1 फरवरी / पुण्यतिथि विशेष
वर्तमान परिपेक्ष्य में चौधरी रणबीर सिंह की प्रासंगिकता
-राजेश कश्यप*
चौधरी रणबीर सिंह एक महान स्वतंत्रता सेनानी, संविधान निर्मात्री सभा के सदस्य, सच्चे गाँधीवादी, विशिष्ट समाजसेवी, आर्यमाजी और प्रबुद्ध शख्सियत के साथ-साथ एक अनूठे दूरदृष्टा भी थे। यही वह मूल कारण है जिसके कारण उनकी प्रासंगिकता आज भी कायम है। चौधरी साहब ने दशकों पहले ही राष्ट्र को उन सभी समस्याओं और विकट परिस्थितियों से अवगत करवा दिया था, जिनसे आज देश बुरी तरह से जूझ रहा है। आजकल देश में जनप्रतिनिधियों के प्रति जनता में बढ़ता अविश्वास, जातिपाति-धर्म-मजहब की संकीर्ण राजनीति, राज्यों के विभाजन, जमीन अधिग्रहण पर बवाल, आरक्षण की संकीर्ण सियासत, ऑनर किलिंग, किसानों की आत्महत्या, फसलों का उचित मुआवजा न मिलना, काला धन आदि अनेक समस्याएं विकट चुनौती बनी खड़ी हैं और उनका समाधान दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा है। देश के बहुत बड़े चिन्तक, विशेषज्ञ, अर्थशास्त्री एवं नीति-निर्माता इन समस्याओं के समाधान के लिए माथापच्ची कर रहे हैं, लेकिन परिणाम शून्य है। लेकिन, देश में एक ऐसे दूरदृष्टा इंसान भी थे, जिन्होंने देश को स्वतंत्रता प्राप्ति की भोर में ही इन सभी चिन्ताओं एवं चुनौतियों से अवगत करवा दिया था।
चौधरी रणबीर सिंह एकमात्र ऐसे नेता हुए, जिन्होंने सात अलग-अलग सदनों में मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करके लोकतांत्रिक इतिहास में एक नया रिकार्ड़ बनाया। वे 1947 से 1950 तक संविधान सभा के सदस्य, 1948 से 1949 संविधान सभा विधायिका के सदस्य, 1950 से 1952 अस्थाई लोकसभा के सदस्य, 1952 से 1962 पहली तथा दूसरी लोकसभा के सदस्य, 1962 से 1966 संयुक्त पंजाब विधानसभा के सदस्य, 1966 से 1967 और 1968 से 1972 तक हरियाणा विधानसभा के सदस्य और 1972 से 1978 तक राज्य सभा के सदस्य के रूप में निर्वाचित हुए। उन्होंने इन सात विभिन्न सदनों में ठोस तर्कों के साथ खासकर ग्रामीण भारत से जुड़े मुद्दों पर बहस की और दूरगामी नीतियों के निर्माण पर जोर दिया। चौधरी साहब का स्पष्ट रूप से मानना था कि देश की 80 प्रतिशत जनता गाँवों में निवास करती है और देश की आत्मा गाँवों में ही बसती है। इसीलिए, वे ग्रामीण भारत की नींव से लेकर निर्माण तक की मजबूती के लिए आवाज बुलन्द करना अपने जीवन का मुख्य ध्येय मानते थे।
एक आदर्श जनप्रतिनिधि में कौन-कौन से गुण होने चाहिएं? यह सवाल आज के दौर में ही नहीं, बल्कि पाँचवें दशक में भी उठ चुका है। इस सन्दर्भ में 4 अपै्रल व 23 नवम्बर, 1950 को चौधरी रणबीर सिंह ने अंतरिम संसद में जो विचार व्यक्त किए, वो आज की जनता की कसौटी पर एकदम खरे उतरते हैं। तब चौधरी साहब ने सुझाव दिए थे कि ‘‘सांसद अथवा विधायक बनने के लिए आवश्यक योग्यता देश की सेवा होनी चाहिए। सदन का सदस्य होने से पहले देश और उन लोगों की सेवा करनी चाहिए, जिसका प्रतिनिधित्व वह करना चाहता है। संसद को ऐसे आदमी की आवश्यकता है, जो प्रशासनिक क्षमता रखता हो, बुद्धि रखता हो, मामले को जल्द समझ सकता हो और अभिव्यक्ति की काबलियत रखता हो। यदि सांसद अथवा विधायक की योग्यता यह रख दी जाए कि जो कोई कम से कम पाँच, सात या दस एकड़ नई जमीन को आबाद न करे और काश्त में न लाए तो वह सदन का सदस्य नहीं बन सकता तो इससे देश का भी बहुत भला होगा।’’
चौधरी रणबीर सिंह जनप्रतिनिधियों के लिए आवश्यक योग्यता देश व समाजसेवा के जज्बे को मानते थे। वे जनप्रतिनिधि बनने के लिए शिक्षित होने की शर्त अथवा योग्यता निर्धारण के एकदम खिलाफ थे। उन्होंने 4 अपै्रल, 1950 को संसदीय बहस के दौरान दो टूक कहा कि ‘‘अनपढ़ लोगों ने देश को बहुत कुछ समृद्ध किया है।’’ उन्होंने अनपढ़ों की पैरवी करते हुए 23 नवम्बर, 1950 को संसदीय बहस के दौरान एक बार फिर कहा कि ‘‘यह जरूरी नहीं है कि विद्या की बड़ी-बड़ी उपाधियां लेने वाला संसद के या सभा के सदस्य के काम में अवश्य ही कामयाब हो। बल्कि, इतिहास इस बात का साक्षी है कि हिन्दुस्तान में कई ऐसे महानुभाव, जैसे प्रताप, रणजीत सिंह और अकबर जैसे पैदा हुए, जिनके पास न कोई बड़ी उपाधियां थीं और न वे कोई पढ़े-लिखे ही थे।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने संकीर्ण, जातिपाति, धर्म-मजहब एवं वर्ग विशेष की राजनीति करने वालों को कई बार लताड़ा और नसीहतें दीं। उन्होंने 24 नवम्बर, 1972 को राज्यसभा में स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘यह धर्म के नाम पर जो राजनीति चलाते हैं, वह कोई अच्छा काम नहीं करते हैं।’’ इसी तरह उन्होंने 6 मार्च, 1973 को सबको नसीहत देते हुए कहा कि ‘‘सस्ते नारे से तो देश का काम नहीं चल सकता है।’’ उन्होंने राज्यसभा में कहा कि 24 जून, 1977 को कहा कि ‘‘इस देश की सेवा ही आदर्श होना चाहिए।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘मैं चाहता हूँ कि इस देश में राजनीति को भी ठीक विधि के मुताबिक चलाया जाये। अगर, आप ठीक रास्ते पर चलेंगे तो इस देश में लोकतंत्र ठीक प्रकार से कायम हो सकेगा।’’ उन्होंने राजनीतिक पार्टियों का देशहित में 28 मार्च, 1973 को आह्वान करते हुए कहा कि ‘‘इस देश की जो कांस्टीट्यूशनल परिपाटियां हैं, उनके मुताबिक चलें।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने संसद में विभिन्न अवसरों पर वर्गविहिन समाज के निर्माण पर बल दिया। 6 नवम्बर, 1948 को उन्होंने भारतीय विधान-परिषद की बैठक में वाद-विवाद के दौरान स्पष्ट तौरपर कहा कि, ‘‘हम देश के अन्दर वर्गविहिन समाज बनाना चाहते हैं। यदि किसी को संरक्षण (आरक्षण) देना है तो उन्हीं आदमियों को देना है, जोकि किसान हैं, मजदूर हैं और पिछड़े हुए हैं।’’ उन्होंने 24 फरवरी, 1978 को राज्यसभा में स्पष्ट तौरपर कहा कि ‘‘हमारे देश में संरक्षण और आरक्षण के बगैर गरीब कभी चल नहीं सकता।’’ उन्होंने 25 अगस्त, 1961 को लोकसभा में दोहराया कि ‘‘मैं मानता हूँ कि यह जो धर्म और जातिपांत की बातें की जाती हैं, छोटी गिनती वाली जाति और बड़ी गिनती वाली जाति की बात कही जाती है, इससे देश की तरक्की होने वाली नहीं है।’’ उनका स्पष्ट तौरपर कहना था कि ‘‘जिन छोटी जातियों को उनका हक नहीं मिलता है, उनको वह मिलना चाहिये। चाहे टैक्सेशन की नीति हो या देश की दूसरी नीति हो, उसमें उनका ध्यान रखना चाहिये।’’ चौधरी साहब ने 11 दिसम्बर, 1973 को राज्यसभा के पटल पर कड़वी सच्चाई बयां करते हुए कहा कि ‘‘संविधान में यह बात मानी गयी है कि पेशे, लिंग या मजहब की बिना पर कोई पक्षपात नहीं किया जा सकता। लेकिन, इस देश में जिस तरीके से हम चल रहे हैं, उसमें मुझे ऐसा लगता है कि कुछ भेदभाव होता रहता है।’’ उन्होंने 24 अगस्त, 1961 को लोकसभा में कहा कि ‘‘हमने जब इस देश का संविधान बना था, उस वक्त हमारी कोशिश थी कि इस देश के अन्दर जो मत मतान्तर या कास्टीज्म या धर्म के नाम पर झगड़े होते हैं, वे खत्म हों। हिन्दुस्तान का वासी अपने आपको भारतीय समझना सीखे।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने हमेशा किसानों के हितों की जबरदस्त पैरवी की। दूरदृष्टा चौधरी रणबीर सिंह ने 23 नवम्बर, 1948 को भारतीय विधान परिषद में इसी मुद्दे पर चेताया था कि, ‘‘जब तक हम उपज की कोई इकोनोमिक प्राइस मुकर्रर नहीं करेंगे, तब तक किसान के साथ बड़ा भारी अन्याय होता रहेगा। एग्रीकल्चर की चीजों की इकानामिक प्राइस मुकर्रर किये बिना किसान के आर्थिक जीवन में स्थायित्व नहीं आ सकता और उसको स्थायित्व देना बेहद जरूरी है।’’ इससे पूर्व 6 नवम्बर को इसी परिषद में किसानों पर टैक्स मसले पर बहुत बड़ा सवाल खड़ा किया था कि, ‘‘किसानों के साथ यह बहुत बड़ा अन्याय है और ऐसे देश में जिसके अन्दर किसानों का प्रभुत्व है और जो देश किसानों का ही है, उसके अन्दर उनके साथ यह अन्याय जारी रहेगा तो यह कैसा मालूम देगा?’’
चौधरी रणबीर सिंह किसान, कृषि और देहात की उपेक्षा को लेकर बेहद आक्रोशित रहते थे। उन्होंने राज्य सभा में 19 दिसम्बर, 1973 को दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘जिन लोगों की इस देश में 30 फीसदी आबादी है, आज उनकी हमदर्दी करने वाले सब यहां पर बैठे हैं। लेकिन, जिन लोगों की 70 फीसदी आबादी है, उनकीं हमदर्दी करने वाला कोई नहीं है।’’ 8 मई, 1974 को राज्यसभा में साफ तौर पर कहा कि ‘‘हिन्दुस्तान की सबसे बड़ी इंडस्ट्री खेती है।’’ चौधरी साहब ने किसानों की बदहालत के मूल कारणों से अवगत करवाते हुए 1 अगस्त, 1975 को राज्यसभा में कहा कि ‘‘किसान की सबसे बड़ी बदकिस्मती है कि उसके लिए नीति-निर्धारण करने वाले भाई वे हैं, जो तनख्वाहदार हैं। जो वेतन लेने वाले भाई हैं, उनकी एक ही नीति है कि अगर पहली तारीख को मिलने वाली तनख्वाह, 5 तारीख तक न मिले तो वे आवाज लगाकर आसमान और जमीन एक कर सकते हैं। उन्हें ज्ञान नहीं कि कृषि की हालत क्या है?’’ इसके साथ ही उन्होंने खिन्नता व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘जो हमारे खेती के कर्णधार हैं, उन्हें देश की खेती का ज्ञान नहीं है। देश में खेती में क्या नुकसान और फायदा होता है, इसका ज्ञान उन्हें नहीं है।’’ उन्होंने 7 अपै्रल, 1951 को संसदीय बहस के दौरान बेहद कटू शब्दों का प्रयोग करते हुए कहा कि ‘‘देश के अन्दर आज अनाज ज्यादा पैदा करने का काम उन आदमियों के जिम्मे होता है, जो यह नहीं जानते कि गेहूं का पेड़ कितना बड़ा होता है और चने का पेड़ कितना बड़ा होता है?’’ चौधरी साहब ने 1 अगस्त, 1975 को राज्यसभा में बेहद गम्भीरता के साथ कहा कि ‘‘खेती में कर्ज की हालत यह है कि दादा का लिया हुआ कर्ज पोता अदा करता है।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने किसान एवं किसानी के प्रति सरकार द्वारा गम्भीरता न दिखाने के लिए कई बार कटु शब्दों का इस्तेमाल किया। उन्होंने 26 मार्च, 1976 को राज्यसभा में बेझिझक कहा कि ‘‘कृषि मंत्रालय में जो खेती करने वाले हैं, वे मंत्रालय के सरकारी कागजों में इतने फंस जाते हैं कि उनको कई दफा किसानों के हित की बात करते हुए शर्म आती है।’’ उन्होंने 17 अगस्त, 1976 को राज्यसभा में किसानों की दयनीय दशा से अवगत करवाते हुए कहा कि ‘‘देश में जो किसान गर्मी और सर्दी में खून व पसीना एक करके मेहनत करके कमाता है, वह खुद झोपड़ी में रहता है और जो उसके सामान की बिक्री करते हें, वे महलों में रहता है और जो कोई चीज पैदा नहीं करते हैं, वे महलों में रहते हैं। पैदा करने वाला भूखा रहता है, पैदा करने वाले के बच्चे के लिए कोई तालीम नहीं। कोई आराम नहीं। जो व्यापार करता है, सिर्फ इधर से उधर कुछ घटाता है, कुछ बढ़ाता है, कुछ गलत तोलता है, काली डंडी रखता है, काने बाट रखता है। उसके मकान और महल बनते हैं। इसके लिए सरकार को जागृत रहना जरूरी है।’’
चौधरी साहब ने खेद जताते हुए 22 जून, 1977 को राज्यसभा में कहा कि ‘‘खेती 80 प्रतिशत आदमियों का धन्धा है और उसके लिये बोलेने वाला मेरे जैसा इस सदन में अभी तक कोई नहीं उठा।’’ उन्होंने 21 नवम्बर, 1950 को संसदीय बहस के दौरान पूरी गम्भीरता के साथ कहा कि ‘‘मुझे यह कहने में शर्म नहीं है कि इस देश में जिनके हाथ में ताकत है, उनका काश्तकारों के साथ सीधा सम्बंध नहीं है।’’
उन्होंने 3 फरवरी, 1949 को संविधान सभा (विधायी) में स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘जो शहर के रहने वाले हैं, उन्हें खेती से न कोई प्रेम है और न कोई वास्ता।’’उन्होंने 24 फरवरी, 1961 को लोकसभा में संसदीय बहस के दौरान सबको चेताया कि ‘‘आगे भी कोई ऐसा वक्त न आ जाये, जब किसानों को बचाने की जरूरत पड़े।’’चौधरी साहब ने 26 नवम्बर, 1976 को राज्यसभा में साफ तौरपर कहा कि ‘‘बिचौलियों के हाथ से हमें किसान को बचाना चाहिए।’’उन्होंने 10 मई, 1974 को राज्यसभा में किसानों के हित में सुझाव देते हुए कहा कि ‘‘आज देश के अन्दर जरूरत इस बात की है कि जितने लोग खेती पर निर्भर हैं, उनमें से कुछ आदमियों को दूसरा धन्धा दिया जाये।’’
चौधरी साहब ने फसलों के न्यूनतम मूल्य निर्धारण के लिए जमकर वकालत की। उन्होंने राज्यसभाम में 1 अपै्रल, 1976 को कहा कि ‘‘जो किसान मेहनत करता है, मजदूरी करता है, उसको हिसाब से पैसा न मिले, यह अच्छी बात नहीं है।’’उन्होंने 19 अपै्रल, 1961 को लोकसभा में कहा कि ‘‘एक तरह से देखा जाये तो काश्तकार जो पैदा करता है, उसका भाव तो घटा है और जिन चीजों को काश्तकार इस्तेमाल करता है, उनका भाव बढ़ा है। एक तरीके से अगर, कोई घाटे में रहा है तो हिन्दुस्तान की 70 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ही घाटे में रही है।’’ उन्होंने 22 अपै्रल, 1961 को बेहद गम्भीरता के साथ कहा कि ‘‘काश्तकार सर्दियों में सख्त सर्दी में और गर्मियों में इतनी गर्मी में काम करते हैं, जिसमें वे लोग नहीं कर सकते, जो सस्ता अनाज खाना चाहते हैं।’’चौधरी रणबीर सिंह ने बाजार में किसानों की फसल को उचित दाम न मिलने के मुद्दे को 2 अगस्त, 1950 में संविधान सभा में बड़ी प्रखरता के साथ इन शब्दों में उठाया था, ‘‘किसान गेहूं मण्डी में ले जाते हैं। लेकिन, उसे खरीदने वाला कोई नहीं है और वे इसे अपने घरों में वापस ले जाते हैं या कम कीमत पर व्यपारियों को बेचने को विवश होते हैं। केन्द्र सरकार हो या प्रान्तीय सरकार, मार्केट को कन्ट्रोल करने में सफल नहीं हुई हैं व व्यापारियों पर अपना दबाव नहीं बना पाई हैं। मैं इतना ही कहना चाहता हूँ कि एकमुश्त नीति अपनाई जाए।’’इसके साथ ही चौधरी साहब ने खेतीहर मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी तय करने के लिए भी संसद में आवाज उठाई। उन्होंने 17 अपै्रल, 1951 को स्पष्ट तौरपर कहा कि ‘‘जब खेत के मजदूर की मजदूरी तय हो तो आपको इस बात पर भी गौर करना पड़ेगा कि खेत की पैदावार के लिये भी ऐसा भाव तय करें कि जिससे उसके लिये वह फायदेमन्द हो।’’
देश में अनाज भण्डार गृहों की भारी कमी के चलते लाखों-करोड़ों का अनाज प्रतिवर्ष खराब होता है। चौधरी रणबीर सिंह ने इस मुद्दे को बेहद गम्भीरता के साथ 23 फरवरी, 1951 को संसद में उठाते हुए कहा कि ‘‘आज हमारे देश की हालत है, यहां पर भण्डार गृह भी नहीं हैं। हमारी बड़ी इच्छा है कि हम देश के अन्दर लगभग हर एक जिले में भण्डार गृह बनवा सकें।’’उन्होंने 15 मार्च, 1976 को राज्यसभा में एक बार फिर कहा कि ‘‘आज हमारे देश में अनाज को भण्डारों में रखने की बहुत ही आवश्यकता है। आप किसानों को विश्वास दिलायें कि उनके अनाज को भण्डारों में सुरक्षित रखा जायेगा। क्योंकि, उन्होंने खून पसीना एक करके और मेहनत करके इस अनाज को पैदा कर रहे हैं।’’ चौधरी साहब ने 22 जून, 1977 को बड़ी गम्भीरता के साथ दोहराया कि ‘‘कम से कम भगवान के लिए इस अनाज (भण्डारित) को चूहों को मत खिलाईये, कीड़े-मकोड़ों से इस नष्ट न होनें दें।’’
चौधरी रणबीर सिंह कालाबाजारी के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने 24 फरवरी, 1948 की बहस में साफ तौरपर कहा कि, ‘‘व्यापारी कुछ भी मेहनत नहीं करता, वह सारा मुनाफा ले जाता है और इसी वजह से ब्लैक मार्केट बढ़ता है।’’चौधरी साहब कालाबाजारी को देश के लिए कलंक मानते थे। उन्होंने 15 फरवरी, 1951 को अंतरिम संसद सबको चेताया था कि, ‘‘जितना हमारे देश को कालाबाजारी करने वालों से खतरा है, उतना शायद दूसरे किसी आदमी से नहीं है। जहां तक कालाबाजारी करने वालों के खिलाफ आम कानून इस्तेमाल करने का सवाल है, अदालत में वकील लोग अधिकतर अपराधियों को बेकसूर साबित करन में कामयाब हो जाते हैं और वे रिहा हो जाते हैं। ऐसे में उन्हें कोई दण्ड नहीं मिल पाता। मैं समझता हूँ कि मौजूदा कानून कालाबाजारी को रोकने में नाकाफी है।’’उन्होंने 15 फरवरी,1951 को संसदीय बहस के दौरान दो टूक शब्दों में देश को आगाह किया कि ‘‘कालाबाजारी करने वालों के पास बडे-बड़े अखबार हैं, दूसरी बड़ी-बड़ी चीजें हैं, उनके पास रूपया काफी होता है।’’
16 मार्च, 1948 की संसदीय बहस में चौधरी साहब ने स्पष्ट चेताया कि, ‘‘हमारा देश देहाती और किसानों का देश है। अगर, देहातियों और किसानों की आर्थिक हालत खराब होती है तो तमाम हिन्दुस्तान की आर्थिक स्थिति खराब समझनी चाहिए।’’उन्होंने 24 नवम्बर, 1949 को भारतीय संविधान सभा में बहस करते हुए कहा कि, ‘‘किसानों को आर्थिक आजादी तभी मिल सकती थी, जब ऐसा कायदा बनाया जाता कि जिस चीज को वह पैदा करते हैं, उसे उसकी लागत से कम कीमत पर बेचने के लिए विवश न किया जा सकता होता।’’चौधरी साहब ने किसानों के मामले में छल-फरेब की राजनीति करने वाले लोगों को आड़े हाथों लेते हुए 21 नवम्बर, 1950 को संसदीय बहस के दौरान दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘आप सस्ती लोकप्रियता के साधन इस्तेमाल करने चले हैं, उन्हें छोड़ दे और सही मायनों में देश की उन्नति करें, काश्तकार को ऊंचा उठायें और उसके द्वारा अपने देश को खुशहाल बनायें।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने हमेशा देहात के विकास को प्राथमिकता देने की पैरवी की। 6 नवम्बर, 1948 को उन्होंने भारतीय विधान-परिषद की बैठक में वाद-विवाद के दौरान स्पष्ट तौरपर कहा, ‘‘इस देश के निर्माण में जितना बड़ा योगदान देहातियों का है, उतना हक उन्हें मिलना चाहिए और हर चीज में देहात का प्रभुत्व होना चाहिए।’’इससे एक कदम आगे बढ़ते हुए उन्होंने 22 अगस्त, 1949 की बहस में देहात के विद्यार्थियों के लिए लोक सेवा आयोग की परीक्षा में आरक्षण की जोरदार वकालत की। उन्होंने कहा कि, ‘‘जब लोक सेवा आयोग द्वारा कोई प्रतियोगिता आयोजित की जाती है, तब एक ही प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं और निर्णय करने की कसौटी वही होती है। हमारा देश गांवों का देश है और ग्रामीण जनता अधिक है। लेकिन, तथ्यों के आधार पर इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि शहर के लोगों का विकास अपेक्षाकृत तीव्र गति से हुआ है और वे ग्रामीण जनता की अपेक्षा बहुत अधिक उन्नत हैं और इन परिस्थितियों में यदि ग्रामीण क्षेत्र के किसी व्यक्ति का शहरी क्षेत्र के व्यक्ति के साथ मुकाबला करवाया जाता है और उनसे एक ही प्रकार के प्रश्न पूछे जाते हैं तो इस बात में संदेह नहीं कि ग्रामीण व्यक्ति, शहरी व्यक्ति के साथ सफलतापूर्वक अथवा समानता के आधार पर मुकाबला नहीं कर सकेगा।’’
इस समस्या के सरल समाधान भी चौधरी साहब ने सुझाए। उन्होंने कहा कि, ‘‘इस स्थिति के समाधान के दो तरीके हैं। एक यह है कि ग्रामवासी उम्मीदवारों के लिए सरकारी सेवाओं में कुछ अनुपात आरक्षित कर दिया जाए और सेवाओं में उन्हें आरक्षित संख्या के पद आबंटित किये जाएं। उन पदों के लिए केवल ग्रामीण जनता के उम्मीदवारों को ही मुकाबला करने के लिए केवल ग्रामीण जनता के उम्मीदवारों को ही मुकाबला करने की अनुमति दी जाए। दूसरा तरीका यह है कि लोक सेवा आयोग के सदस्यों को नियुक्त करते समय इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखा जाए कि उनमें 60-70 प्रतिशत सदस्य ऐसे होने चाहिएं, जो ग्रामवासियों की कठिनाईयों को समझते हों और उनके साथ सहानुभूति रखें।’’
आजकल नए राज्यों के निर्माण के लिए कई तरह की सियासती चालें देश में चल रही हैं। इस मुद्दे पर चौधरी रणबीर सिंह सबसे हटकर विचार रखते थे। 1 अगस्त, 1949 को भारतीय संविधान सभा में उन्होंने एक महत्वपूर्ण प्रस्ताव पर विचार व्यक्त करते हुए कहा कि, ‘‘छोटे-छोटे टुकड़ों को अलहदा सूबों की शक्ल में रखना देश के हित में नहीं है। अगर हम इन्हें अलहदा रखेंगे तो हमें इतना ही भारी प्रशासनिक ढ़ाचा खड़ा करने के लिए भी मजबूर होना पड़ेगा।’’हालांकि उन्होंने 2 अगस्त, 1949 की बहस में यह स्वीकार किया था कि, ‘‘उत्तर प्रदेश बहुत बड़ा प्रान्त है और इतने बड़े प्रान्त का राज्य आसानी से नहीं चल सकेगा। इसलिए एक न एक दिन उनको उसके दो हिस्से करने ही होंगे।’’उनकी यह भविष्यवाणी पूर्णतरू सही साबित हुई हो चुकी है और उत्तर प्रदेश का दूसरा हिस्सा उत्तराखण्ड बन चुका है।
गाँव में स्वास्थ्य सुविधाओं पर भी चौधरी साहब ने जो स्थिति बयां की वह आज भी जस की तस नजर आती है। उन्होंने 10 मार्च, 1948 को संविधान सभा में इस मुद्दे पर बोलते हुए कहा था कि, ‘‘देहातों के अन्दर हजारों ऐसे आदमी हैं, जो अपने आपको वैद्य कहते हैं और देहातियों की जिन्दगियों से खेलते हैं। हर कोई आदमी किसी वैद्य के पास जाता है और एक दिन में ही देहात के लोगों के लिए वैद्य बनकर बैठ जाता है। एलोपैथ डाक्टरों की तर्ज पर उन वैद्यों को रजिस्टर्ड किया जाना चाहिए और आपसे सर्टिफाइड वैद्यों को ही चिकित्सा की इजाजत मिले।’’
देशभर में जमीन अधिग्रहहण के मसले पर देशभर में बवाल मच रहा है। इस मुद्दे पर किसान व सरकार के बीच सीधा टकराव सामने आ चुका है। जमीन अधिग्रहण से विस्थापित होने वाले लोग अपने दर्द को बयां करने के लिए धरनों, प्रदर्शनों और रैलियों का सहारा ले रहे हैं। जमीन अधिग्रहण के कारण विस्थापित होने वाले लोगों के प्रति चौधरी रणबीर सिंह के हृदय में अत्यन्त सहानुभूति थी। इस मसले पर उन्होंने 6 सितम्बर, 1948 को संविधान सभा (विधायी) में विस्थापितों की पैरवी करते हुए दो टूक शब्दों में कहा था, ‘‘मैं एक किसान और खेती करने वाला होने के नाते इस बात को अच्छी तरह समझता हूँ कि जमीन का मुआवजा क्या होता है? आप उसको मुआवजा दीजियेगा, मगर उसका जो पेशा है, वह इन रूपयों से पूरा नहीं होगा। अगर आप उसको दूसरा पेशा नहीं देते हैं तो आप उसे जमीन के बदले जमीन दें। बिल के अन्दर जो पैसे की शर्त है, उसको छोड़ दिया जाए और उसकी जगह यह रख दिया जाए कि उसको जमीन के बदले में उसी कीमत के बराबर की जमीन दी जाएगी।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने जमीन अधिग्रहण से संबंधित मुद्दे पर अपनी बेबाक राय प्रस्तुत करते हुए सुझाव दिए थे कि, ‘‘जहां तक हो सके कृषि भूमि को छोड़ दें, क्योंकि, वहां काफी अन्न पैदा होता है। उसके बदले, जहां तक हो सके परती भूमि में से जमीन लें और उपजाऊ जमीन को छोड़ दें। परती जमीन पर जो सरकारी चीज बनाना हो वहां बनायें। अगर, किसी जरूरत के लिए वह समझें कि वे उस उपजाऊ कृषि भूमि को नहीं छोड़ सकते, तभी वे ऐसी जमीन पर अपना हाथ रखें या डालें, अन्यथा नहीं। लेकिन, उसके साथ-साथ, जैसाकि अधिग्रहण कानून में दर्ज है, बहुत मामूली सा मुआवजा देकर काश्तकार से अपना पल्ला छुटाना कोई अच्छी नीति नहीं है।’’यदि चौधरी साहब के इन सुझावों पर गंभीरता से गौर किया जाए तो जमीन अधिग्रहण के विवादों को सहज हल किया जा सकता है।
आजकल सगोत्र विवाह और ऑनर किलिंग का मुद्दा राष्ट्रीय स्तर पर चिंता एवं चुनौती का विषय बना हुआ है। देहात के लोग इस मुद्दे के हल के लिए ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ में संशोधन करने का अभियान चलाए हुए हैं और दूसरी तरफ सरकार इस रूख पर उदासीन नजर आ रही है। हिन्दू कोड’ के प्रस्ताव पर 22 सितम्बर, 1951 को बहस करते हुए चौधरी रणबीर सिंह ने अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा था कि, ‘‘यह हिन्दू कोड बिल देश के अन्दर कुछ सुधार करने के लिये या सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिये, उनमें तबदीली करने के लिये, लाया जाता रहा है। आज जिस तरीके से जिस बैक डोर से यह बढ़ा है, वह कोई बहुत अच्छा ढ़ंग नहीं है। हमारा समाज इतनी उन्नति नहीं कर पाया है कि हम मान जायें कि यह सगोत्र विवाह ठीक है। इसको आप दस साल के लिये अपनी किताब में जमा रखें। दस साल बाद उस पर फिर गौर कर लिया जाएगा। अगर ठीक होगा तो मान लेंगे और अगर उस समय तक समाज की उतनी तरक्की नहीं हुई तो वह कायदा किताब में ही रहेगा।’’
आज देश के कई राज्यों में नशाखोरी की समस्या चरम पर है। चौधरी रणबीर सिंह ने नशाखोरी के खिलाफ देश व समाज को निरन्तर चेताया। वे देश में बढ़ती जा रही शराब की लत को बेहद घातक मानते थे। उन्होंने इस सन्दर्भ में 30 जनवरी, 1969 को हरियाणा विधानसभा में दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘जहां हमारे देश और हर क्षेत्र में आगे बढ़े हैं। लेकिन, कुछ बातों में देश पीछे भी गया है। जिन कारणों से देश पीछे रहा है, उनमें से एक कारण शराब का प्रयोग करना है।’’उन्होंने साफ तौर पर कहा कि ‘‘मैं इस हक में हूँ कि शराबबंदी होनी चाहिए, ताकि, समाज का सामाजिक स्तर ऊंचा हो।’’ चौधरी साहब ने सुझाव देते हुए कहा कि ‘‘हमें चाहिए कि हम समाज को शराबबन्दी की बात को मानने के लिए तैयार करें।’’ उन्होंने आगे कहा कि ‘‘जब तक हम अपने भाईयों का जीवन स्तर, चरित्र निर्माण नहीं करते हैं तब तक यह शराबबन्दी नहीं हो सकती।’’
चौधरी रणबीर सिंह समाज में निरन्तर गिरते नैतिक मूल्यों के प्रति भी बेहद चिंतित रहते थे। उन्होंने देश व समाज का इस विषय पर ध्यान आकर्षित करते हुए 16 फरवरी, 1970 को हरियाणा विधानसभा में कहा था कि ‘‘आज प्रदेश के अन्दर जो बात होती है, वह बड़े बूढ़ों की सलाह से नहीं होती है। आज जो करने वाले हैं, वे शक्तिशाली बच्चे हैं और बच्चे भी वे हैं जो बगैर रोमांस के कोई बात नहीं करना चाहते हैं। वे तो सिनेमा की फिल्म देखना चाहते हैं, वे शिक्षा लेना नहीं चाहते।’’उन्होंने बच्चों में गिरते मूल्यों से अवगत करवाते हुए कहा था कि ‘‘बच्चे अपनी माँ को प्रातरू उठकर नमस्कार नहीं कहते। वे तो फिल्म एक्टै्रस देखना चाहते हैं।’’चौधरी साहब बच्चों में गिरते नैतिक मूल्यों के लिए हमारी शिक्षा पद्धति को अहम दोषी मानते थे। उन्होंने इस सन्दर्भ में राज्यसभा में 4 अगस्त, 1975 को बेहद कड़े शब्दों में कहा था कि ‘‘जिन विश्वविद्यालयों को हम अनुदान दे रहे हैं, वे हिन्दुस्तान में कैसे नौजवान पैदा कर रहे हैं? आया उनके जीवन में हिन्दुस्तान की सभ्यता का कोई नामोनिशान बाकी रह गया है या सब हिप्पी बन गए हैं। अनुशासन जैसी चीज, जो भारत की सभ्यता में थी, वह बाकी रही है या नहीं? अगर अनुशासनहीन स्नातिका, स्नातक पैदा किए तो वह देश की सेवा सही नहीं कर पायेंगे। वे देश के हितों के खिलाफ जायेंगे।’’उन्होंने सुझाव देते हुए कहा कि ‘‘हमारे देश में जो शिक्षा शास्त्री माने जाते हैं, वे पुराने जमाने की सोच के चले आ रहे हैं। अब देश की शिक्षा की बागडोर उन शिक्षा शास्त्रियों के हाथों में सौंप देनी चाहिये, जो देश को आगे ले जा सकते हैं और बदलते हुए जमाने के साथ देश को आगे बढ़ा सकते हैं।’’उन्होंने 16 दिसम्बर, 1977 को अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहा कि ‘‘मैं समझता हूँ कि बेसिक एजुकेशन अगर, हम इस देश में चलाते तो हमारे देश में इतनी बड़ी गड़बड़ी नहीं होती।’’इसके साथ ही चौधरी साहब विद्यार्थी जीवन में राजनीति के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने इस बारे में राज्यसभा में 30 जनवरी, 1976 को अपने सुझाव देते हुए कहा कि ‘‘अगर, हमें इस देश को बनाना है, विद्यार्थियों को बनाना है और आप चाहते हैं कि वे विद्या हासिल करें तो आपको विद्यार्थियों में राजनीति नहीं लानी चाहिये। हम सभी आनते हैं कि विद्यार्थी जब राजनीति में पड़ जाते हैं तो पढ़ाई नहीं कर सकते हैं।’’चौधरी रणबीर सिंह शिक्षा के व्यवसायीकरण के एकदम खिलाफ थे। उन्होंने 10 अगस्त, 1973 को सख्त लहजे में कहा कि ‘‘मेरा कहना है कि शिक्षकों के लिए दुकान नहीं खोलिए।’’
देश में चल रहे हिन्दी-अंग्रेजी के विवादों और क्षेत्रीय भाषाओं की उपेक्षाओं पर भी चौधरी रणबीर सिंह की सोच वर्तमान परिपेक्ष्य में अनुकरणीय है। उन्होंने 3 सितम्बर, 1959 को लोकसभा में बहस के दौरान बड़ी गम्भीरता के साथ कहा था कि ‘‘मैं चाहता हूँ कि यह हिन्दी का और दूसरी जबानों का झगड़ा अंग्रेजी के साथ खत्म हो। उस झगड़े को ज्यादा देर तक न बढने दिया जाए और उसके लिए जरूरी है कि हिन्दुस्तान की सरकार की और उसके अफसरों की नीति सही लाईन पर चले।’’उन्होंने कहा कि ‘‘मैं तो चाहता हूँ कि जितनी भी अन्य भाषाएं हैं, वे आगे आएं और इस सदन के अन्दर उनका भी हिन्दी में तर्जुमा हो। इसी तरह विभिन्न प्रान्तों में भी जो बिल एक्ट वगैरह छपें, वे वहां की प्रादेशिक भाषाओं में छपें।’’चौधरी साहब ने 11 फरवरी, 1969 को हरियाणा विधानसभा में बोलते हुए हिन्दी को सरकारी भाषा बनाने के विषय पर दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘जिस ढ़ंग से हम हिन्दी भाषा को एक सरकारी भाषा बनाने जा रहे हैं, वह इस प्रकार से नहीं बन सकती। सरकारी भाषा बनाने के लिए हमें काफी प्रबन्ध करना पड़ेगा और काफी सूझबूझ से काम करना होगा।’’उनका मानना था कि ‘‘जितने भी कानून हैं, वे सभी हिन्दी में हों और उनका तर्जमा अंग्रेजी में हो। लेकिन, होता यह है कि मसला अंग्रेजी में बनकर आता है और हिन्दी में तर्जमा होता है। इसलिए, इसके उलट होना चाहिए।’’ चौधरी रणबीर सिंह ने 3 सितम्बर, 1959 को लोकसभा में बेहद खिन्न होकर कहा कि ‘‘आज मुझे यह बड़े दुरूख के साथ कहना पड़ता है कि अंग्रेजी के पढ़े लिखे विधायकों, प्रशासकों, न्यायधीशों और वकीलों ने देश में अंग्रेजी को बनाये रखने की साजिश कर दी है।’’चौधरी साहब ने अंग्रेजी को प्रतिभा मापने का पैमाना बनाने पर सख्त ऐतराज जताते हुए लोकसभा में 9 मई 1959 को स्पष्ट शब्दों में कहा था कि ‘‘अक्सर जो तरीका काबिलियत को नापने का है, वह यह है कि अंग्रेजी के ज्ञान से उसे नापा जाता है। अच्छा होगा कि जितनी जल्दी हो सके हिन्दी या जो इलाकाई भाषाएं हैं, उनमें इम्तहानों को जारी करें।’’चौधरी साहब ने देश की एकता के लिए हिन्दी को बेहद जरूरी बताते हुए 24 फरवरी, 1961 को स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘देश की एकता के लिए जरूरी है कि इस देश की कोई एक भाषा बने, जो हिन्दी ही हो सकती है।’’
चौधरी रणबीर सिंह प्रजातंत्र प्रबल पक्षधर थे। उन्होंने 16 फरवरी, 1970 को हरियाणा विधानसभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा कि ‘‘प्रजातंत्र के अन्दर लोगों को चलाने की जिम्मेवारी प्रजातंत्र के नेताओं पर होती है, चाहे वे विरोधी दल के नेता हों या चाहे सरकार दल के नेता हों।’’उन्होनें 26 अगस्त, 1970 को हरियाणा विधानसभा में साफ शब्दों में कहा कि ‘‘प्रजातंत्र में पैसे का सही तरीके से इस्तेमाल हो।’’चौधरी साहब ने 28 अगस्त, 1970 को हरियाणा विधानसभा में बेहद सख्त लहजे में कहा कि ‘‘चुपचाप टैक्स लगाना प्रजातंत्र की भावना के विरूद्ध है।’’उन्होंने 16 फरवरी, 1971 को हरियाणा विधानसभा में दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘हमें कोशिश करनी चाहिए कि संविधान के पीछे जो धारणा है, उस धारणा को सामने रखकर हम चलें।’’चौधरी साहब ने प्रजातंत्र को मजबूत करने के लिए सामाजिक संगठनों को मंजूरी देने की पैरवी करते हुए 15 मार्च, 1961 को लोकसभा में कहा कि ‘‘अगर, हमको अपना काम सही ढ़ंग पर चलाना है तो उन यूनियन्स को मंजूरी देनी चाहिए, जो देश के हित का ध्यान रखती हैं।’’चौधरी साहब ने 24 जून, 1977 को राज्यसभा में कहा कि ‘‘हमारा आदर्श क्या है? हमारा आदर्श है, जनता की सेवा करना। देश का उत्थान करना और देश में प्रजातंत्र ही लोगों का राज रहे, लोकलाज रहे। इस सबको कायम रखना है।’’उन्होंने 12 फरवरी, 1971 को हरियाणा विधानसभा में दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘सच्चाई को छिपाने की कोशिश करना, प्रजातंत्र के सूत्र के खिलाफ है।’’उन्होंने कहा कि ‘‘बात हमारे हक में हो, वही बात हम कहें, यह अच्छी बात नहीं है और जो हमारे खिलाफ पड़ती है, उस बात को छिपाया जाये, यह तरीका अच्छा नहीं है।’’
देश व प्रदेश में विकास मामले में भेदभाव की राजनीति निरन्तर चर्चित रही है। चौधरी रणबीर सिंह विकास के मामले में भेदभाव बरतने के सख्त विरोधी थे। उन्होंने 26 अगस्त, 1970 को नसीहत देते हुए कहा कि ‘‘आप पिछड़े हुए इलाकों के अन्दर ज्यादा से ज्यादा पैसा खर्च करो। लेकिन, पक्षपात न करो।’’उन्होनें विकास के लिए एकता बनाने की अपील करते हुए 16 फरवरी, 1970 को हरियाणा विधानसभा में अपील करते हुए कहा कि ‘‘सारे हरियाणा की इसी में भलाई है कि एक होकर चलें।’’चौधरी साहब भाई-भतीजावाद के खिलाफ भी थे। उन्होंने इस सन्दर्भ में 31 अगस्त, 1949 को संविधान सभा में कहा कि ‘‘भाई-भतीजावाद को तभी रोका जा सकता है, जब उनका अन्तरूकरण निर्मल व मजबूत हो जाये और उनके विचारों में परिवर्तन आ जाये।’’
देश में बढ़ती हिंसा और अपराधों के आलोक में चौधरी रणबीर सिंह ने कई बार गम्भीर विशखेषण प्रस्तुत किए, जोकि वर्तमान परिपेक्ष्य में भी प्रासंगिकता रखते हैं। उन्होनें 8 फरवरी,1971 को हरियाणा विधानसभा में कहा कि ‘‘हिंसा आदमी तब करता है, जब वह समझता है कि अहिंसा का हथियार वह नहीं चला सकता।’’ उनका साफ तौरपर कहना था कि ‘‘यह तो देखना चाहिये कि अगर एक आदमी को इंसाफ नहीं मिलता तो वह जाये कहां? इन्साफ का रास्ता बन्द नहीं होना चाहिए।’’लोगों का कानून पर भरोसा कायम रहे, इसके लिए चौधरी साहब ने सुझाव दिया कि ‘‘एक्शन ऐसा होना चाहिए जो न्यायोचित दिखाई दे, न्याय के मुताबिक हो और देखने में भी ऐसा लगे कि न्यायोचित है।’’
चौधरी रणबीर ङ्क्षसह ग्रामीण भारत के सच्चे पैरोकार थे। उनका स्पष्ट दृष्टिकोण था कि ‘‘गाँव बचेगा तो देश बचेगा।’’ उन्होंने 16 मार्च, 1948 को संविधान सभा (विधायी) में बोलते हुए कहा कि ‘‘हमारा देश देहाती और किसानों का देश है। अगर एग्रीकलचरिस्टस और देहातियों की इकोनमी खराब हो जाती है तो तमाम हिन्दुस्तान की इकोनमी खराब समझनी चाहिये।’’उन्होंने 21 मार्च, 1949 को दोहराया कि ‘‘यह देश एक कृषि प्रधान देश है। इसके अन्दर 85 फीसदी आदमियों की रोटी का वास्ता सीधे खेती से है।’’ इसके साथ ही चौधरी साहब ने स्पष्ट चेतावनी देते हुए कहा कि ‘‘अगर हमने अपनी कृषि की आलत को नहीं सुधारा, उत्पादन को नहीं बढ़ाया और ठीक नहीं किया तो हमारा देश जो आजाद हुआ है, वह आर्थिक दृष्टि से आजाद नहीं रहेगा।’’चौधरी साहब ने 22 जनवरी, 1976 को गाँव की देहातियों पर लगाये जाने वाले टैक्स नीतियों पर हल्ला बोलते हुए कहा कि ‘‘हमारे देश में जो अर्थशास्त्री हैं और जो किताबें पढ़कर टैक्स लगाने की बात करते हैं, वे ठण्डे और गरम कपड़ों में बैठकर विचार करते हैं। उनको गाँव की वास्तविकताओं का पता नहीं है।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने देहात में रहने वाले गरीबों की आवाज को सड़क से लेकर संसद तक बुलन्द किया। उन्होंने 24 फरवरी, 1978 को राज्यसभा में दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘जब तक गाँवों में रहने वाले गरीब लोगों की तरफ ध्यान नहीं दिया जाएगा, तब तक इस देश का विकास नहीं हो सकता है।’’उन्होंने 30 मार्च, 1977 को राज्यसभा में कहा कि ‘‘अगर, आप चाहते हैं कि ग्रामीण अर्थव्यवस्था सही हो, देश की अर्थव्यवस्था सही हो, यह जो तनख्वाहदार भाई हैं, इनके दबाव में आना छोड़ दें। यह देश तनख्वाहदारों का देश नहीं है। यह देश गरीबों का देश है, जिन गरीबों की आमदनी 30 रूपये महीना भी नहीं है।’’उन्होंने 17 मई, 1976 को बेहद कटू शब्दों में कहा कि ‘‘हिन्दुस्तान में जो भी योजनाएं बनीं, ऊंचे लोगों की सुविधा को ध्यान में रखकर बनाईं गईं।’’इसके साथ ही उन्होंने 26 मई, 1976 को राज्यसभा में जोर देते हुए कहा कि ‘‘आज आवश्यकता इस बात की है कि जो हमारी योजनाएं हैं, उन पर हम गम्भीरतापूर्वक विचार करें और हमारी जो पंूजीवादी सोच है, उसको समाप्त करें।’’उन्होंने दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘हमारी विचारधारा यह होनी चाहिए, जिससे देश को फायदा हो, गरीब जनता को फायदा हो।’’चौधरी साहब का 14 मार्च, 1978 को राज्यसभा में साफ तौरपर कहना था कि ‘‘देश की तरक्की 60 करोड़ भाईयों की तरक्की है, यह चन्द बड़े बड़े कारखानेदारों से नहीं होगी।’’
उन्होंने 10 मई, 1974 को बेलाग होकर कहा कि ‘‘देहात को आगे बढ़ाये बिना यह देश आगे नहीं बढ़ेगा।’’ उन्होंने बेघरों के हितों की पैरवी करते हुए कहा राज्यसभा में 7 मार्च, 1975 को कहा कि ‘‘जिनके पास मकान नहीं हैं, उन सबको मकान के लिए भूमि मिलनी चाहिए।’’उन्होंने 26 अपै्रल, 1960 को लोकसभा में कहा कि ‘‘जो रियायत बड़ी-बड़ी मिलों को और बड़ी-बड़ी कम्पनियों और बड़े-बड़े सरमायेदारों को है, वही रियायत उतने ही हिसाब से एक गरीब आदमी को भी मिले।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने देश की तरक्की के लिए इन्डस्ट्री को बढ़ावा देने की वकालत करते हुए 26 अपै्रल, 1960 को लोकसभा में स्पष्ट तौरपर कहा कि ‘‘अपने देश की तरक्की करने के लिये इंडस्ट्रीज को बढ़ाना बहुत जरूरी है। इंडस्ट्रीज को बढ़ावा देने के लिये खास तौर से हिन्दुस्तान जैसे विशाल देश में जहां बेकारी बहुत ज्यादा फैली हुई है, छोटे-छोटे धंधों को बढ़ावा देना बहुत जरूरी हो जाता है।’’उन्होंने 7 मार्च, 1975 को राज्यसभा में अपना दृष्टिकोण पेश करते हुए कहा कि ‘‘हमारे देश में तरक्की तभी हो सकती है, जब कपड़ा बनाने की छोटी-छोटी खड्डियां बिजली से गाँव-गाँव में चलें, बजाय इसके कि हम बड़े-बड़े कारखानों की तरफ देखें।’’
चौधरी रणबीर सिंह ने दुधारू पशुओं के वध पर प्रबल विरोध किया। वे पशु हत्या के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने 12 दिसम्बर, 1950 को संसदीय बहस के दौरान स्पष्ट शब्दों में कहा कि ‘‘भारतवर्ष में एक नही, लाखों नहीं, करोड़ों आदमी ऐसे हैं, जिनकी यह प्रबल भावना है कि हर एक जानवर का कत्ल होना बन्द हो।’’उन्होंने पशु हत्या के विरोध में भावनात्मक टिप्पणी करते हुए संसद में कहा कि ‘‘जिन्होंने एक साल के अन्दर इस और पन्द्रह सेर दूध रोजाना दिया हो, ऐसे दूध देने वाले पशुओं की अगर रक्षा नहीं कर सकते हैं, तो मैं कहता हूँ कि वे अपनी रक्षा भी नहीं कर सकते हैं।’’उन्होंने 25 नवम्बर, 1960 को लोकसभा में एक बार फिर कहा कि ‘‘आज यह बड़ी चिंता का विषय है कि हमारे देश में पशुधन का हा्रस निरंतर होता जा रहा है।’’उन्होंने विडम्बना जताते हुए 7 अपै्रल, 1961 को लोकसभा में कहा कि ‘‘एक जमाना था, तब दूध की पैदावार इतनी अधिक नहीं थी, जब हमारे देश के बारे में कहा जाता था कि यहां घी और दूध की नदियां बहतीं बहा करती थीं। अब हमारे देश के अन्दर घी और दूध की पैदावार क्यों कम हुई? उसके ऊपर हमें गम्भीरतापूर्वक सोचना है।’’
चौधरी रणबीर सिंह देशहित में कानूनों के निर्माण के पक्षधर थे। वे जनता का शोषण करने वाले अंग्रेजी कानूनों के सख्त खिलाफ थे। उन्होंने राज्यसभा में 11 नवम्बर, 1976 को साफ तौरपर कहा कि ‘‘जो हमारे कायदे-कानून हैं, वे हमारे देश की जरूरत के मुताबिक हों और ऐसे कायदे-कानून हम न बनायें जो अंग्रेजी तरीके से चलते हों। इनको हम जितना जल्दी छोड़ेंगे, उतनी ही देश की भलाई है।’’उन्होंने 24 नवम्बर, 1972 को कहा कि ‘‘कानून से सारी बुराई रूक जाने वाली है, यह बात सही नहीं है।’’कानून में तब्दीली करने के सन्दर्भ में चौधरी साहब ने 24 नवम्बर, 1972 को दो टूक शब्दों में कहा कि ‘‘कानून में तबदीली करके आप समझें कि आपका इलाज हो जायेगा तो वह मुमकिन नहीं होगा। इलाज तो इलाज करने से होता है।’’इससे पूर्व उन्होंने 22 अपै्रल 1961 को चेताते हुए कहा था कि ‘‘खाली कानून से ही देश आगे चलने वाला नहीं है। देश आगे चलता है देश का दिमाग बदलने से, देश का स्वभाव बदलने से और देश का स्वाद बदलने से।’’ उनका स्पष्ट तौरपर मानना था कि ‘‘जब तक हम कुर्बानी अदा नहीं करेंगे, तब तक देश का हित कैसे हो सकेगा? हर एक देश कुर्बानी से बढ़ता है। कोई भी देश केवल कायदे और कानून बनाने से आगे नहीं बढ़ सकता है।’’
चौधरी रणबीर सिंह सकारात्मक पत्रकारिता के पक्षधर थे। उन्होंने 28 नवम्बर, 1974 राज्यसभा में दो टूक कहा कि ‘‘समाचार पत्रों में सही समाचार नहीं छपते। लड़ाई-भिड़ाई के समाचार छपते हैं।’’उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि ‘‘अखबार वालों और पत्रकारों को ठीक बात कहनी चाहिए। मैं चाहता हूँ कि हमारे पत्रकार इस बात को नोट करें और चार हजार को दस हजार न कहें और दो हजार को पचार हजार न कहें। जो सही बात है, उसी की खबर दें।’’चौधरी साहब ने श्रमजीवी पत्रकारों की पैरवी करते हुए कहा कि ‘‘श्रमजीवी पत्रकारों को संरक्षण देना चाहिये।’’
चौधरी रणबीर ङ्क्षसह ने देश की राजधानी दिल्ली से सम्बंधित मुद्दों पर भी कई बार दूरगामी सुझाव दिये। उन्होंने राज्यसभा में 9 अगस्त, 1977 को दिल्ली के हित में सुझाव दिया कि ‘‘अगर आपको दिल्ली को बाढ़ से बचाना है तो किसाऊ बांध बनाना शुरू करें। साहिबी नदी के ऊपर डैम बनाना शुरू कीजिए, वरना दिल्ली शहर डूबता रहेगा और दिल्ली को बचाने के नाम पर हरियाणा को डूबोते रहेंगे।’’चौधरी साहब दिल्ली को राज्य का दर्जा दिये जाने के पक्षधर नहीं थे। इस सन्दर्भ में उन्होंने 28 अगस्त, 1951 को संसदीय बहस के दौरान दो टूक शब्दों में सुझाव दिया था कि ‘‘मैं समझता हूँ कि दिल्ली को अलग दर्जा देना गलती होगी। इस सरकार में और दिल्ली राज्य की सरकार के बीच हमेशा झगड़ा पैदा करेंगे।’’उनके इस तरह के अनेक सुझाव आज भी प्रासंगिक बने हुए हैं।
कुल मिलाकर, चौधरी रणबीर सिंह देश व देहात से जुड़े हर मुद्दे पर बेहद गहरी सोच व समझ रखते थे। वे समय की नब्ज पहचानने वाले थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि वे एक स्पष्टवादी, निष्पक्ष और सच्चाई के पक्षधर थे। उन्होंने सड़क से लेकर संसद तक आम आदमी के हितों के लिए संघर्ष किया और उनके हित में बड़ी बेबाकी से आवाज बुलन्द की। उन्होंने निजी स्वार्थपूर्ति अथवा निजी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को हमेशा दूर रखा। वे एक योगी पुरूष और सच्चे राष्ट्रचिन्तक थे। उन्होंने ग्रामीण भारत के जीवन को आत्मसात किया और हर समस्या का डटकर मुकाबला किया। वे संघर्ष की घोर अग्रि में तपे हुए थे। ग्रामीण पृष्ठभूमि का उनका गहरा अनुभव ही उन्हें असाधारण शख्सियत का बना गया। उन्होंने जो भी कहा, वह अक्षरशः खरा होता था, क्योंकि वह कड़े अनुभव और गहन अध्ययन पर आधारित होता था। इसी बदौलत ही, आज भी उनके विचार और सुझाव आज भी एकदम प्रासंगिक और अचूक हैं। जब तक उनके विचारों और सुझावों पर अमल नहीं होगा, निरूसन्देह तब तक चौधरी रणबीर सिंह प्रासंगिक ही बने रहेंगे।
*(नोट: लेखक महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय रोहतक में स्थापित चौधरी रणबीर सिंह शोधपीठ में बतौर शोध सहायक पद पर कार्यरत हैं।)
-राजेश कश्यप ‘टिटौली’
मोबाईल नं.: 9416629889
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