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गुरुवार, 25 मार्च 2010

खाप पंचायतों के फरमान बनाम संविधान


खाप पंचायत का एक दृश्य

‘ढ़राणा-प्रकरण’, ‘वेदपाल-’हत्याकाण्ड’, ‘बलहम्बा-हत्याकाण्ड’, ‘सिवाना हत्याकाण्ड’ आदि एक के बाद एक कानून की धज्जियां उड़ाने वाली घटनाओं ने हरियाणा की खाप पंचायतों के विभत्स होते स्वरूप, स्वार्थपूर्ण राजनीतिकों की ‘वोटनीति’ और बेबस कानूनी सिपाहियों के बंधे हाथों ने २१वीं सदी के प्रबुद्ध समाज और ६३वां स्वतंत्रता दिवस मनाने वाले वि’व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश  को गहन चिन्तन करने के लिए विवश  कर दिया है। यह सब वर्जनाओं को तोड़ती आधुनिक युवापीढ़ी और कानून व न्याय प्रणाली से सर्वोपरि समझने वाली समाज की खाप पंचायतों की तानाशाही  के आपसी वैचारिक व सैद्धान्तिक टकरावों का परिणाम है।

सर्वखाप पंचायतों की लालफीताशाही  और उसे खूनी, असभ्य व गैर-कानूनी ‘तुगलकी फरमानों’ एवं ‘फतवों’ को देखते हुए यह कदापि नहीं कहा जा सकता कि हमने स्वतंत्रता के छह दशक  पार कर लिए हैं और हम २१वीं सदी के लोकतांत्रिक देश व सुसभ्य समाज के नागरिक हैं। सहज यकीन नहीं होता कि एक मासूम व निर्दोष व्यक्ति समाज के कुछ स्वयंभू ठेकेदारों की संकीर्ण, उन्मादी व बर्बर सोच का शिकार हो जाता है। किसी की जघन्य हत्या कर दी जाती है और किसी को उसके मौलिक अधिकारों से वंचित करके खानाबदोश  जिन्दगी जीने के लिए विवश  कर दिया जाता है और हमारा प्रजातांत्रिक कानून मूक-दर्शक व असहाय खड़ा नजर आता है।

सदियों से हमारे देश  में जाति-पाति, धर्म-सम्प्रदाय, छुआछूत, उंच-नीच, स्त्री-पुरूष आदि सब भेदभावों को मिटाने के लिए सदियों से जागरण अभियान चल रहे हैं। इन सब सामाजिक विकृतियों से तो हम निजात हासिल नहीं कर पाए, लेकिन ‘गोत्र-विवाद’ नामक एक और समस्या के शिकार हो गए। सर्वखाप पंचायतों की एक स्पष्ट मांग उभरकर सामने आई है कि वे गाँव एवं गुहाण्ड (पड़ौसी गाँव) के गौत्र की लड़की को अपनी बेटी मानते हैं, इसलिए उसे बहू के रूप में कदापि स्वीकार नहीं कर सकते। कुछ बुद्धिजीवी लोग अपनी इस हजारों वर्ष पुरानी परंपरा, रीति-रिवाज एवं संस्कार को जीवन्त बनाए रखने एवं कानूनी मान्यता प्राप्त करने के लिए संवैधानिक नियमों के तहत ‘हिन्दू विवाह अधिनियम’ में संशोधन करवाने की राह पर आगे बढ़ने के लिए एकजूट हो रहे हैं, जोकि स्वागत योग्य है। संवैधानिक राह पर चलते हुए अपनी बात रखना सराहनीय कदम कहलाएगा और असंवैधानिक रूप से अपने रौब व धाक प्रदर्शित करने के लिए गैर-कानूनी रूप से बेसिर-पैर के फैसले सुनाना एकदम गलत, बेतुका एवं तुगलकी फरमान अथवा फतवा ही करार दिया जाएगा।

कुछ उन्मादी लोग मीडिया जगत को ‘नौसिखिए’ और ‘बेवकूफ’ बताकर अपने गाल बजाते हैं, क्या उन्होने कभी आत्म-मन्थन किया है? क्या उन्हे ‘खाप’ अथवा ‘सर्वखाप’ की वास्तविक परिभाषा, सिद्धान्तों, मूल्यों एवं ध्येयों का भी ज्ञान है? ‘सर्वखाप’ की परिभाषा के अनुसार ‘ऐसा सामाजिक संगठन जो आकाश  की तरह सर्वोपरी हो और पानी की तरह स्वच्छ, निर्मल एवं सबके लिए उपलब्ध अर्थात न्यायकारी हो।’ क्या समाज के उन्मादी ठेकेदारों ने कभी सोचा है कि वे चौधर के अहंकार एवं नाक व मूच्छों के सवाल के नाम पर मदान्ध होकर ‘सर्वखाप’ के मूल सिद्धान्तों से कितनी कोसों दूर निकल गए हैं? सबसे बड़े आश्चर्य  का विषय तो यह है कि अधिकतर जिन लोगों की अपने घर में कोई अहमियत नहीं हैं, वे बाहर पंचायती बने बैठे हैं। हालांकि खाप पंचायतों में चन्द बुजुर्ग एवं विद्वान लोग ऐसे बचे हुए हैं, जिनका समाज में पूरा मान-सम्मान है, लेकिन उनकी आजकल कोई अहमियत ही नहीं मान रहा है। उन्मादी एवं असामाजिक तत्वों के दबाव में आकर उन्हें हाँ में हाँ मिलानी पड़ रही है। इसी के परिणास्वरूप आज खाप पंचायतों पर गहरा प्र’नचिन्ह उठ खड़ा हुआ है।

आज निश्चित  रूप से पंचायतों, गोत्र पंचायतों, खाप पंचायतों एवं सर्वखाप पंचायतों की कार्यप्रणाली व कार्यशैली  में दिनरात का अन्तर आ चुका है। पहले पंचायतें जोड़ने का काम करती थीं, आज पंचायतें तोड़ने का काम कर रही हैं। पहले लोगों को बसाने के पूरे प्रयास किए जाते थे, आज उजाड़ने के किए जाते हैं। पहले व्यक्ति की जान, माल, संपत्ति, सम्मान आदि हर तरह की सुरक्षा की जाती थी, लेकिन आज किसी तरह की कोई परवाह ही नहीं की जाती। पहले खाप पंचायतें सामाजिक समस्याओं एवं कुरीतियों के खिलाफ ऐतिहासिक निर्णय लेने बैठती थीं और अपने स्तर पर ही हर विवाद का निष्पक्ष एवं सर्वमान्य हल करके कानून की मदद किया करती थीं। लेकिन आज ये सब खाप पंचायतें विवाह-शादियों के ‘गोत्र’ संबम्धी मामलों में उलझकर केन्द्रित सी हो गई हैं और कानून को ठेंगा दिखाने व उसे अपने हाथ में लेने के के लिए गैर-कानूनी व तुगलकी फरमान सुनाने को आतुर हुई दिखाई देती हैं। पहले खाप पंचायतों में बड़े बुजुर्ग बड़ी शांति, धैर्य, संयम एवं सौहार्द भाव से निष्पक्ष निर्णय सुनाते थे, आज उन्हीं पंचायतों में ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ की तर्ज पर फैसले होते हैं और उन्मादी व असामाजिक तत्वों के लठ्ठ के जोर पर पंचायती नुमाइन्दे बेसिर-पैर के निर्णय लेते हैं।

आज जब भी कोई प्रबुद्ध व्यक्ति इन तथाकथित समाज सुधारक खाप पंचायतों को वास्तविक आईना दिखाने की कोशिश  भर करता है अथवा लोकतांत्रिक देश  में कानून के सम्मान के लिए कलम चलाता है तो समस्त खाप पंचायतों की भौहें तन जाती हैं। खाप-पंचायतों के कथित प्रतिनिधि सरेआम मंचों से कानून की सीख देने वाले बुद्धिजीवियों, पत्रकारों एवं कलमकारों को गालियां देने लगते हैं और अनर्गल प्रलाप करने लगते हैं। इसी दुर्भावना के चलते ही लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पर किसी न किसी रूप में हमले किए जाते हैं और अपनी भड़ास निकाली जाती है। सर्वखापों  द्वारा सजाए गए ऐतिहासिक मंचों पर ही बुरी तरह से सरेआम नैतिकता, न्याय, सिद्धान्तों, मूल्यों, संस्कृति एवं संस्कारों की बुरी तरह से धज्जियां उड़ती दिखाई देती हैं और कानून व प्रशासन  मूक-दर्शक बना बेबसी के आंसू बहाने के सिवाय कुछ नहीं कर पाता है। गत ९ अगस्त २००९ को बेरी में हुई सर्वखाप पंचायत इसका ताजा उदाहरण कहा जा सकता है।

हर अति का एक अंत होता है। सर्वखाप पंचायतों के विभत्स होते स्वरूप को देखकर लगता है कि संभवत: हजारों वर्ष पुरानी खाप परंपरा अपने चरम पर पहुंच चुकी है। आज की नई पीढ़ी अपनी ही पुरानी पीढ़ी के खिलाफ बगावती तेवर अपना चुकी है। आधुनिक युवावर्ग समाज की जाति-पाति, उंच-नीच, धर्म-मजहब आदि पुरानी विकृतियों को छोड़कर एवं समाज की वर्जनाओं को तोड़ते हुए अपनी जिन्दगी के स्वयं फैसले करने लगी है और समाज के कथित ठेकेदारों को खुली चुनौती देना शुरू कर दिया है। आधुनिक युवापीढ़ी की इस पहल के पक्ष में  कानून एवं प्रबुद्ध वर्ग भी खुलकर सामने आ चुका है। केन्द्रीय गृहमंत्री पी. चिदम्बरम द्वारा ‘सम्मान’ के नाम पर हो रही हत्याओं पर रोक लगाने व उनके दोषियों को वर्तमान कानून के तहत ही सजा देने का बयान और मीडिया, बुद्धिजीवी एवं महिला संगठनों द्वारा खाप पंचायतों को गैर-कानूनी घोषित करवाने की तेज होती माँग संभवत: खाप-पंचायतों की मनमानी पर अंकुश  लगाने में कामयाब हो सके और उन्हें ‘आत्म-मन्थन’ करने के लिए विवश  कर सके।

यदि सर्वखाप प्रतिनिधि स्वविवेक, एकाग्रचित, निष्पक्ष, मानवीय, संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक होकर ‘आत्म-मंथन’ करें तो उन्हें स्वत: ही ज्ञान हो जाएगा कि निश्चित रूप से हमारी सामाजिक एकता, सौहार्द, भाईचारे एवं सांस्कृतिक मूल्यों की प्रतीक खाप पंचायतें अपने मूल्यों को बरकरार रख पाने में कहीं न कहीं असफल रही हैं और जिसके चलते उन पर उंगलियां उठ रही हैं। खाप पंचायतों में उन्मादी, अहंकारी, न’ोड़ी, अल्पबुद्धि, संकीर्ण एवं हिंसक प्रवृति वाले व्यक्तियों की अधिक संख्या में घूसपैठ हो गई और बुजुर्ग एवं बुद्धिजीवी लोगों की निरन्तर कमी होती चली गई। इसी के चलते खाप पंचायतों द्वारा एक के बाद एक गैर-कानूनी, दोगले, बेसिर-पैर के खूनी, दहशतनुमा फैसले व फतवे सुनाए गए और सर्वखाप पंचायतें बदनाम होकर रह गईं।

कुल मिलाकर खाप पंचायतों को इस समय गहन आत्म-मंथन करने व समय की माँग को सहज व सहर्ष स्वीकार करते हुए संवैधानिक डगर पर चलने की कड़ी आवश्यकता  है। सर्वखाप पंचायतों के लिए समयानुरूप ऐतिहासिक निर्णय लेने, अपनी उदार व सामाजिक छवि को प्रकट करने, लोकतंत्र एवं कानून में आस्था जताने, भविष्य में खाप-पंचायतों के अनर्गल प्रलाप, बेसिर-पैर के तुगलकी फतवों एवं फैसलों पर रोक लगाने, उन्मादी एवं असामाजिक तत्वों द्वारा खाप पंचायतों की आड़ में अपने स्वार्थ सिद्ध करने के लिए पुख्ता पाबन्दी लगाने, सामाजिक सौहार्द के नवीनतम मूल्य स्थापित करने, सामाजिक कुरीतियों एवं रूढ़ियों के खिलाफ सामाजिक अभियान चलाने की घोषणा करने एवं मानवीय मूल्यों को स्थापित करते हुए भविष्य में होने वाले गोत्र-विवादों का आसान एवं सर्वमान्य हल निकालने एवं ‘सम्मान’ के नाम पर होने वाली हत्याओं, आजीवन गाँव निर्वासनों एवं अन्य गैर-कानूनी गतिविधियों आदि पर रोक लगाने के सशक्त कदम उठाने जैसे मुद्दों पर एकमत बनाने के लिए महत्वपूर्ण पहल करने की तत्काल आवश्यकता है.

यदि इन मुद्दों पर हम सार्थक पहल करने और उनका  समाजहित में लाभ उठाने में सफल हो जाते हैं तो निश्चित  तौरपर न केवल हजारों वर्ष पुरानी सर्वखाप पंचायतों का अस्तित्व बचाया जा सकेगा, अपितु लोगों की आस्था भी सर्वखाप पंचायतों के प्रति पुन: बहाल हो सकेगी। यदि खाप पंचायतें ऐसा करने में सफल नहीं हो सकीं तो यह उनके लिए सबसे बड़े दुर्भाग्य का विषय होगा। क्योंकि अब वो समय आ गया है, जब खाप पंचायतों को भी हर हालत में समयानुरूप बदलना ही पड़ेगा। यदि से स्वयं नहीं बदलीं तो निश्चित  तौरपर ‘समय’ का कालचक्र उन्हें स्वयं ही बदलकर रख देगा।
(राजेश कश्यप)
स्वतंत्र पत्रकार, लेखक एवं समीक्षक।

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