27 जून/शहीदी दिवस विशेष
कब मिलेगा शहीद उदमी राम के वंशजों को सम्मान?
- राजेश कश्यप
क्रांतिवीर उदमी राम और उसकी पत्नी रत्नी देवी |
बड़ी विडम्बना का विषय है कि जिस नंबरदार उदमी राम ने 1857 की क्रांति के दौरान अपने देश के लिए अपनी जान को कुर्बान कर दिया, उसी नंबरदार उदमी राम के वंशज भूखों मरने के लिए विवश हैं। शहीद उदमी राम के वंशज हरदेवा सिंह (50 वर्ष) सोनीपत जिले के लिवासपुर गाँव में अपने बच्चों के साथ बड़ी मुश्किल से जीवन निर्वाह कर रहा है। गरीबी रेखा से नीचे की श्रेणी में शामिल हरदेवा कर्ज से डूबा पड़ा है, खाने के लिए दो वक्त की रोटी, पहनने के लिए कपड़ा और सिर छिपाने के लिए एक अदद पक्का मकान भी नहीं है। जर्जर मकान कब गिर जाए, कोई पता नहीं। ऐसे हालातों के बीच शहीद उदमीराम के इस वंशज को कितनी पीड़ा हो रही होगी, इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है। हरदेवा बेहद पीड़ा के साथ अपनी आप बीती सुनाते हुए बताता है कि वह सरकार से सहायता पाने के लिए खूब धक्के खा चुका है, लेकिन उसकी सहायता करने वाला कोई नहीं। इसके साथ ही सबसे बड़ी विडम्बना की बात तो यह भी है कि आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी आज लिबासपुर गाँव की मल्कियत के वंशजों के नाम ही है और शहीद उदमीराम एवं उसके क्रांतिकारी शहीदों के वंशज आज भी अंग्रेजी राज की भांति अपनी ही जमीन पर मुजाहरा करके गुजारा कर रहे हैं। लिबासपुर के ग्रामीण अपनी जमीन वापिस पाने के लिए दशकों से कोर्ट-कचहरी के चक्कर काट रहे हैं, लेकिन उन्हें अभी तक न्याय नहीं मिला है।
सन् 1857 की क्रांति के दौर में उदमी राम अपने गाँव लिबासपुर के नंबरदार थे और दूर-दूर तक उनकी देशपरस्ती के किस्से मशहूर थे। उनके नेतृत्व में लगभग 22 नौजवान क्रांतिकारियों का एक संगठन ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध काम करता था। इस संगठन में उदमी राम के अलावा गुलाब सिंह, जसराम, रामजस सहजराम, रतिया आदि युवा क्रांतिकारी शामिल थे। यह संगठन गाँव के नजदीक लगते राष्ट्रीय राजमार्ग से गुजरने वाले अंग्रेजी अफसरों को ठिकाने लगाने के मिशन में लगा रहता था। इस संगठन के युवा क्रांतिकारी भूमिगत होकर अपने पारंपरिक हथियारों मसलन, लाठी, जेली, गंडासी, कुल्हाड़ी, फरशे आदि से यहां से गुजरने वाले अंग्रेज अफसरों पर धावा बोलते थे और उन्हें मौत के आगोश में सुलाकर गहरी खाईयों व झाड़-झंखाड़ों के हवाले कर देते थे। क्योंकि उदमी राम व उसके साथियों को पहले ही पता था कि हथियार उठाए बिना हमें आजादी कभी नहीं मिल सकती। इसीलिए उन्होंने अपना जीवन देश को समर्पित करके हमेशा के लिए सिर पर कफन बांध लिया था। इन युवा क्रांतिकारियों की इस घातक रणनीति ने अंग्रेजी सरकार में हडक़ंप मचाकर रख दिया था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि अंग्रेजी सरकार लाख हाथ-पैर पटकने के बावजूद इन खूनी वारदातों को अंजाम देने वालों का सुराग तक नहीं पा रही थी।
एक दिन एक अंग्रेज अधिकारी लिबासपुर के नजदीक जी. टी. रोड़ से निकल रहा था। जब इसकी सूचना उदमी राम को लगी तो उन्होंने अपनी टोली के साथ उस अंग्रेज अफसर को भी घात लगाकर मार डालने की योजना बना डाली। उदमी राम ने साथियों सहित अफसर पर घात लगाकर हमला बोल दिया और उस अंग्रेज अफसर को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेज अफसर के साथ उनकी पत्नी भी थीं। भारतीय संस्कृति के वीर स्तम्भ उदमी राम ने एक महिला पर हाथ उठाना पाप समझा और काफी सोच-विचार कर उस अंग्रेज महिला को लिबासपुर के पड़ौसी गाँव भालगढ़ में एक ब्राहा्रणी के घर बड़ी मर्यादा के साथ सुरक्षित पहुंचा दिया और बाई को उसकी पूरी देखरेख करने की जिम्मेदारी सौंप दी। उदमी राम के कहेनुसार अंग्रेज महिला को अच्छा खाना, कपड़े और अन्य सामान दिया जाने लगा।
कुछ दिन बाद इस घटना का समाचार आसपास के गाँवों में फैल गया। कौतुहूलवश लोग उस अंग्रेज महिला को देखने भालगढ़ में ब्राहा्रणी के घर आने लगे और तरह-तरह की चर्चा करने देने लगे। यह चर्चा राठधाना गाँव के रहने वाले अंग्रेजों के मुखबिर ने भी सुनी। उदमी राम एवं उनके साथियों से संबंधित नया समाचार सुनकर वह भी घटना का पता लगाने के लिए पहले लिबासपुर गाँव में पहुंचा और फिर सारी जानकारी एकत्रित करके भालगढ़ में बाई के घर जा पहुंचा।
अंग्रेजों के मुखबिर ने बंधक अंग्रेज महिला से मिला और लिबासपुर से एकत्रित की गई सारी जानकारी उस महिला को दे दी। उसने अंग्रेज महिला को उदमी राम एवं उनके सभी साथियों गुलाब सिंह, जसराम, रामजस, जसिया आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दी। केवल इतना ही नहीं, ने उस अंग्रेज महिला को बताया कि लिबासपुर गाँव ही अंग्रेजी सरकार के विद्रोह का केन्द्र है और उसी के निवासी ही नंबरदार उदमी राम के नेतृत्व में अंग्रेज अफसरों की घात लगाकर हत्या कर रहे हैं। मुखबिर ने अंग्रेज महिला को यह कहकर और भी डरा दिया कि बहुत जल्द वे क्रांतिकारी उसे भी मौत के घाट उतारने वाले हैं। यह सुनकर अंग्रेज महिला भय के मारे कांप उठी। उसने चालाकी से काम लेते हुए मुखबिर और ब्राहा्रणी को बहुत बड़ा लालच दिया और कहा कि यदि वह उसकी मदद करे और उसे पानीपत के अंग्रेजी कैम्प तक किसी तरह पहुंचा दे तो उसे मुंह मांगा ईनाम दिलवाएगी।
मुखबिर ने झट अंग्रेज महिला की मदद करना स्वीकार कर लिया। मुखबिर ने बाई की मदद से रातोंरात उस अंग्रेज महिला को लेकर पानीपत के अंग्रेजी कैम्प में पहुंचा दिया। कैम्प में पहुंचकर अंग्रेज महिला ने मुखबिर की दी हुई सभी गोपनीय जानकारियां अंग्रेजी कैम्प में दर्ज करवाईं और यह भी कहा कि विद्रोह में सबसे अधिक भागीदारी लिबासपुर गाँव ने की है और उसका नेता उदमीराम है। इसके बाद अंग्रेजों का कहर लिबासपुर एवं उदमीराम पर टूटना ही था। सन् 1857 की क्रांति पर काबू पाने के बाद क्रांतिकारियों एवं विद्रोही गाँवों को भयंकर दण्ड देना शुरू किया। इसी क्रम में अंग्रेजी सरकार ने विद्रोह में भाग लेने वाले लिबासपुर व उसके आसपास के गाँवों को भी जमकर लूटा, तबाह किया और लोगों को भयंकर यातनाएं दीं। कई क्रांतिकारियों को काले पानी जैसी कठोर सजाएं भी दीं। कई गाँवों को नीलाम भी कर दिया और वहां के लोगों पर नौकरी के लिए प्रतिबन्ध भी लगा दिया। इसके साथ ही अंग्रेजों ने भोर होते ही लिबासपुर गाँव को घेर लिया और लोगों को चुन-चुनकर सजा देनी शुरू कर दी। नंबरदार को बंधक बना लिया गया। अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों की शिनाख्त के लिए देशद्रोही एवं गद्दार मुखबिर और भालगढ़ की बा्रहा्रणी बाई, जिसके घर अंग्रेज महिला को सुरक्षित रखा गया था को भी चौपाल में बुलवाया गया। उन्होंने क्रांतिकारियों को पहचानने में अहम भूमिका निभाई। जिस-जिस व्यक्ति का नाम लिया, अंग्रेजों ने उन सबको तत्काल गिरफ्तार कर लिया गया।
इसके बाद अंग्रेजों ने क्रांतिकारियों को जो दिल दहलाने वाली भयंकर सजाएं दीं, उन्हें शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता। क्रान्तिवीर उदमी राम को उनकी पत्नी श्रीमती रत्नी देवी सहित गिरफ्तार करके राई के कैनाल रैस्ट हाऊस में ले जाकर उन्हें पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से ठोंक दिया गया। अन्य क्रांतिकारियों को जी.टी. रोड़ पर लेटाकर बुरी तरह से कोड़ों से पीटा गया और सडक़ कूटने वाले कोल्हू के पत्थरों के नीचे राई के पड़ाव के पास भालगढ़ चौंक पर सरेआम बुरी तरह से रौंद दिया गया। इस खौफनाक मौत को देखकर आसमान भी थर्रा उठा। इनमें से एक कोल्हू का पत्थर सोनीपत के ताऊ देवीलाल पार्क में आज भी स्मृति के तौरपर रखा हुआ है।
उधर राई के रैस्ट हाऊस में पीपल के पेड़ पर लोहे की कीलों से टांगे गए क्रांतिवीर उदमी राम और उसकी पत्नी रत्नी देवी को तिल-तिल करके तड़पाया जा रहा था। उन दोनों को खाने के नाम पर भयंकर कोड़े और पीने के नाम पर पेशाब दिया जाता था। कुछ दिनों बाद उनकी पत्नी ने पेड़ पर कीलों से लटकते-लटकते ही जान दे दी। क्रांतिवीर उदमी राम ने 35 दिन तक जीवन के साथ जंग लड़ी और 35वें दिन 27 जून, 1858 को भारत माँ का यह लाल इस देश व देशवासियों को हमेशा-हमेशा के लिए आजीवन ऋणी बनाकर चिन-निद्रा में सो गया। उदमी राम की शहादत के बाद अंग्रेजी सरकार ने उनके पार्थिव शरीर का भी बहुत बुरा हाल किया और उसके परिवार को भी नहीं सौंपा। अंग्रेजों ने इस महान क्रांतिकारी के शव को कहीं छिपा दिया और बाद में उसे खुर्द-बुर्द कर दिया। क्रांतिवीर उदमी राम की स्मृति में एक स्तम्भ सोनीपत के ही ताऊ देवीलाल पार्क में बनाया गया है। इससे बड़ी विडम्बना का विषय और क्या हो सकता है कि शहीद उदमी राम के वंशज एवं उनके गाँव लिवासपुर वाले आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी स्वयं को परतंत्र मानते हैं और वे अपने हकों की लड़ाई आज भी बदस्तूर लड़ रहे हैं, लेकिन, उनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। ऐसे में यक्ष प्रश्र यह है कि आखिर, कब मिलेगा शहीद उदमीराम के वंशजों को सम्मान और उनका हक?
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