश्वर संसार को हमेशा के लिए अलविदा हो गई। उन पर कई हिन्दी व मलयालम भाषा में फिल्में व वृतचित्र बनाए गए। उन्हीं की स्मृति में पोर्ट ब्लेयर विमान क्षेत्र का नाम वीर सावरकर अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा रखा गया। कुल मिलाकर वीर सावरकर ने जीवन भर देश की आजादी और उसके उत्थान के लिए अटूट संघर्ष किया और अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया। देश के इस वीर अमर क्रांतिकारी का देश हमेशा ऋणी रहेगा। इस महान आत्मा को दिल की गहराईयों से कोटि-कोटि नमन।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं।)
सम्पर्क सूत्र :
राजेश कश्यप
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक
म.नं. 1229, नजदीक शिव मन्दिर,
गाँव टिटौली, जिला. रोहतक
हरियाणा-124005
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मॅझिनी जर्मन तानाशाह नहीं, वे इटलीके स्वातंत्र्ययोद्धा थे. मॅझिनी ऑर गॅरिबाल्डी, दोनोंको ईटलीके स्वतंत्रताके शिल्पकार माना जाता है. इसी कारन, मॅझिनीके चरित्रग्रंथकी रचना श्री. सावरकरने की. उनके आत्मचरित्रका भाषांतर नहीं. (मैने हिंदीमे ठीकसे लिखा नही होगा तो माफी चाहता हूं. मै मराठी भाषिक हूं.)
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